मोदी की वापसी होगी या दूसरी सरकार बनेगी, इन बातों में मगन आम लोगों के लिए यह ख़तरे की घंटी है कि आपकी जेब के लिए ख़तरे वाले दिन आने वाले हैं। संभलकर रहिएगा, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था के लिए संकट निकट है।
अगले कुछ दिनों में जब नयी सरकार कामकाज संभालेगी तो निश्चित मानिए, उसके पास आपको देने के लिए कोई गिफ़्ट नहीं होगा। जो फैला है उसे समेटने में ही उसका बड़ा वक़्त लगेगा। ज़रा इकोनमी के इन संकेतों को देख लीजिए।
ख़तरे के संकेत
- उद्योग के पहिए थमे, मार्च 2019 में औद्योगिक उत्पादन दो साल में सबसे कम
- ख़ुदरा महँगाई दर 6 महीने के शिखर पर
- कारों की बिक्री 9 साल के सबसे निचले स्तर पर
- टू-व्हीलर और कमर्शियल गाड़ियों की बिक्री में भी भारी गिरावट
- टैक्स कलेक्शन लक्ष्य से क़रीब 1.6 लाख करोड़ कम
- चीन और अमेरिका के बीच व्यापार युद्ध
- ईरान से कच्चे तेल के इंपोर्ट पर रोक लगी तो महँगा होगा डीजल-पेट्रोल
- बेरोज़गारी 45 साल के शिखर पर
- शेयर बाजार 9 दिन में 2000 प्वाइंट गिरा
क्या कहते हैं ये संकेत?
इसका सीधा मतलब है कि हमारी ख़रीदने की ताक़त घटती जा रही है। लोगों के पास ख़र्च करने के लिए पैसा नहीं है, इसलिए वे सिर्फ़ ज़रूरी चीजें ही ख़रीद रहे हैं। अर्थव्यवस्था को जो लोग सिर्फ़ बिज़नेस की भाषा समझते हैं उन्हें समझ लेना चाहिए कि अगर वे इसे नहीं समझेंगे तो इसका मतलब यह नहीं कि उन पर असर नहीं होगा।
दरअसल, उद्योग जगत धंधे में नया निवेश नहीं कर रहा है क्योंकि उसको लगता है कि माँग तो है नहीं, ख़रीदेगा कौन। निर्यात में भी मंदी छाई हुई है क्योंकि अमेरिका और चीन आपस में व्यापार युद्ध लड़ रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ड्यूटी बढ़ा दी है तो वहाँ के लिए एक्सपोर्ट निर्यात महँगा हो गया है। इसलिए ज़रूरी है कि इसे ठीक किया जाए।
धंधे में मंदी क्यों दिख रही है?
धंधे में मंदी की वजह कई हैं, नोटबंदी, माँग में कमी, बैंकों की बुरी हालत। आईएलएंडएफ़एस जैसी ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की तरफ़ से डिफॉल्ट ने चौतरफ़ा घबराहट फैला दी है। इसलिए बैंक नया क़र्ज़ देने से बच रहे हैं और उद्योग जगत क़र्ज़ लेने से बच रहे हैं।
मतलब यही है कि जीएसटी और नोटबंदी के दोहरे झटके से छोटे उद्योग अभी तक संभल नहीं पाए हैं। किसी भी अर्थव्यवस्था के पहिए को रफ़्तार देते हैं ऑटो और रियल एस्टेट क्षेत्र, क्योंकि ये दोनों सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं, लेकिन इन दिनों ये दोनों सेक्टर पस्त पड़े हुए हैं।
सभी पैमानों पर ख़तरे
अप्रैल में कारों की बिक्री 17 फ़ीसदी गिरी है। यह 9 साल में सबसे ज़्यादा है। भारत जैसी उभरती इकोनॉमी के लिए यह बहुत ख़राब लक्षण है। पिछले साल अप्रैल में क़रीब तीन लाख कारें बिकी थीं लेकिन इस साल सिर्फ़ ढाई लाख ही बिकी हैं। इसी तरह कमर्शियल गाड़ियाँ जैसे ट्रक, बस की बिक्री भी 6 फ़ीसदी गिरी है। मतलब साफ़ है ढुलाई की डिमांड भी कम हुई है। इसकी सबसे बड़ी वजह है चुनाव सिर पर हैं और आगे अनिश्चितता है, इसलिए कोई जोख़िम नहीं उठाना चाहता, लोग पैसे अपने पास बचाकर रखना चाहते हैं।
ऑटो कंपनियों के संगठन सियाम (सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स) के मुताबिक़ ऑटो कंपनियाँ उत्पादन कम कर रही हैं। अगर हालात बिगड़े तो 2007-09 का वक़्त याद कर लीजिएगा, तब महिंद्रा, टाटा और मारुति तक ने उत्पादन घटा दिया था जिससे हज़ारों नौकरियाँ चली गई थीं।
टू-व्हीलर की बिक्री में गिरावट क्या कहती है?
