विकास दर 5 फ़ीसदी रहने के आसार, बेरोज़गारी दर 44 साल के उच्चतम स्तर पर, उपभोग का स्तर 40 साल के न्यूनतम स्तर पर, औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर मामूली रूप से धनात्मक, सरकारी खर्च में कटौती, वित्तीय घाटा निर्धारित सीमा से नवंबर माह में ही ऊपर। यह है हमारी अर्थव्यवस्था के मूलभूत आधारों की स्थिति।
और अब खुदरा महंगाई दर भी साढ़े पाँच साल के उच्चतम स्तर पर। जनवरी में इसके नीचे आने के आसार नहीं। ऊपर से, ईरान-अमेरिका के बीच तनाव यदि बढ़ता गया तो महंगाई और वित्तीय घाटे का बढ़ना तय।
बढ़ी बेरोज़गारी
विकास दर कम होने का मतलब आम आदमी की कमाई में कमी आना, बेरोज़गारी बढ़ना, खपत या उपभोग का स्तर नीचे आना। वित्तीय घाटा बढ़ने का मतलब यह हुआ कि कल्याणकारी योजनाओं पर होने वाला खर्च कम होना। इसके कम होने का अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था में नकद कम होना और इसका अर्थ हुआ कि आर्थिक क्रियाकलापों में गिरावट।
बेरोज़गारी बढ़ रही है, विकास दर कम हो रही है, सरकारी व्यय कम हो रहा है, रुपया कमजोर हो रहा है जिसके चलते कर्ज़ पर चुकाए जाने वाले ब्याज का बोझ बढ़ रहा है। महंगाई दर कम न हुई तो आर्थिक मंदी के इन संकेतों में महंगाई जन्य मंदी (स्टैगफ्लेशन) भी जुड़ जाएगी।
महंगाई
सवाल यह उठता है कि क्या महंगाई की दर निकट भविष्य में कम होने के आसार हैं? खुदरा महंगाई दर में जो वृद्धि हुई है, वह मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के दामों में तेजी की वजह से हुई है। सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के मुताबिक़, दिसंबर में खाद्य पदार्थों के दाम 14 फीसदी बढ़े। नवंबर माह में भी यह वृद्धि दहाई में ही थी। इसके अलावा, सब्जियों की कीमतों में 60 फीसदी, दालों में 15.44 फीसदी और मीट-मछली में 1.57 फीसदी की तेजी दिसंबर माह में आई। इसके चलते खुदरा मंहगाई दर दिसंबर माह में 7.35 फीसदी पर रही। नवंबर में यह दर 5.54 फीसदी और अक्टूबर में 4.62 फीसदी थी। ध्यान देने की बात यह है कि आम भारतीय परिवार की आय का 40 फीसदी इसी मद में जाता है। इससे यह समझना आसान हो जाता है कि 7.35 फीसदी की खुदरा महँगाई दर का असर किस तरह से आम आदमी पर पड़ रहा है।
क्या होगा जीडीपी पर असर?
सवाल यह है कि बढ़ती महँगाई दर का जीडीपी पर क्या असर पड़ेगा। यानी सही परिप्रेक्ष्य में 7.35 फ़ीसदी की खुदरा महँगाई दर का क्या मतलब है। इस वित्त वर्ष में देश की नॉमिनल जीडीपी 7.50 फीसदी रहने के आसार हैं। (नॉमिनल जीडीपी को इस प्रकार समझा जा सकता है - मसलन अगर आधार वर्ष 2011-12 में देश में सिर्फ़ 100 रुपये की तीन वस्तुएँ बनीं तो कुल जीडीपी हुई 300 रुपये. और 2019-20 तक आते-आते इस वस्तु का उत्पादन दो रह गया लेकिन क़ीमत हो गई 150 रुपये तो नॉमिनल जीडीपी 300 रुपये हो गया। लेकिन देश की वास्तविक जीडीपी २०० रुपये ही हुई। नॉमिनल जीडीपी 7.50 फीसदी रहने का अर्थ हुआ कि भारतीयों की औसत आय में 7.50 फीसदी की वृद्धि के आसार। अब अगर इसमें महँगाई दर एडजस्ट कर देते हैं तो वास्तविक तस्वीर सामने आएगी।
अगर खुदरा महँगाई दर 7.35 फ़ीसदी है तो इसका मतलब यह हुआ कि आम आदमी की आय में जो 7.50 फ़ीसदी वृद्धि दिख रही थी, वह सिर्फ 0.15 फीसदी रह गई।
महँगाई की मार
यह बात तो हम जीडीपी के औसत से कर रहे हैं। यदि इसको सेक्टर के हिसाब से अलग-अलग करके देखें तो देश की 65 फ़ीसदी आबादी कृषि व इससे जुड़ी गतिविधियों पर आश्रित है और इसकी वास्तविक वृद्धि दर दो फीसदी से भी कम रहने के आसार हैं। ऊपर से इतनी ऊँची महँगाई दर। यानी इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाला देश का 65 फ़ीसदी तबका है जिसकी आय भी बाकी के मुकाबले कम बढ़ रही है लेकिन महँगाई सबके बराबर ही उसके लिए भी है। अब इसको बेरोज़गारी के स्तर से जोड़कर देखें तो पता चलेगा कि झटका कितना बड़ा है। जानकारों का कहना है कि जनवरी माह में महँगाई दर के नीचे आने के आसार नहीं है क्योंकि जिस तरह गड़बड़ मौसम के चलते खरीफ़ पर असर पड़ा, उसी तरह रबी पर मौसम की मार का असर अभी दिखाई दे रहा है। ऊपर से ईरान-अमेरिका तनाव। इसके चलते तेल की कीमतें ऊपर जा रही हैं। यदि इस तनाव ने विस्फोटक रूप लिया तो महँगाई दर तो बढ़ेगी ही, सरकार का वित्तीय प्रबंधन भी गड़बड़ा जाएगा। कुल मिलाकर अच्छे दिनों की जगह ख़राब दिनों के लिए कमर कस लीजिए।
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