पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी) की बदहाली पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि भारतीय बैंकिंग सिस्टम में क्या ख़ामी है। क्यों बैंकों को अरबों रुपये बट्टे खाते में डालने होते हैं और क्यों नीरव मोदी या मेहुल चोकसी जैसे लोग फलते-फूलते हैं। क्यों और कैसे सहकारी बैंकों को लोग अरबों रुपये का चूना लगा कर निकल जाते हैं और जब तक खुलासा होता है, निवेशक और जमा कर्ता हाथ मलते रह जाते हैं।
अर्थतंत्र से और खबरें
प्रवर्तन निदेशालय यानी एनफ़ोर्समेंट डाइरेक्टरेट (ईडी) की आर्थिक अपराध शाखा ने पीएमसी बैंक के निलंबित प्रबंध निदेशक जॉय थॉमस को शुक्रवार को मुंबई में गिरफ़्तार कर लिया। उन पर 6,500 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी में शामिल होने का आरोप है। ईडी ने इसके पहले ही हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंन्फ्रास्ट्र्कचर लिमिटेड (एचडीआईएल) के दो वरिष्ठतम अधिकारियों को गिरफ़्तार कर लिया है। राकेश वधावन और सारंग वधावन पुलिस हिरासत में हैं और वे 9 अक्टूबर के बाद ही रिहा हो पाएँगे।
क्या है एचडीएफ़आईएल का मामला?
पीएमसी बैंक ने अपने कुल व्यवसाय यानी कर्ज़ का 75 प्रतिशत एक ही कंपनी एचडीएफ़आईएल को दिया था। राकेश और सारंग वधावन ने 21,000 फ़र्जी बैंक खाते खुलवाए और अरबों रुपये पीएमसी बैंक से ले लिए, लेकिन कर्ज़ नहीं चुकाया। इतना ही नहीं, पीएमसी बैंक ने अपने सालाना हिसाब किताब यानी बैलंश शीट में इन कर्ज़ों का ज़िक्र तक नहीं किया। कंपनी ने रिज़र्व बैंक से भी ये कर्ज छुपाए, उसे कुछ नहीं बताया। राकेश और सारंग वधावन ने एचडीआईएल से पैसे निकाल लिए और उसे दिवालिया घोषित कर दिया, कर्ज़ तो नहीं ही चुकाए।कर्ज़ नहीं चुकाने और कंपनी के दिवालिया घोषित किए जाने के बावजूद पीएमसी बैंक एचडीआईएल को कर्ज़ देता रहा। साल 2008 से 2019 तक पीएमसी बैंक ने एचडीआईएल को पैसे दिए, उस कंपनी के दिवालिया होने के बाद भी दिए और रिज़र्व बैंक से ये बातें छुपाता भी रहा।
रिज़र्व बैंक का हस्तक्षेप
पंजाब एंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक (पीएमसी में 4,335 करोड़ रुपये का घपला पकड़ में आने के बाद रिज़र्व बैंक ने तमाम सहकारी बैंकों को नियंत्रित करने वाली व्यवस्था पर पुनर्विचार करने और उसे दुरुस्त करने का फ़ैसला किया है। गवर्नर शक्तिकांत दास ने साफ़ कह दिया है कि किसी सहकारी बैंक को बंद नहीं होने दिया जाएगा, पर इन बैंकों के नियमन की प्रक्रिया ठीक की जाएगी।सहकारी बैंक दुहरे नियंत्रण में होते हैं। वे आरबीआई की निगरानी में होने के अलावा राज्य सरकारों की निगरानी में भी होते हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि दरअसल गड़बड़ी यहीं से शुरू होती है, राज्य सरकारें एक तो जानबूझ कर बेहद ढीला रवैया अपनाती हैं, दूसरे केंद्रीय बैंक की जो निगरानी की व्यवस्था है, वह ज़्यादा चुस्त इसलिए नहीं होती है कि ये बैंक राज्य सरकार की निगरानी में भी होती हैं।
पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि सहकारी बैंक में ऊँचे पदों पर अमूमन राज्य सरकार से जुड़े लोग और सत्तारूढ़ दल के लोग होते हैं। इस वजह से राज्य सरकार की एजेंसियाँ जानबूझ कर आँखें मूंद लेती हैं और गड़बड़ियाँ होने देती हैं। सरकार बदलने और विपक्षी दल के सत्ता में आने के बाद घपला सामने आता है, जाँच होती है। लेकिन उसके बाद एक बार फिर वैसे ही काम शुरू हो जाता है क्योंकि इस बार सत्ता में दूसरे लोग होते हैं। यह क्रम चलता रहता है। इस क्रम को तोड़ने के लिए ही रिज़र्व बैंक ने यह फ़ैसला किया है कि निगरानी प्रक्रिया को ही दुरुस्त किया जाए।
अपनी राय बतायें