देश की अर्थव्यवस्था में बहुत कुछ गड़बड़ चल रहा है इसकी कहानी तो समय-समय पर आने वाले आँकड़े बयाँ कर रहे हैं, लेकिन इस अर्थव्यवस्था की 'चौकीदारी' या यूँ कह लें कि उसका संतुलन बनाने का काम करने वाली संस्था आरबीआई में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। दिसंबर 2018 में गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफ़े ने जहाँ सबको चौंका दिया था अब डेप्युटी गवर्नर विरल आचार्य के इस्तीफ़े ने नया धमाका कर दिया है। आचार्य के इस्तीफ़े की बातें उर्जित पटेल के इस्तीफ़े के समय भी उठी थी। लेकिन अब यह साफ़ हो गया है कि वह भी आरबीआई छोड़ रहे हैं। आरबीआई गवर्नर का कार्यकाल सिर्फ़ 3 साल का होता है और उर्जित पटेल ने कार्यकाल पूरा होने के 9 महीने पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया था। उर्जित पटेल से पहले गवर्नर रघुराम राजन और उस समय चुनकर आयी नरेंद्र मोदी की नयी सरकार के बीच टकराव का एक अध्याय हो चुका था। इसलिए जब पटेल ने इस्तीफ़ा दिया तो यह सवाल उठने लगे कि क्या सरकार केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को चुनौती दे रही है?
1935 से लेकर अभी तक आरबीआई ने 24 गवर्नर देखे हैं। 90 के दशक के बाद उर्जित पटेल पहले गवर्नर रहे जिन्होंने इस्तीफ़ा दिया। उर्जित पटेल और उसके बाद विरल आचार्य के इस्तीफ़ों से जो कहानी निकलकर बाहर आ रही है वह यह है कि सरकार ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए संघ समर्थक अर्थशास्त्रियों को आरबीआई के निदेशक मंडल में अस्थायी सदस्यों के रूप में मनोनीत किया है। ये अर्थशास्त्री यह चाहते हैं कि रिजर्व बैंक अपनी नीतियाँ निर्धारित करने में उनकी सलाह को प्राथमिकता दे या माने। जो संघ की विचारधारा वाले अर्थशास्त्री रिजर्व बैंक में रखे गए हैं इनमें स्वदेशी जागरण मंच के प्रमुख थिंक टैंक एस. गुरुमूर्ति भी शामिल हैं। गुरुमूर्ति चाहते हैं कि सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्यमों यानी एमएसएमई को ज़्यादा कर्ज़ मिले और ऋण की शर्तें आसान की जाएँ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी कई मौक़ों पर एमएसएमई पर ख़ास ध्यान देने की बात करता रहा है। उसकी कई और प्रस्थापनाओं को गुरुमूर्ति रिजर्व बैंक के ज़रिए अमल में उतारना चाहते हैं। सरकार द्वारा नियुक्त कुछ अन्य अस्थायी सदस्य, जैसे सतीश मराठे, रेवती अय्यर और सचिन चतुर्वेदी भी इन मुद्दों का समर्थन करते हैं, जबकि स्थायी सदस्य इसके ख़िलाफ़ हैं।
आरबीआई के निदेशक मंडल में दो गुट बन गए हैं। एक सरकार को तात्कालिक लाभ पहुँचाना चाहता है तो दूसरा अर्थव्यवस्था को दूरगामी नज़रिये से देखता है और उसे अर्थशास्त्र के स्थापित नियमों के अनुसार चलाना चाहता है।
रिजर्व बैंक का गठन सरकार का मार्ग-निर्देशन करने और उसके मनमानेपन पर अंकुश लगाने के लिए किया गया है, न कि उसके पीछे-पीछे चलने के लिए। इसकी स्वायत्तता तो सुनिश्चित की ही जानी चाहिए। रघुराम राजन के समय से ही सरकार ने यह दबाव बनाने की कोशिश की थी। लेकिन वह अपना कार्यकाल पूरा होने पर चले गए और जब उर्जित पटेल आये तो उन्हें 'गुजराती' गवर्नर माना गया। और यह कहा गया कि मोदी सरकार ने एक गुजराती को देश का सबसे बड़ा बैंकर नियुक्त कर दिया। ये चर्चाएँ इसलिए भी तेज़ थीं क्योंकि 4 सितंबर 2016 को रघुराम राजन ने बड़े अनमने भाव से गवर्नर का पद छोड़ा था। उर्जित पटेल पहले से ही डेप्युटी गवर्नर के तौर पर आरबीआई से जुड़े हुए थे, सरकार की ओर से तर्क दिया गया था कि उर्जित पटेल का आईएमएफ़ (इंटरनेशनल मॉनिटरी फ़ंड) से जुड़ाव रहा है, इसलिए वे यह ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हैं। आरबीआई के गवर्नर बनने के बाद उर्जित पटेल को सरकार का सबसे चहेता गवर्नर कहा जाता था। ये बातें नोटबंदी के दौरान आरबीआई और उर्जित पटेल के कामकाज को देखकर काफ़ी हद तक सही भी साबित होने लगीं। पटेल के गवर्नर बनने के दो महीने के अंदर ही नोटबंदी का फ़ैसला लागू कर दिया गया। इतने बड़े आर्थिक फ़ैसले को लेकर आरबीआई की तरफ़ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई। नोटबंदी का सारा रहस्य अपने भीतर समेट उर्जित पटेल किसी भी तरह के सवाल से बचते रहे।
