देश के सबसे ग़रीब 20 फ़ीसदी परिवारों को हर महीने 6,000 रुपये देने के कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के एलान के राजनीतिक मायने हो सकते हैं, लेकिन इसने कई सवाल भी खड़े कर दिए हैं। सवाल यह उठता है कि क्या किसी सरकार के लिए देश के 5 करोड़ परिवारों को हर महीने 6,000 रुपये देना मुमिकन है और यह भी कि क्या सरकार इस मद में हर साल 3.60 लाख करोड़ रुपये ख़र्च कर सकती है? क्या यह भी हर आदमी के बैंक खाते में 15 लाख रुपये डालने के नरेंद्र मोदी के वायदे जैसा हो जाएगा? क्या इसके बाद देश में कोई ग़रीब नहीं रह जाएगा? ये तमाम सवाल लाज़िमी है।
प्रस्तावित स्कीम पर ख़र्च होने वाली अनुमानित रकम 3.60 लाख करोड़ रुपये वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान देश के सकल घरेलू उत्पाद 210 लाख करोड़ रुपये का क़रीब 1.7 प्रतिशत है। क्या सरकार इतना पैसा ग़रीबों के लिए खर्च कर सकती है, यह सवाल मौजूँ है।
कितनी है मौजूदा सब्सिडी?
यह जानना दिलचस्प होगा कि सरकार फ़िलहाल ग़रीबों पर कितना ख़र्च करती है। केंद्र सरकार खाद्य, उर्वरक, बिजली, ईंधन जैसे मदों पर भारी सब्सिडी देती है। सरकार ने वित्तीय वर्ष 2018-19 के दौरान खाद्य, पेट्रोलियम और उर्वरक पर 2.64 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है। इसके अलावा इस दौरान रसोई गैस पर 24,933 करोड़ रुपये और किरासन तेल पर 4,555 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है। सरकार ने वित्तीय वर्ष 2014-15 के दौरान 675 करोड़ रुपए की बिजली सब्सिडी दी, जो एक अनुमान के मुताबिक इस साल 800 करोड़ रुपए हो गई होगी। दूसरी सब्सिडियों को मिला कर देखा जाए तो सरकार लगभग 3 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी फ़िलहाल देती है। यह प्रस्तावित खर्च से थोड़ा ही कम है। सरकार के पास यदि इच्छा शक्ति हो तो वह इस स्कीम को लागू कर सकती है।
दूसरी तमाम सब्सिडी बंद होंगी?
लेकिन यह स्कीम तभी लागू होगी, जब सरकार बाकी सभी सब्सिडी बंद कर दे। लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार तमाम दूसरी सब्सिडी बंद कर सकती है? इस पर विचार करना ज़रूरी है। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने यह संकेत दिया है कि दूसरी सब्सिडी बंद कर दी जाएँगी। उन्होंने राहुल गाँधी के एलान के बाद कहा कि यह ‘टॉप अप’ स्कीम नहीं होगी। उन्होंने तर्क दिया कि यह टॉप अप स्कीम इसलिए नहीं है कि 20 प्रतिशत सबसे ग़रीब लोगों को यह सब्सिडी दी जाएगी। लेकिन टॉप अप स्कीम नहीं होने की बात तो सामने आ ही गई है।
वित्त मंत्री अरुण जेटली ने राहुल गाँधी की इस स्कीम को ‘ब्लफ़’ करार देते हुए दावा किया कि नरेंद्र मोदी सरकार तो हर साल 1,06,800 रुपए की सब्सिडी सबसे ग़रीब लोगों को दे ही रही है। वह यह कहना चाहते थे कि उनकी सरकार राहुल की स्कीम से अधिक दे रही है, पर उनकी बात से यह तो साफ़ हो ही गया कि राहुल की प्रस्तावित स्कीम अव्यवहारिक नहीं है।
अरुण जेटली ने यह दावा किया है कि मौजूदा सरकार हर साल कुल मिला कर लगभग 5.34 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है। यह रकम तो राहुल की स्कीम के 3.60 लाख करोड़ रुपये से बहुत ज़्यादा है।
अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा है?
