अनुच्छेद 370 में फेरबदल के बाद से जम्मू-कश्मीर में लगाई गई पाबंदी और डेढ़ महीने बाद भी हालात बदतर रहने पर क़रीब 500 शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों ने गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने बयान जारी कर संचार माध्यमों पर पाबंदी, विपक्षी नेताओं और विरोध करने वालों की हिरासत, भारी तादाद में सुरक्षा बलों को तैनाती और कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन का विरोध किया है।
बयान जारी करने वाले ये शिक्षाविद और वैज्ञानिक भारतीय हैं जो दुनिया भर के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और संस्थाओं में शैक्षणिक कार्य में लगे हुए हैं। इसमें उन्होंने कहा है कि सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वह देश के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा और कल्याण सुनिश्चित करे।
बता दें कि 5 अगस्त को सरकार ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को निरस्त कर दिया था और इसे दो संघ शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया है। इस बड़े बदलाव के कारण किसी अनपेक्षित स्थिति से निपटने के लिए बड़े स्तर पर पाबंदी लगाई गई, सशस्त्र बल तैनात किए गए, संचार सेवाएँ बाधित कर दी गईं और बड़े पैमाने पर नेताओं और लोगों को हिरासत में लिया गया। सरकार के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ नागरिक समाज आवाज़ उठाता रहा है। हाल ही में गाँधी शांति प्रतिष्ठान ने भी विरोध में ऐसा ही बयान जारी किया था।
21 सितंबर को जारी इस बयान पर सहमति जताने वाले 504 शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों ने लिखा है, ‘हम कश्मीर में एक महीने से अधिक समय से जारी संकट के बारे में अपनी गहरी चिंता व्यक्त करने के लिए लिख रहे हैं। यह संकट संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने और जम्मू-कश्मीर के पूर्ण राज्य के दर्जे को समाप्त करने के सरकार के फ़ैसले से उपजा है। सरकार ने तब से कश्मीर में संचार को बाधित कर दिया है, विपक्षी नेताओं और असंतुष्टों को हिरासत में लिया है और भारी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया है।’
इस बयान को जारी करने वालों ने लिखा है कि वे अनुच्छेद 370 और कश्मीर में संघर्ष के बारे में अन्य महत्वपूर्ण सवालों पर अलग-अलग विचार रखते हैं। इसी के साथ उन्होंने यह भी लिखा है कि कुछ बातों पर वे सभी सहमत हैं।
बयान में कहा गया है कि वे एक महीने से अधिक समय से कश्मीर में दूरसंचार और इंटरनेट को प्रतिबंधित करने के सरकार के फ़ैसले से स्तब्ध हैं। उन्होंने लिखा, ‘हम मानते हैं कि कश्मीर के कुछ हिस्सों में लैंडलाइन सेवाओं को बहाल कर दिया गया है, लेकिन चूँकि कश्मीर में लैंडलाइन टेलीडेंसिटी सरकार के अपने आँकड़ों के अनुसार 1% से भी कम है, इसलिए यह उपाय कश्मीर के निवासियों को पर्याप्त राहत देने में विफल रहा है। हमारे अपने संस्थानों में हमने छात्रों की पीड़ा को देखा है क्योंकि वे अपने परिवारों के साथ संपर्क बनाए रखने में असमर्थ हैं।’
जारी बयान में कहा गया है कि विश्वसनीय रिपोर्टों से पता चलता है कि इन प्रतिबंधों ने कश्मीर के आम लोगों के लिए मेडिकल और ज़रूरी सामान पाने में और यहाँ तक कि बच्चों को स्कूल जाने में मुश्किलें आ रही हैं।
विपक्षी नेताओं को हिरासत में लिए जाने पर भी सवाल उठाए गए हैं। उन्होंने बयान में कहा है कि कश्मीर में विपक्षी नेताओं और असंतुष्टों को हिरासत में लेना और संचार को रोकने की सरकार की कार्रवाई अलोकतांत्रिक है। उन्होंने यह भी लिखा, ‘इन लोगों के बारे में कोई कुछ भी विचार रखता हो, लोकतंत्र में एक बुनियादी सिद्धांत यह है कि सत्ता में रहने वाली पार्टी को जब किसी भी अपराध का आरोप नहीं लगाया गया हो तब अपने राजनीतिक विरोधियों को बंद करने का अधिकार नहीं है।’
'मानवाधिकार उल्लंघन की रिपोर्टों से चिंतित'
शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों ने लिखा है कि हम भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघन की कई रिपोर्टों से चिंतित हैं। उन्होंने कहा कि हम कश्मीर के लोगों के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करना चाहते हैं और कश्मीर के बाहर उन लोगों को अपना समर्थन देना चाहते हैं जो भारत सरकार द्वारा लिए गए इन फ़ैसलों के कारण अपने परिवार और दोस्तों से कट गए हैं।
उन्होंने लिखा, ‘हम याद दिला दें कि नागरिकों के अधिकारों को बनाए रखना और उनके कल्याण की रक्षा करना सरकार का कर्तव्य है। इन दायित्वों के अनुरूप, हम सरकार से कश्मीर में संचार को तुरंत पूरी तरह बहाल करने, आम जीवन में बाधा उत्पन्न करने वाले सुरक्षा प्रतिबंधों को हटाने, असंतुष्टों और विपक्षी नेताओं को रिहा करने और मानव अधिकारों के हनन के आरोपों की पारदर्शी और निष्पक्ष जाँच कराने की माँग करते हैं।’
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