आचार्य ने किया था सरकारी दबाव का विरोध
काफ़ी समय तक यही बातें चलती रहीं कि आरबीआई की तरफ़ से सरकार का विरोध अब बंद हो गया है, भले ही कितना भी नुक़सान झेला जाए। लेकिन जब आरबीआई के खज़ाने में मौजूद अतिरिक्त 3.6 लाख करोड़ रुपए सरकार को दे देने का वित्त मंत्रालय का प्रस्ताव आया तो सरकार के साथ खड़े रहने वाले उर्जित पटेल का विरोध चरम पर पहुँच गया। वित्त मंत्री अरुण जेटली और आरबीआई में टकराव बढ़ा तो सरकार ने अप्रत्याशित रूप से आरबीआई एक्ट के सेक्शन 7 को लागू कर दिया। यह वह सेक्शन है जो सरकार को आरबीआई के कामों में दख़लअंदाज़ी करने की छूट देता है। इसको लेकर जेटली ने कहा कि इस सेक्शन का इस्तेमाल कर इससे पहले भी कई सरकारों ने आरबीआई गवर्नरों को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर भी किया है और उनका कार्यकाल ख़त्म भी किया है। उस दौर में आरबीआई में सरकार के दबाव का विरोध सिर्फ़ उर्जित पटेल ही नहीं कर रहे थे डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी खुले रूप से सार्वजनिक मंचों से यह कहना शुरू कर दिया था कि केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता ख़त्म करने के परिणाम घातक हो सकते हैं।
आचार्य केंद्रीय बैंक के रिजर्व से ज़रूरत से ज़्यादा पैसा सरकार के पास ट्रांसफर करने को ख़तरनाक बताते थे और इस सम्बन्ध में अर्जेंटीना का उदाहरण भी देते थे कि कैसे वहाँ के बैंक ने 6.6 बिलियन डॉलर का ऐसा ही एक ट्रांसफर देकर उस देश के इतिहास की सबसे बड़ी संवैधानिक आपदा को जन्म दे दिया।
सरकार और आरबीआई में टकराव
इससे सबक़ लेने के बजाय उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी सार्वजनिक मंचों पर रिजर्व बैंक की जमकर आलोचना करनी शुरू कर दी और कहने लगे कि 2008 से 2014 के बीच बैंक मनमाने ढंग से कर्ज़ दे रहे थे तो रिजर्व बैंक इसकी अनदेखी क्यों करता रहा। रिजर्व बैंक और सरकार के टकराव के बीच जो मुद्दे आचार्य उठा रहे थे उनसे जो बातें निकलकर सामने आ रही थी वह थीं कि आरबीआई नॉन-बैंकिंग फ़ाइनेंस कंपनीज (एनबीएफ़सी) के नकदी संकट को दूर करने के लिए कोई क़दम उठाए। वह ख़स्ताहाल बैंकों के लिए प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) की व्यवस्था में भी ढील चाहती है। सरकार रिजर्व बैंक के खज़ाने से ज़्यादा पैसा चाहती है। सरकार और आरबीआई के इस टकराव को लेकर बहुत से अर्थशास्त्रियों ने अपनी चिंताएँ उस दौर में जताई थीं।
नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का कहना था कि अमेरिका के फ़ेडरल रिज़र्व बैंक के मुक़ाबले आरबीआई क़ानूनी रूप से कम स्वतंत्र है पर प्रभावी तौर पर देखा जाए तो उसे उतनी ही आज़ादी है जितना कि अमेरिकी नियामक को है। उन्होंने कहा था कि दोनों पक्षों को सुलह करनी चाहिए और राष्ट्रीय हित में एक साथ चलना चाहिए। रघुराम राजन ने भी इस विवाद को लेकर कहा था कि सरकारें चाहती हैं आरबीआई लचीला रुख़ अपनाये लेकिन बैंक के सामने आर्थिक स्थिरता बनाये रखने की चुनौती है और उसे सरकार को ना बोलने का भी अधिकार है।
बता दें कि सार्वजनिक क्षेत्र के 21 बैंकों में से 11 पर आरबीआई ने पीसीए का शिकंजा कस रखा है। इसके तहत उन्हें कर्ज़ स्वीकृत करने पर कई तरह की रोक लगी हुई है। इस कारण से यह टकराव और बढ़ा है। अब सरकार नये बहुमत के साथ आयी है तो यह टकराव बढ़ गया है जिसका नतीजा विरल आचार्य के इस्तीफ़े के रूप में देखा जा रहा है।
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