मतलब ग्रामीण इकोनॉमी भी संकट का सामना कर रही है। किसानों के पास अन्न है पर उसकी सही क़ीमत नहीं मिल रही है। ये सब मिलकर दुष्चक्र बनकर अर्थव्यवस्था को घेरता जा रहा है।
महँगाई दर 6 माह के शिखर पर
क़रीब 4 साल तक काबू में रहने के बाद खाने-पीने की चीजों के दाम सिर उठाने लगे हैं। आगे चलकर इसमें और तेज़ी आने की आशंका गहराती जा रही है। सब्जियाँ, अंडे, खाने का तेल के दाम बढ़ने से रिटेल महँगाई दर बढ़ी है। रिजर्व बैंक इसी को देखकर ब्याज दरें तय करता है इसलिए अगर महँगाई दर इसी रफ़्तार से बढ़ी तो ब्याज दरें भी महँगी होने का ख़तरा बढ़ जाएगा।
अमेरिका-चीन के झगड़े से संकट क्यों?
अमेरिका और चीन के बीच व्यापार को लेकर झंझट अब झगड़ा बन गया है। इसकी वजह से अमेरिका और चीन दोनों के शेयर बाजार नर्वस हैं। चीनी सामान का सबसे बड़ा इंपोर्टर अमेरिका है। ऐसे में अमेरिका इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाता है तो चीन के इंपोर्ट पर असर पड़ेगा, चीन भी कह रहा है कि वह अपने यहाँ अमेरिकी इंपोर्ट में ड्यूटी बढ़ा देगा। ऐसे माहौल में निवेशक भारत जैसे उभरते बाजार से भी अपना निवेश निकालने लगे हैं जिससे भारतीय शेयर बाजार हिचकोले खा रहा है। जब भारत से विदेशी निवेशक पैसा निकालते हैं तो डॉलर मज़बूत होता है और रुपया कमज़ोर होता है। रुपया कमज़ोर होता है तो इंपोर्ट महँगा होता है। इसका सबसे ज़्यादा असर कच्चा तेल पर पड़ेगा क्योंकि वह महँगा हो जाएगा।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के एक सदस्य रतिन रॉय के मुताबिक़ भारतीय अर्थव्यवस्था जटिल संकट की तरफ़ बढ़ रही है। चिदंबरम से लेकर अरुण जेटली तक सभी वित्तमंत्री अब तक यही कहते रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था को घरेलू ख़पत ही संभाल लेगी। लेकिन रतिन रॉय कहते हैं कि भारत के 10 करोड़ मध्यम वर्गीय उपभोक्ता ख़ुद संकट में है इसलिए अब उनसे ज़्यादा उम्मीद मत पालिए।
आपके हिस्से में क्या आएगा?
नयी सरकार को आते ही कई मोर्चों पर इतनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा कि उसे साँस लेना का मौक़ा भी नहीं मिलेगा।
टैक्स कलेक्शन लक्ष्य से 1.6 लाख करोड़ कम हुआ है इसलिए टैक्स बढ़ने का ख़तरा सिर पर सवार ही मानिए और सबसे पहले पेट्रोल और डीजल में एक्साइज ड्यूटी बढ़ने के आसार हैं।
महँगाई दर सिर उठाने लगी है इसलिए अगर मानसून ने ज़रा भी सुस्ती दिखाई तो खाने-पीने का सामान भी महंगा होगा।
अपने लोन की ईएमआई में कटौती की उम्मीद भी छोड़नी पड़ेगी क्योंकि महँगाई दर बढ़ी तो रिजर्व बैंक दरें घटाने की बजाए बढ़ा भी सकता है।
इंडस्ट्री की रफ़्तार की सुस्ती जारी रही हो जीएसटी कलेक्शन भी कम होगा इसलिए इनकम टैक्स में फ़िलहाल और राहत की उम्मीद अब छोड़ दीजिए।
सरकार के पास निवेश के लिए धन कम रहेगा, जबकि न्याय या किसान सम्मान निधि के लिए भी भारी रकम की ज़रूरत पड़ेगी।
शेयर बाजार में उठा-पटक का दौर रहेगा, इसलिए निवेश करने के बजाए कैश में रहें क्योंकि ओवरऑल माहौल इतना अनिश्चिततापूर्ण है कि संकट बढ़ सकता है।
इंडस्ट्री ऐसे ही सुस्त रही तो लोगों की सैलरी बढ़ने की गुंज़ाइश कम है और नयी नौकरियाँ भी बहुत कम रहेंगी।
अर्थव्यवस्था किसी भी किस्म की उठापटक और उहापोह को पूरी तरह नापसंद करती है। लेकिन अभी तो देश के सामने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों तरह के आर्थिक संकट हैं। सरकार के अंदर और बाहर सभी एक्सपर्ट तो चेतावनी दे ही रहे हैं।
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