कोरोना काल में आत्मनिर्भर हुए एक सज्जन लखनऊ के पश्चिमी (चुनाव के लिहाज से पूर्वी) मोहल्लों में साइकिल पर फेरी लगा लगाकर समोसे, नमक पारे और बालूशाही जैसी चीजें बेचते हैं। हलवाई की दुकान में नौकरी करते थे, लेकिन लॉकडाउन के दौरान बेरोजगार हुए और उसके बाद घर पर ये चीजें बनाकर साइकिल पर बेचने का फॉर्मूला उन्हें रास आ गया। स्वाद और क्वालिटी दोनों अच्छे हैं इसलिए काम चल पड़ा है। सुबह सुबह मुलाक़ात हो गई। कुछ नहीं लूंगा यह तो मान गए मगर अचानक बहुत ज़ोर से कहा - तेल का हाल देख रहे हैं। आग लग गई है।
और यह तेल पेट्रोल या डीजल नहीं खाने का तेल है, जो समोसे और मिठाई बनाने में काम आता है। अगर आप अपने घर में रोजमर्रा की ज़रूरत का सामान खुद नहीं खरीदते हैं तो खरीदनेवाली से पता कीजिए कि खाने के तेल और वनस्पति का भाव कहां पहुंच चुका है।
हालाँकि जिस दिन यह बात हुई उसके एक ही दिन पहले सरसों के तेल के भाव में कुछ नरमी आई थी लेकिन खाद्य तेलों के गणित में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है पाम ऑयल यानी ताड़ का तेल जो ज़्यादातर मलयेशिया से आता है। कोरोना, लॉकडाउन और सप्लाई में दिक्कतों की वजह से इसका दाम बढ़ तो साल भर से रहा है लेकिन अब जो आग लगी है वो सीधे-सीधे यूक्रेन पर रूसी हमले का असर है। और यह असर सिर्फ़ खाने के तेल पर नहीं, पेट्रोल, डीजल, गैस और कोयले से लेकर गेहूं, मक्का, सोयाबीन, दूध, कपास, खाद और तमाम धातुओं के दामों तक पर नज़र आने लगा है और आगे भी काफ़ी समय तक आता रहेगा। एक तरह से कहें तो यह रूस और यूक्रेन की इस जंग की क़ीमत है जो हमें और आपको भी चुकानी पड़ेगी।
जंग की क़ीमत होती है यह तो सबको पता है। लेकिन जंग की कितनी क़ीमत होती है और किस किसको कब तक चुकानी पड़ सकती है यह समझना ज़रूरी है।
यूक्रेन से आ रही भयावह तसवीरें साफ़ दिखा रही हैं कि उसे इस लड़ाई की क्या क़ीमत चुकानी है। शहर के शहर तबाह हो चुके हैं। आनेवाला वक़्त इस तबाही के निशान मिटा सकेगा इसमें शक है और उस देश को दोबारा खड़ा करने के लिए क्या क़ीमत चुकानी पड़ेगी इसका अंदाजा भी लगाना अभी मुश्किल है।
लेकिन यह वो दौर भी नहीं है जब हमलावर आते थे और ख़ून ख़राबा लूटमार करके वापस निकल जाते थे। अब जितनी क़ीमत यूक्रेन चुकाएगा, रूस को भी यह लड़ाई उससे कम महंगी नहीं पड़ेगी। दिखने भी लगा है।
अंतरराष्ट्रीय बिरादरी अगर हमला रोक नहीं पाती है तो वो कम से कम इतना ज़रूर करती है कि हमलावर देश को आर्थिक मोर्चे पर अपनी हरकत का असर तुरंत महसूस होने लगे। यानी उसे समझ में आए कि हमला करके उसने ग़लती कर दी है। इसके लिए ही रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए हैं। आर्थिक प्रतिबंध का उद्देश्य उस देश के आम नागरिकों को परेशान करना नहीं होता है। लेकिन उसका यह असर ज़रूर होता है कि जनता परेशानी में पड़ती है तो फिर वो अपनी सरकार पर युद्ध के ख़िलाफ़ दबाव बनाने का काम करती है। रूस में तो यह दबाव पहले से ही बनता दिख रहा है। यहाँ तक कि रूस के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी खुलेआम अपनी सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने से परहेज नहीं कर रहे हैं।
रूस के लिए अब अंतरराष्ट्रीय व्यापार के दरवाजे भी बंद किए जा रहे हैं। बैंकों के अंतरराष्ट्रीय भुगतान नेटवर्क स्विफ्ट से रूस को अलग करने का फ़ैसला भी इसलिए किया गया ताकि रूस को दूसरे देशों से उन चीजों का भुगतान भी न मिल सके जो वो निर्यात कर रहा है या कर चुका है। रूस दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातक देशों में से एक है। इसके अलावा गेहूं, मक्का, सोयाबीन, सूरजमुखी जैसे अनेक कृषि उत्पादों के बाज़ार में भी वो एक बड़ा सप्लायर है। जाहिर है उसका कनेक्शन कटने का असर सीधे इन सभी के दाम पर दिखेगा। हमले के पहले से ही दिखने भी लगा है। पिछले पंद्रह दिनों में ही कच्चे तेल का भाव क़रीब बीस परसेंट उछल चुका है। इसी दौरान कोयला तो क़रीब क़रीब दोगुना होने को है जबकि गेहूं, मक्का, खाने के तेल और रासायनिक खाद के अंतरराष्ट्रीय दामों में दस से लेकर तीस परसेंट तक का उछाल आ चुका है। इसके साथ ही पूरी दुनिया में महंगाई का ख़तरा और बढ़ गया है। भारत भी इस बीमारी से बचा नहीं है।
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इतना तो तय है कि यह लड़ाई रूस को महंगी पड़ेगी। तीन अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने मिलकर एक अध्ययन किया है जिसके हिसाब से लड़ाई के पहले चार दिनों में ही क़रीब सात अरब डॉलर का झटका रूस को लग चुका था और कुल मिलाकर इस लड़ाई से रूस को रोजाना बीस से पचीस अरब डॉलर का नुक़सान होना तय है। विदेशी मुद्रा बाज़ार में रूसी रूबल की क़ीमत तीस परसेंट से ज़्यादा गिर चुकी है और गिरावट अभी थमी नहीं है। रूस में शेयर बाज़ार को तो बंद ही कर दिया गया है।
उद्योग जगत दोहरी परेशानी में है। जिन्होंने रूस को माल भेजा हुआ है या जिनका पैसा रूस में किसी कारोबार में लगा हुआ है उनकी चिंता तो यही है कि पैसा कैसे हासिल किया जाए। लेकिन बाक़ी सबके लिए परेशानी की वजह है इस लड़ाई का असर। यह असर तेल, गैस और धातुओं से लेकर कार, पेंट, केमिकल और कृषि उत्पादों तक न जाने कितनी चीजों पर दिखनेवाला है। जहाँ भारत पर इस लड़ाई का सीधा असर न दिखाई दे वहीं यह युद्ध परोक्ष रूप से कितना महंगा पड़ेगा यह हिसाब जोड़ना ही डरावना है। और ऐसे में ही याद आती हैं साहिर लुधियानवी की ये लाइनें।
आग और खून आज बख्शेगीभूख और एहतियाज कल देगीइसलिए ऐ शरीफ़ इंसानोंजंग टलती रहे तो बेहतर हैआप और हम सभी के आंगन मेंशमा जलती रहे तो बेहतर है!
(हिंदुस्तान से साभार)
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