बजट की बेला आ गई है। अब सबको इंतजार है कि अगले हफ़्ते आखिर क्या निकलेगा वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के लाल बस्ते से। हाल तो सामने है कि कौन कौन बेहाल है। और यही वित्तमंत्री की सबसे बड़ी चुनौती है कि कोरोना काल में जो लोग किसी न किसी वजह से मुसीबत में आ गए हैं उन्हें कैसे राहत दी जाए, कितनी राहत दी जाए और इसके लिए पैसा कहां से आएगा?
बजट का असली मतलब तो आमदनी और खर्च का हिसाब लगाना ही होता है। हिसाब भी बिलकुल वैसे ही लगता है जैसे आप अपने घर के ख़र्च का हिसाब लगाते हैं। और खर्च का हिसाब लगाने से पहले यह पता होना ज़रूरी है कि कमाई कितनी है, और अगर खर्च ज्यादा हैं तो कहाँ से कितना कर्ज मिल सकता है।
यह पूरा हिसाब किताब तो सामने आएगा आर्थिक सर्वेक्षण में, लेकिन चालू वित्तवर्ष के शुरुआती आठ महीनों का जो आंकड़ा जारी हुआ है उसके हिसाब से चिंता आमदनी की उतनी नहीं है जितनी इस बात की कि सरकार का खर्च इतना कम क्यों है? आखिर क्या चीज़ है जो सरकार को ज़रूरी चीज़ों पर खर्च करने से रोकती है और वो भी एक ऐसे वक्त पर जबकि ज़्यादा खर्च करना इकोनॉमी की सेहत के लिये भी बेहद ज़रूरी है और खुद सरकार की साख के लिए भी?
आठ महीनों का हाल देखने के बाद जानकार हिसाब लगा रहे हैं कि आमदनी के मामले में तो यह साल उम्मीद से कुछ बेहतर ही निकलने वाला है। यानी सरकार को सभी स्रोतों से कुल मिलाकर जो आमदनी होने का अनुमान पिछले बजट में लगाया गया था, अब लगता है कि सरकार के हाथ में उससे क़रीब सवा दो लाख करोड़ रुपए अधिक आने जा रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह टैक्स वसूली में आई तेज़ी है। पिछले छह महीनों में हर महीने औसतन एक लाख बीस हज़ार करोड़ रुपए तो सिर्फ जीएसटी से ही आए हैं। इसका सीधा मतलब है कि कारोबार रफ्तार पकड़ रहा है।
अभी कोरोना की तीसरी लहर का डर और उससे ज्यादा यह आशंका बनी हुई है कि यह अर्थव्यवस्था को कितना झटका और दे सकती है। लेकिन सरकार की कमाई में 69.8% की बढ़ोत्तरी यह उम्मीद देती है कि सरकार के हाथ एकदम बंधे हुए तो नहीं हैं।
यानी सरकार चाहे तो ज़रूरी चीज़ों पर खर्च कर सकती है या बढ़ा सकती है। ज़रूरत भी सामने है, लेकिन दिख तो यह रहा है कि इस साल सरकार को जो 34.8 लाख करोड़ रुपए खर्च करने थे, उसका 60 परसेंट हिस्सा भी खर्च नहीं हो पाया है, जबकि कमाई लगभग 70 परसेंट बढ़ती दिख रही है। कमाई ज्यादा और खर्च कम यानी घाटे में कटौती। बजट में अनुमान था कि इस साल सरकारी घाटा 6.8% यानी 15.1 लाख करोड़ रुपए रहेगा। लेकिन अब अगर सरकार को इस साल अपना घाटा यानी फिस्कल डेफिसिट 15.1 लाख करोड़ ही रखना है तो उसे अपना ख़र्च बढ़ाना पड़ेगा यानी बचे हुए समय में उसे 16.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। उसके बाद भी यह घाटा जीडीपी का 6.5% ही रहेगा यानी उम्मीद से बेहतर।
अगर सरकार बचे हुए वक्त में अपना खर्च बढ़ा लेती है तो इस साल उसका कुल खर्च लगभग साढ़े पांच परसेंट बढ़ेगा जो पिछले साल हुई एक परसेंट की बढ़त से तो काफी ज्यादा है, लेकिन उसे छोड़ दें तो पिछले सोलह साल में सबसे कम बढ़ोत्तरी है। यही सबसे बड़ी फिक्र की बात है।और शायद यही अब वित्तमंत्री की सबसे बड़ी चुनौती भी है कि वो खर्च कैसे बढ़ाएं, कहां बढ़ाएं?
