चुनाव से पहले की सरकारी तैयारियों के क्रम में एक लोक-लुभावन ख़बर छपी है जो आयकर सीमा बढ़ाने के बारे में है। अज्ञात और अनाम सूत्रों के हवाले से छपी इन ख़बरों का एक ही मक़सद हो सकता है और वह है यह अनुमान लगाना कि बजट सत्र में इसकी घोषणा कर दी जाए तो सरकार को कितना लाभ होगा और होगा भी कि नहीं। हालाँकि, सरकार इस मामले में भी गंभीर होती तो आँकड़ों के साथ यह ख़बर आती कि इस तरह से यह संभव है और किया जा सकता है। वैसे, यह भी मुमकिन है कि सरकार जानती है कि ऐसा किया नहीं जा सकता है और उसे करना नहीं है। पर वह माहौल समझना चाहती है ताकि जाते-जाते यह घोषणा कर ही दे तो इसका लाभ होगा कि नहीं। आप जानते हैं कि यह सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम संसद सत्र में जो घोषणा करेगी वह लागू तो अगले साल ही होगा और इसका लाभ या नुक़सान अगली सरकार को झेलना है। मौजूदा सरकार को इस घोषणा का चुनावी लाभ भर मिलना है।
ख़बर के मुताबिक़ वित्त मंत्री अरुण जेटली आगामी अंतरिम बजट में इसकी घोषणा कर सकते हैं। इसके साथ ही वह मेडिकल ख़र्च और ट्रांसपोर्ट अलाउंस को भी फिर से टैक्स-फ्री कर सकते हैं।
नोटबंदी के बाद आर्थिक दबाव झेल रहे मध्य वर्ग को ख़ुश करने के लिए आयकर सीमा बढ़ाने का यह अच्छा तरीक़ा है और सरकार के इस क़दम से सबसे ज़्यादा राहत नौकरी-पेशा वाले मध्य वर्ग को ही मिलेगी।
सब जानते हैं कि अंतरिम बजट में नीतियों में बहुत अधिक बदलाव नहीं किया जाता है, फिर भी भारतीय जनता पार्टी की यह सरकार जब चुनाव पूर्व घोषित तौर पर छक्के लगा रही है तो इसीलिए कि उसे चिंता सता रही है कि कहीं आगामी आम चुनाव में मध्य वर्ग उससे पल्ला न झाड़ ले। इसलिए टैक्स स्लैब में बदलाव किए जाने की उम्मीद निराधार नहीं है।
डीज़ल-पेट्रोल पर इतना टैक्स क्यों?
यह दिलचस्प है कि चुनाव क़रीब आए तो सरकार मतदाताओं को लुभाने की हर संभव कोशिश कर रही है और इसे छिपा भी नहीं रही है। ऐसा नहीं है कि यह उसकी योजना का हिस्सा है क्योंकि सरकार के पास पैसे नहीं हैं - यह सार्वजनिक हो चुका है। और पेट्रोल-डीज़ल जैसी ज़रूरी और आम उपयोग की वस्तु को अपने प्रिय जीएसटी से बाहर रखकर उस पर जीएसटी की सर्वोच्च दर से भी ज़्यादा टैक्स लेना और उस बेशर्मी में पेट्रोल की क़ीमत को अधिकतम तक जाने देना साधारण नहीं है।- सत्ता में आने से पहले सरकार पेट्रोलियम पदार्थों और डॉलर की क़ीमत के साथ महँगाई को बहुत महत्व देती थी, पर पेट्रोलियम की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कम होने के बाद उसका लाभ उठाने का मौक़ा उसने जाने दिया। यह भी असाधारण है। तब यह आसानी से कहा जा सकता था कि इसका लाभ हम आपको देंगे। ऐसा जिसे आप याद रखेंगे – ऐसे चुनावी जुमले तब आराम से कहे जा सकते थे। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया।
तीन राज्यों में हार से बढ़ी चिंता
मुमकिन है, तब उसे लगता होगा कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उसकी कथित कोशिशों, जिसमें नोटबंदी और जीएसटी शामिल है – का सकारात्मक असर होगा और उसे यह सब करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। पर तीन हिन्दी राज्यों में चुनाव हारने और रफ़ाल पर कुछ संतोषजनक नहीं हो पाने के कारण सरकार की चिन्ता बढ़ी है और वह लोक-लुभावन घोषणाओं से अगले चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती हो। इसमें कोई शक नहीं है कि स्वयं प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष पर जो आरोप हैं, वे गंभीर और परेशान करने वाले हैं। सत्ता में नहीं रहने पर इनकी जाँच हो गई तो मुश्किल हो सकती है। अभी कुछ ही समय पहले अमित शाह 50 साल सत्ता में रहने का दावा करते थे और आरक्षण पर बहस के दौरान क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मान लिया कि चुनाव पूर्व सरकार और छक्के लगाएगी। इसमें सरकार एक विरोधी या प्रतिकूल अधिकारी को 20 दिन भी पद पर रहने देना मंजूर न होने के अपने नुक़सान के और मायने हैं तथा इससे निपटना ज़रूरी है। जीएसटी में छूट से लेकर आयकर में राहत की घोषणाएँ निश्चित रूप से इसी क्रम में हैं।
सरकार जब आरक्षण जैसा गंभीर काम बिना आँकड़ों के कर सकती है, नोटबंदी और जीएसटी जैसे फ़ैसले बग़ैर किसी तैयारी और पूर्वानुमान के कर सकती है, तो आयकर सीमा पाँच लाख रुपये करना कोई बड़ी बात नहीं है।
- व्यक्तिगत आयकर के सबसे ऊँचे स्लैब को 30 प्रतिशत से घटाकर 25 प्रतिशत करने, चिकित्सा ख़र्च और परिवहन भत्ते पर आयकर छूट मिलने तथा आयकर की दर में कमी करने का आग्रह किया है।
सरकार के पास पैसे नहीं!
अब तो यह सार्वजनिक है कि सरकार के पास पैसे नहीं है और वह भारतीय रिजर्व बैंक का 'सरप्लस रिजर्व' लेने की कोशिश में है। भारतीय वायु सेना को की गई आपूर्ति का भुगतान हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को नहीं किया जा सका है और ऐसी तमाम ख़बरों का खंडन सरकार ने नहीं किया है या उनपर चुप रही है तो सूत्रों के हवाले से प्रकाशित इस लोक-लुभावन ख़बर का भी खंडन नहीं होना है। उम्मीद कीजिए कि सरकार इसकी घोषणा भी कर दे। भले अगली सरकार मजबूरी में इसे वापस न ले पाए और सीआईआई के सुझावों को घुमा-फिराकर अमली जामा पहना दिया जाए। वैसे, सच यह भी है कि पिछले साल जब इस सरकार का अंतिम पूर्ण बजट आने वाला था तब भी जनवरी के इन्हीं दिनों ऐसी ख़बर छपी थी। वैसे, सिक्सर के चक्कर में अब यह मजाक भी चल पड़ा है कि चुनाव जीतने की मजबूरी में क्या पता सरकार 15 लाख बाँटना भी शुरू कर दे!
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