गेहूँ खरीद में इस बार ग़जब हो रहा है। निजी खरीदार सरकारी दाम से भी ज़्यादा महंगा गेहूँ ख़रीद रहे हैं। यानी मोटे तौर पर कहें तो गेहूं की खरीद की लूट मची है! सरकारी दाम यानी एमएसपी पर गेहूँ खरीद का सरकार का लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। सरकारी मंडियाँ खाली दिख रही हैं। तो आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या गेहूँ की पैदावार कम हुई है या फिर व्यापारी कालाबजारी के लिए गेहूँ खरीदकर जमा कर रहे हैं और क़ीमतें ऊपर चढ़ने पर महंगे दामों पर बेचेंगे? गेहूं खरीद के ऐसे हालात होने का मतलब क्या है?
यह सवाल ख़ासकर इसलिए अहम है कि देश में अभी गेहूं की कटाई का मौसम चल रहा है और ऐसे में सरकारी खरीद बेहद कम होना चिंता की बात है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि इस साल गेहूं की फसल पहले की तुलना में कम होने के कारण देश को निर्यात से सतर्क रहने की ज़रूरत है, ऐसा न हो कि आने वाले महीनों में आपूर्ति की कमी हो जाए।
प्रत्याशित निर्यात के कारण मार्च 2022 में औसत गेहूं की कीमतों में पिछले साल की तुलना में 14% की वृद्धि हुई। ऐसा इसलिए कि निजी व्यापारी सरकार की तुलना में अधिक क़ीमतों की पेशकश कर रहे हैं। सरकार ने इस बार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी 2015 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन मध्य प्रदेश पंजाब और राजस्थान से ख़बरें आ रही हैं कि किसानों को इस बार निजी व्यापारी एमएसपी से भी 300-400 रुपये ज़्यादा प्रति क्विंटल की पेशकश कर रहे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में भी जहाँ पिछले साल गेहूँ औसत रूप से 1500-1600 रुपये प्रति क्विंटल बिका था, इस बार 1900-2000 रुपये प्रति क्विंटल बिक रहा है।
इन हालातों के बीच ही सरकारी खरीद बेहद कम हुई है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और पंजाब की सरकारी मंडियों में लगता है कि सूना पड़ा है। वहाँ गेहूँ के ढेर न के बराबर दिख रहे हैं। 'हिंदुस्तान टाइम्स' की रिपोर्ट के अनुसार, 1-25 अप्रैल के बीच सरकार की खरीद पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 38% कम है। इससे चिंता बढ़ रही है कि क्या सरकार 4.4 करोड़ टन के अपने खरीद के लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम होगी? आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, सरकार ने 1-24 अप्रैल, 2022 के बीच 11 राज्यों में अपने खरीद केंद्रों से 13.6 मिलियन टन गेहूं खरीदा। इसकी तुलना में सरकार ने पिछले साल इसी अवधि में 22 मिलियन टन गेहूं की खरीद की थी।
जिस धीमी गति से गेहूं की सरकारी खरीद हो रही है उससे जानकारों का यह भी कहना है कि सरकार इस बार खरीद के अपने लक्ष्य से पीछे रह जाएगी। बता दें कि खाद्य मुद्रास्फीति को रोकने के लिए सरकारी स्टॉक काफी अहम है।
कहा जा रहा है कि इस बार गेंहू की फ़सल मौसम से भी प्रभावित हुई है। लेकिन कहा जा रहा है कि मार्च और अप्रैल महीने में ही ज़्यादा गर्मी पड़ने से गेहूँ की फ़सल पकने से पहले ही सूख गई और इस बार यह उतनी अच्छी नहीं हुई है। लेकिन सवाल है कि क्या इससे इतना ज़्यादा फर्क पड़ा है कि आपूर्ति प्रभावित हो जाए? किसानों का कहना है कि गर्मी का उतना ज़्यादा असर नहीं हुआ है। प्रति एकड़ क़रीब 1 क्विंटल का नुक़सान हुआ है। जहाँ पहले क़रीब 13-14 क्विंटल उपज होती थी इस पर औसतन 12-13 क्विंटल के आसपास हो रही है। बता दें कि इस साल फरवरी में आधिकारिक तौर पर पूर्वानुमान लगाया गया था कि 111 मिलियन टन की बंपर पैदावार होगी जो पिछले साल 109.59 मिलियन टन थी। लेकिन क्या पूर्वानुमान के अनुसार उपज हो पाएगी?
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तो सवाल है कि जो भी गेहूँ की पैदावार हुई है उसकी यदि सरकारी खरीद नहीं हो पा रही है तो आख़िर वह गेहूँ जा कहाँ रहा है?
कहा जा रहा है कि यूक्रेन युद्ध के कारण गेहूँ की खरीद में ये तमाम बदलाव दिख रहे हैं। विशेषज्ञ अंतरराष्ट्रीय गेहूं बाजार में भारत की भूमिका की ओर इशारा कर रहे हैं। ऐसी रिपोर्टें हैं कि यूक्रेन के रूस के साथ युद्ध में फंसने से गेहूँ के इन दोनों प्रमुख निर्यातकों से गेहूं की आपूर्ति गिरी है। यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर दिया है। गेहूं उत्पादन में रूस दुनिया में तीसरे स्थान पर है और यूक्रेन आठवें स्थान पर है। इससे दुनिया भर में गेहूँ की मांग में तेजी पकड़ने के आसार हैं।
समझा जाता है कि यूक्रेन और रूस के गेहूँ निर्यात में कमी को भारत ने पूरा करने के लिए क़दम उठाया है। लाइव मिंट की रिपोर्ट के अनुसार 15 अप्रैल को केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की थी कि दुनिया का सबसे बड़ा गेहूं आयात करने वाला देश मिश्र इस साल भारत से 1 मिलियन टन गेहूं का आयात करना चाहता है। भारत बढ़ी हुई वैश्विक मांग को भुनाने की कोशिश कर रहा है, जिसमें प्रमुख गेहूं-आयात करने वाले देशों में व्यापार प्रतिनिधिमंडल भेजे जा रहे हैं।
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