चिंता बढ़ाने की बात यह है कि सरकार के तमाम दावों और सफाइयों के बावजूद वो अर्थशास्त्री सही साबित होते दिख रहे हैं जो कह रहे थे कि कोरोना के बाद अर्थव्यवस्था में जो सुधार आ रहा है उसमें सबकी बराबर हिस्सेदारी नहीं है। जहां कुछ तबके तेज़ी से ऊपर जा रहे हैं वहीं कुछ आज भी नीचे ही गिरते दिख रहे हैं। इसी को के शेप्ड रिकवरी कहा जाता है। अंग्रेजी के अक्षर के (K) के दो डंडों की तरह समाज के कुछ तबके तेज़ी से ऊपर जा रहे हैं जबकि कुछ आज भी गिरते ही दिख रहे हैं। चुनौती यह है कि नीचे वालों को सहारा देने का कौन सा रास्ता निकाला जाए कि ऊपर बढ़नेवालों से मदद भी ली जा सके और उनकी रफ्तार पर ब्रेक भी न लग जाए।
सरकार के पास इस वक्त तक उद्योग, व्यापार और समाज के दूसरे तबकों से भी मांगों की लंबी लंबी सूचियां पहुंच चुकी हैं कि किसे क्या चाहिये।
उद्योग संगठन, बड़े व्यापार घराने और विशेषज्ञ भी बजट से पहले अपनी अपनी तरफ से हालात का विश्लेषण और उससे निपटने के सुझाव सरकार के सामने रख चुके हैं। हालांकि अब तक बजट का बड़ा हिस्सा तैयार हो चुका होता है, इसलिए मान सकते हैं कि अब सुझाव देने का कोई लाभ नहीं है। क्योंकि वित्तमंत्री को जो करना है वो तो तय हो चुका है। लेकिन ऐसा है नहीं। खासकर बजट भाषण में होने वाले बड़े एलान आखिरी समय पर भी जोड़े जा सकते हैं। और आख़िरी समय में वित्तमंत्री की सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि बजट में ऐसा क्या किया जा सकता है जिसका असर अर्थव्यवस्था पर और नागरिकों की जिंदगी पर लंबे समय तक दिखता रहे।
मांगों और सुझावों की एक नहीं अनेक लंबी लंबी लिस्ट मौजूद हैं। लेकिन सबका सार यही है कि इस वक्त सरकार को अपना खजाना खोलना पड़ेगा। समाज के जो हिस्से और जो कारोबार इस के शेप्ड रिकवरी में अब भी नीचे गिरते दिख रहे हैं उनकी मदद करनी पड़ेगी और अगर ज़रूरत पड़े तो जिन लोगों के कारोबार और कमाई में ज़बरदस्त उछाल हुआ है उनसे कुछ मदद लेने का रास्ता निकालना पड़ेगा। खजाने में पैसा लाने के लिए सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने का काम कुछ अटका हुआ ज़रूर दिख रहा है लेकिन अगर एलआईसी का आइपीओ आ गया तो एक झटके में एक से डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक की रकम सरकार को मिल सकती है।
सरकार आसानी से देख सकती है कि कोरोना के बाद कौन से कारोबार तेज़ी से चमके हैं। इनमें एफएमसीजी, टेक्नोलॉजी और ज़्यादातर ऐसी कंपनियां हैं जिनके पास मोटा पैसा है। जबकि दूसरी तरफ़ छोटे व्यापारी और कुछ सेक्टर जैसे होटल और टूरिज्म आज भी संघर्ष करते दिख रहे हैं। यही हाल मध्यवर्ग और उन गरीबों का भी है जिन्हें किसी सरकारी योजना का सहारा नहीं मिला हो या जिनके घरों ने कोरोना की मार झेली है।
सरकार क्या करेगी और कैसे करेगी यह बताने के लिए उसके पास बहुत से जानकार मौजूद हैं। लेकिन यह तय है कि इस वक्त एक बड़े तबके को मदद और सहारे की ज़रूरत है और एक हिस्से को इस हौसले की कि वो अपने व्यापार और कारोबार को तेज़ी से आगे बढ़ाए ताकि उसका असर पूरी इकोनॉमी पर दिखाई पड़े।
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