देश में अर्थव्यवस्था की ख़राब हालत पर बार-बार होने वाली टीका-टिप्पणियों के साथ उसके दिखाई देने वाले प्रभावों के मद्देनजर केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर कई उपायों की घोषणा की और इससे साफ़ हो गया है कि सरकार ने स्वीकार कर लिया है कि मंदी का कारण अत्यधिक सख़्ती भी है। प्रीवेंशन ऑफ़ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट और आधार संबंधी नियमों में ज़रूरी बदलाव की घोषणा इसी श्रेणी में है। इसी तरह जीएसटी रीफ़ंड 30 दिन में देने की घोषणा ग़लतियों पर सुनवाई करने की तरह है।
यह अलग बात है कि वित्त मंत्री ने मंदी का कारण अमेरिका-चीन ट्रेड वॉर को बताया और कहा कि दुनिया भर में इसका असर है। हो सकता है, वित्त मंत्री सही हों पर भारत में मंदी के कारण मुख्य रूप से स्थानीय हैं और चूंकि यह स्थिति एक दिन में किसी एक कारण से नहीं बनी है, इसलिए किसी एक उपाय से छू-मंतर भी होने वाली नहीं है। इसके लिए बहुत सोच-समझ कर काम करने की ज़रूरत है पर ऐसी योग्यता और टीम भावना इस सरकार में नज़र नहीं आती है।
अभी जो किया गया है वह मरीज को ताक़त का इंजेक्शन लगाने की तरह है। बीमारी दूर करने का इलाज नहीं। बैंकों की किस्तें नहीं आने का कारण सिर्फ़ ख़राब कर्ज नहीं है। अच्छे कर्जदार भी कमाई नहीं होने के कारण चाहकर भी किस्तें नहीं दे पाए तो उस पर समय रहते सुनवाई होनी चाहिए थी। पर सरकार राजनीति करती रही।
बड़े बकायेदार विदेश भाग गए और छोटे पिसते रहे। इस बीच हालत ख़राब होती रही तो अब सरकार ने पब्लिक सेक्टर बैंकों को 70 हजार करोड़ देने की घोषणा की है।
सरकार उम्मीद करती है कि इससे बैंक कर्ज दे पाएँगे जबकि अभी ज़रूरत नए कर्ज देने की नहीं पुराने कर्जदारों को राहत देने की है। जब बाज़ार ही नहीं है तो कोई नया कारोबार किस उम्मीद में लगाएगा। सरकार को चाहिए कि बाजार और माँग बढ़ाने के उपाय करे। पर ऐसा हो नहीं रहा है।
चुनाव के समय राहुल गाँधी ने सभी ग़रीब परिवारों की न्यूनतम आय 6,000 रुपये प्रति माह करने की घोषणा की थी। इससे उम्मीद की जा रही थी कि ग़रीबों को पैसे मिलेंगे तो वे ख़रीदारी करेंगे और इस उम्मीद में निर्माण या उत्पादन होगा जो बाज़ार बनेगा।
कांग्रेस हार गई और बीजेपी सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। किसानों को वायदे के अनुसार पैसे ज़रूर दिए गए पर वह ज़रूरत भर भी नहीं हैं। बिना सोचे-समझे नोटबंदी और फिर उसके बाद जीएसटी लगाने के साथ आर्थिक क्षेत्र में तमाम तरह की सख्तियों का असर यह हुआ है कि देश की अर्थव्यवस्था कुपोषण का शिकार हो गई है।
अब पोषण है नहीं और ताक़त का इंजेक्शन लगाया जा रहा है। आप समझ सकते हैं कि इससे कुछ होने वाला नहीं है और इसे अस्थायी उपाय से ज़्यादा नहीं कहा जाएगा।
किसी भी नियम या सरकारी कार्य को नफा-नुक़सान सोच कर लागू किया जाना चाहिए। अगर तब नहीं सोचा गया तो जब यह पता चल गया कि नोटबंदी या जीएसटी का अपेक्षित लाभ नहीं मिला है तो जो नुक़सान हो चुका है उसकी भरपाई होनी चाहिए थी। पर ऐसा कुछ नहीं किया गया और जीएसटी से होने वाली परेशानियों को दूर करने के नाम पर चुनावी लाभ लेने की कोशिश की गई। इसका पहला नमूना गुजरात विधानसभा चुनाव के समय देखने को मिला था और तात्कालिक राहत का कोई लाभ नहीं मिला था जिसका सबूत पिछले दिनों इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित और बहुचर्चित विज्ञापन है जो ख़बर के रूप में उसी समय छपना चाहिए था।
वॉट्स ऐप से फैलाया जा रहा झूठ
ऑटो क्षेत्र की मंदी बहुत गंभीर बात है और मुझे नहीं लगता कि इसका संबंध अमेरिका-चीन ट्रेड वॉर से है। लोगों के पास पैसे नहीं हैं, लोग कार नहीं ख़रीद रहे हैं। वॉट्स ऐप यूनिवर्सिटी के जरिए फैलाया जा रहा है कि लोग ओला-उबर से चल रहे हैं। सवाल यह है कि जो कार नहीं ख़रीदेंगे वे पैदल चलें? कार रहते हुए लोग ओला-उबर से चल रहे हैं तो क्या यह समझना मुश्किल है कि ऐसा पैसे बचाने या कम पैसे होने के कारण ही किया जा रहा है। इसी तरह, पैसे न होने के कारण लोग होटलों में खाने पर पैसे नहीं उड़ा रहे हैं। इसका जवाब यह दिया गया कि लोग घर मंगाकर खाना खा रहे हैं। मेरा मानना है कि घर पर मंगवा कर खाना बुनियादी ज़रूरत है और होटल में जाकर खाना बिल्कुल अलग। एक कम हो रहा है और दूसरा बढ़ रहा है तो इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सब सामान्य है। साफ़ सी बात है कि होटल में उड़ाने वाले लोग पैसे बचा रहे हैं। लेकिन इन बातों को समझने या कार्रवाई करने के बजाय कुतर्कों से जीतने की कोशिश की गई और अब जब पानी सिर के ऊपर आ गया है तो वही कार्रवाई की जा रही है जो (चुनाव से) पहले कर दी जानी चाहिए थी। कार नहीं बिकने का कारण सिर्फ पैसे की तंगी नहीं है। नए प्रदूषण मानकों को लागू किया जाना, डीजल की कारों के मामले में अनिश्चितता आदि भी है।
सरकार इलेक्ट्रिक कारों पर छूट देकर बिक्री बढ़ाने की उम्मीद कर रही थी। अब ऐलान किया गया है कि 31 मार्च 2020 तक ख़रीदे गए भारत स्टेज फ़ोर वाहन रजिस्ट्रेशन की पूरी अवधि के लिए वैध रहेंगे। यह घोषणा पहले हुई होती तो उसका लाभ मिला होता। इसी तरह, सरकारी विभागों में नए वाहनों की ख़रीद पर लगी रोक हटाने का फ़ैसला भी अच्छा है और यह काफ़ी पहले लिया जाना चाहिए था।
ख़बर नहीं छपने या रेत में मुँह छिपा लेने से समस्याएँ नहीं टलतीं और अक्षम लोगों के पास कोई विकल्प नहीं होता है, तो वे यही करते हैं। नोटबंदी और जीएसटी पर प्रधानमंत्री का सीना ठोकना याद कीजिए और अब किए गए उपायों को देखिए तो समझ में आता है कि सरकार की कथनी और करनी में कितना अंतर है।
अपनी राय बतायें