आर्थिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यदि सरकार यह स्कीम लागू कर बाकी सभी सब्सिडी बंद कर दे तो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा कदम होगा। उनका तर्क है कि कई दूसरी स्कीमों के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। उदाहरण के तौर पर बिजली की सब्सिडी की वजह से बिजली सेक्टर बदहाली में है, सरकारी बिजली कंपनियाँ घाटे में चलती हैं, उनका निवेश ही बाहर नहीं निकल पाता है, मुनाफ़े की तो बात दूर है। नतीजा यह है कि बिजली उत्पाद का क्षेत्र आकर्षक नहीं है और कोई विदेशी कंपनी इसमें दिलचस्पी नहीं लेती है। इसी तरह, फ़सलों पर दिया जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य कई बार बाज़ार की सच्चाइयों से परे होता है, सरकार बाज़ार से ऊँची कीमत पर फ़सल खरीदती है ताकि किसानों को पैसे मिल सकें और वह उत्पाद सरकार के गोदामों में पड़ा रहता है। ऐसा गेहूँ, गन्ना, ज्वार और बाजरा की फ़सलों के साथ कई बार हो चुका है। यह लोकलुभावन भले हो, आर्थिक रूप से अव्यवहारिक होता है। यह स्थिति उर्वरक, रसोई गैस, किरास तेल जैसे क्षेत्रों का भी है। यदि सरकार एक जगह पैसे देकर इन क्षेत्रों में सब्सिडी बंद कर दे तो आर्थिक रूप से व्यवहारिक है।
पर्यवेक्षकों का यह भी कहना है कि ग़रीबों की जेब में अतिरिक्त पैसे आएँगे तो वे अधिक ख़र्च करेंगे। गाँव की अर्थवव्यवस्था भी मजबूत होगी। ख़र्च बढ़ने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अतिरिक्त बल मिलने से माँग बढ़ेगी और इससे अर्थव्यवस्था और मजबूत होगी।
पर क्या कोई सरकार दूसरे तमाम सब्सिडी बंद कर सकती है, अहम सवाल तो यह है। कांग्रेस की घोषणा के मुताबिक सिर्फ़ 20 प्रतिशत लोगों को इसका फ़ायदा मिलेगा। लेकिन फ़िलहाल सब्सिडी की स्थिति है कि कुछ क्षेत्रों में समाज के बहुत बड़े तबके को इसका फ़ायदा मिलता है। मसलन, पेट्रोलियम उत्पादों पर दी जा रही सब्सिडी सबको मिल जाती है। पेट्रोल और डीज़ल एक ही कीमत पर समाज के हर तबके को उपलब्ध है। इसी तरह बिजली दरें भी बेहद कम हैं जो बिजली बनाने वाली कंपनियों के लिए किसी सूरत में लाभदायक नहीं है। एक तरह से सिर्फ़ ग़रीब ही नहीं, मध्यवर्ग को बिजली कम क़ीमत पर मिलती है।
यदि सरकार सिर्फ़ 20 प्रतिशत लोगों को ही सब्सिडी देगी तो समाज का बड़ा तबका सरकार या उस पार्टी से नाराज़ होगा। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी या कोई दूसरी पार्टी समाज के बहुत बड़े तबके को नाराज़ कर सकती है? दूसरा अहम सवाल इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, वह है, क्या इससे ग़रीबी दूर हो जाएगी?
आर्थिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि किसी भी देश में किसी भी तरह की सब्ससिडी ग़रीबी दूर नहीं कर सकती, वह ग़रीबी दूर करने के लिए होती ही नहीं है। सब्सिडी देने का मक़सद ग़रीबों की मदद करना होता है, उनकी ग़रीबी दूर करना नहीं।
कैसे दूर होगी ग़रीबी?
ग़रीबी तब दूर हो सकती है जब समृद्धि का निर्माण हो और उसका बंँटवारा इस तरह हो कि सबको बराबर मिले या बराबर नहीं भी मिले तो कम से कम यह ज़रूर हो कि बहुत अधिक का अंतर न हो। लेकिन मौजूदा आर्थिक मॉडल का ध्यान सिर्फ समृद्धि निर्माण पर है, उसके बँटवारे पर नहीं। यही कारण है कि नरसिम्हा राव के समय शुरू हुए आर्थिक सुधार के बाद समृद्धि भी बढ़ी है और ग़रीबी भी, यानी अमीर और ग़रीब के बीच की खाई पहले से ज़्यादा चौड़ी हुई है।
राहुल गाँधी ने पाँच राज्यों में किसानों की क़र्ज़माफ़ी का वादा किया और तीन राज्यों में सरकार बनने के बाद उसे पूरा भी किया। पर पर्यवेक्षकों का कहना है कि इससे वास्तविक किसानों को ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। ठीक इसी तरह मनमोहन सिंह सरकार के अंतिम दिनों में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पूरे देश के किसानों के क़र्ज़ एक सीमा तक माफ़ कर दिए। इस पर केंद्र सरकार ने लगभग 6 लाख करोड़ रुपए ख़र्च किए, लेकिन उससे किसानों की स्थिति सुधरी नहीं है। इसका यह सबूत है कि उसके बाद भी किसानों की आत्महत्या की ख़बरें आई हैं।
ऐसे में यह मानना ग़लत होगा कि कांग्रेस सरकार की यह नीति ग़रीबों को वास्तविक रूप से ग़रीब नही रहने देगी और देश की ग़रीबी दूर हो जाएगी। लेकिन चुनाव के माहौल में इसका राजनीतिक महत्व है। इस स्कीम का शायद यही मक़सद भी है।
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