एक तरफ़ सरकार विज्ञापन निकालकर बताती है कि जीएसटी से टैक्स कम हुआ है। पहले इतना था, अब इतना है। और आपको टूथपेस्ट में 50 पैसे की तथा फलाँ मसाले में एक रुपये की बचत होगी। पर वह यह नहीं बताती कि ट्रेन किराये पर जीएसटी लगा दिया गया है और फ्लेक्सी किराये से लेकर आधा टिकट ख़त्म किए जाने और टिकट वापसी में कटौती ज़्यादा होने जैसे कई कारणों से रेलयात्रा महँगी हो गई है। इसी तरह, अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमत कम होने से यहाँ भी इनकी क़ीमत कम करना संभव होने के बावजूद इनके दाम कम नहीं किए जाने से उपयोग की तमाम चीज़ें और सेवाएँ महँगी हो गई हैं। बताना तो दूर, सरकार स्वीकार करने को भी तैयार नहीं है। ऐसे में सरकार के दावों के ख़िलाफ़ चीज़ें आमतौर पर सामने नहीं आतीं और जब सरकारी विज्ञापन कुछ कह रहा हो तो उसके उलट कहने में कौन श्रम करे, जोखिम उठाए और विज्ञापनों से हाथ धोए। इसलिए आम पाठकों को आजकल सरकारी पक्ष ज़्यादा और वास्तविकता कम पढ़ने को मिल रही है। ऐसे में एक ख़बर सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के प्रोजेक्ट - ट्रैकिंग डेटाबेस के ताज़ा आँकड़ों से सामने आई है। इसके मुताबिक़ देश में घरेलू निवेश 14 साल के सबसे निचले स्तर पर है।
देश में नया निवेश दिसंबर तिमाही में 14 वर्षों के सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया। भारतीय कंपनियों ने इस तिमाही में एक लाख करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट की घोषणा की है, जो इससे पहले वाली सितंबर तिमाही की तुलना में 53 फ़ीसदी कम और पिछले साल की इसी तिमाही की तुलना में 55 फ़ीसदी कम है।
नई परियोजनाओं में यह गिरावट निजी क्षेत्र की घोषणाओं में आई कमी के कारण है। सितंबर तिमाही की तुलना में दिसंबर तिमाही में निजी क्षेत्र की परियोजनाओं में 62 फ़ीसदी की गिरावट आई है, जबकि वित्त वर्ष 2017-18 की तुलना में यह गिरावट 64 फ़ीसदी है। चालू वित्त वर्ष की सितंबर तिमाही की तुलना में दिसंबर तिमाही में नई सरकारी परियोजनाओं में भी गिरावट है। दिसंबर तिमाही में ताज़ा निवेश में पिछली तिमाही की तुलना में 37 फ़ीसदी की गिरावट है, जबकि पिछले साल की समान तिमाही की तुलना में 41 फ़ीसदी की गिरावट देखी गई है, जो दिसंबर 2004 के बाद सबसे निचले स्तर पर है।
नोटबंदी-जीएसटी की मार
केंद्र सरकार ने 2016 में नोटबंदी की और देश इसकी मार से सँभल भी नहीं पाया था कि 2017 में जीएसटी लागू कर दी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि दोनों बगैर तैयारी के और हो सकने वाली मुश्किलों के बारे में ठीक से सोचे बगैर लागू किए गए। जो लोग इन दोनों से किसी भी तरह से जुड़े हुए हैं, वे इसे अच्छी तरह समझते हैं और बाज़ार पर इसका असर साफ़ दिखाई पड़ रहा है। दूसरी ओर, सरकार रोज़गार के नये मौके बनाने के अपने वादे में बुरी तरह नाकाम रही है। गोहत्या रोकने से लेकर टैक्सचोरी कम करने और मांस विक्रेताओं पर सख़्ती से लेकर ग़ैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के लिए चंदे के नियमों में सख़्ती आदि जैसे उपायों से काम-धंधा चौपट हुआ है।
- लोगों की कमाई कम हुई है, लोगों ने ख़र्च करना कम कर दिया है और जो ख़र्च करने के लिए तैयार हैं, उनके लिए ख़र्च करने की संभावना कम हुई है। जीएसटी, टीडीएस आदि मद में सरकार के पास पैसे जमा होने और वापस आने की प्रक्रिया से नकदी का प्रवाह कम और धीमा हुआ है।
इन सबका असर यह है कि लोगों की कमाई कम हुई, इसलिए खर्च़ कम हुआ है इसलिए बाज़ार में पैसे कम हैं। सबको पता है कि ये सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
नई नौकरियाँ छोड़िये, पुरानी भी जा रही हैं
बाज़ार की हालत ख़राब होने, कमाई कम होने से किस्तें भी ठीक से नहीं जा पाती हैं और इसका असर बैड या ख़राब कर्ज़ों में वृद्धि के रूप में सामने आता है। सीएमआईई के आँकड़ों के मुताबिक़, दिसंबर तिमाही में लटकी हुई परियोजनाओं में भी लगातार बढ़ोतरी हुई है। इसका असर यह हुआ है कि 2018 में 1.10 करोड़ भारतीयों की नौकरी चली गई। नई नौकरियाँ तो छोड़ें, पुरानी भी जा रही हैं। इसका कारण है, काम कम है, अनुपालन के खर्च़ बढ़ गए हैं। अनुत्पादक काम में पैसे कम हैं और उत्पान की माँग नहीं है। इससे बेरोज़गारी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि कमज़ोर समूहों से संबंधित व्यक्तियों को 2018 में नौकरी के नुक़सान से सबसे ज़्यादा प्रभावित होना पड़ा। रिपोर्ट में यह भी पता चला है कि देश में बेरोज़गारी की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है।
रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया कि इस दौरान शहरों में पाँच लाख पुरुषों को नौकरी मिली वहीं ग्रामीण भारत में 23 लाख पुरुषों की नौकरी चली गई। रिपोर्ट के मुताबिक़ 40 से 59 साल के आयु वर्ग वाले लोगों की नौकरी इस दौरान बनी रही, जबकि अन्य उम्र के लोगों के लिए नौकरी की संभावना कम होती रही। रिपोर्ट के मुताबिक़ सैलरी पाने वाले क़रीब 37 लाख लोगों की नौकरी 2018 में चली गई।
रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि 2018 में जिसकी नौकरी गई वह आमतौर पर एक महिला है, खासकर ग्रामीण भारत की जो अशिक्षित है और दिहाड़ी मज़दूर के रूप में खेत में या किसी छोटे कारोबारी के यहाँ काम करती थी। इसकी आयु 40 साल से कम या 60 साल से ऊपर है।
बेरोज़गारी दर 15 माह मे सबसे ज़्यादा
रिपोर्ट बताती है कि भारत में साल 2018 में बेरोज़गारी की दर 7.4 फ़ीसदी थी। यह पिछले 15 महीने में सबसे ज़्यादा थी। अगर आप अर्थव्यवस्था की हालत पर नज़र रख रहे हैं तो समझ सकते हैं कि नये निवेश और रोज़गार की संभावनाओं में कमी अचानक नहीं हुई है, न ही बहुत तेज़ी से साल-छह महीने में हो गई है। सच यह है कि यह कमी लगातार हो रही है और यह तीन-साढ़े तीन साल में जो कुछ हुआ, उसका परिणाम है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआई) एक अग्रणी कारोबारी सूचना कंपनी है। इसकी स्थापना 1976 में हुई थी और यह मुख्य रूप से एक थिंकटैंक के रूप में काम करती है। अर्थव्यवस्था की प्रवृत्तियों और झुकावों को समझने के लिए यह निजी स्वामित्व और पेशेवर प्रबंध वाली कंपनी है जिसका मुख्यालय मुंबई में है।
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