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अर्थव्यवस्था इतनी तेजी से गिर रही है कि शायद संभल ही न पाए

केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से संबंधित आंकड़े जारी किए हैं और इसके मुताबिक़, देश की जीडीपी विकास दर जून की तिमाही में पाँच प्रतिशत रह गई है। इससे पहले की तिमाही में यह 5.8 प्रतिशत थी और इसमें लगातार कमी हो रही है। अक्तूबर-दिसंबर में यह 6.6 प्रतिशत, जुलाई-सितंबर में सात प्रतिशत और एक साल पहले पिछले अप्रैल-जून में यह आठ प्रतिशत थी। इसी तरह मैन्यूफ़ैक्चरिंग सेक्टर की वृद्धि दर पिछले साल की 12 प्रतिशत से घटकर महज 0.6 फीसदी रह गई है।
विश्लेषकों को उम्मीद थी कि इस तिमाही में यह 5.7 प्रतिशत रहेगी पर इस अनुमान से यह बहुत कम है। 2015 में यह दर 10 से 12 फ़ीसदी होती थी जो कम होती हुई यहाँ तक पहुँची है। अप्रैल में निर्यात वृद्धि दर भी निचले स्तर पर थी। वैसे तो हालात ख़राब होने के संकेत शुरू से थे पर इसे झुठलाने और छिपाने की हर संभव कोशिश हुई। सच को स्वीकारने से इनकार करने के साथ-साथ इसे छिपाने-बताने में भी गड़बड़ी की गई। 

आंकड़े दिए नहीं गए, गणना का तरीक़ा बदल दिया गया और भी न जाने क्या-क्या हुआ पर अभी वह मुद्दा नहीं है। लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि रिजर्व बैंक को लाभ में दिखाने के लिए लाभ की गणना का तरीक़ा भी बदल दिया गया है।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था को सबसे बड़ा झटका नोटबंदी से लगा था और इससे संभलने से पहले ही आधा तैयार जीएसटी को लागू कर मरती अर्थव्यवस्था की टांग तोड़ दी गई। नोटबंदी और जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए किस तरह नुक़सानदेह रहे, इसपर काफी कुछ लिखा जा चुका है। 

लेकिन एक नई ख़बर यह है कि सरकार लोगों को जीएसटी सुविधा केंद्र खोलने के लिए प्रेरित कर रही है। देश भर में हज़ारों जीएसटी सेवाकेंद्र खोलने की योजना है। जीएसटी लागू हुए दो साल हो चुके हैं, तिमाही रिटर्न फ़ाइल करना ज़रूरी था और देर से रिटर्न फ़ाइल करने पर जुर्माने का प्रावधान था सो अलग। इतना भी होता तो कोई बात नहीं धी, रोज एसएमएस भेजकर कारोबारियों को डराने और परेशान करने का काम भी किया जाता रहा और जीएसटी सहायता केंद्र खोलने का काम अभी बाक़ी है।

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कायदे से, ये केंद्र जीएसटी लागू होने से पहले खोले जाने चाहिए थे और करदाताओं को यह आश्वासन दिया जाना चाहिए था कि इन केंद्रों में मामूली शुल्क देकर जीएसटी का बोझ उतारा जा सकता है। अब जब कारोबारी डरकर धंधा बंद कर चुके, घाटा उठा चुके या कारोबार किया ही नहीं तो उनके लिए ये केंद्र किस काम के हैं। मुझे तो डर है कि इस सेवा से लाभ कमाने की उम्मीद में यह काम शुरू करने वाले लोग आगे फंसेंगे क्योंकि उन्हें ग्राहक कहाँ से मिलेंगे? 
जो कारोबारी अभी अपना काम किसी तरह चला ले रहे हैं वे सेवा केंद्र में क्या करने आएँगे और अभी जो स्थिति है उसमें कोई नया कारोबार शुरू करेगा क्या?
आप कह सकते हैं कि जीएसटी तो बड़े कारोबारियों के लिए है, छोटे कारोबारी इससे कैसे प्रभावित होंगे। मेरे ख्याल से इस पर भी काफ़ी लिखा जा चुका है पर जो नई बात है वह यह कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव और नोटबंदी से पहले मेरे मोहल्ले में कई मांस और बिरयानी विक्रेता थे। सब मुसलमान थे। धीरे-धीरे वे सब दुकानें बंद हो गईं। कहने की जरूरत नहीं है कि उनकी दुकानें क्यों बंद हुईं।
इस तरह, मेरा मानना है कि नोटबंदी और जीएसटी से नुक़सान के अलावा सामाजिक स्थिति भी ऐसी है कि छोटे कारोबार बंद हुए हैं। दाढ़ी, टोपी देखकर और नाम पूछकर लिन्च कर दिए जाने के समय में किस (अल्पसंख्यक) की हिम्मत होगी कि रोज चौराहे पर खड़ा होकर कारोबार करे। ऐसा नहीं है कि यह स्थिति उत्तर प्रदेश या गाजियाबाद में ही है।
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हरियाणा के मेवात में बिरयानी बेचने वालों की बिरयानी सूंघकर गोमांस का पता लगाने और लोगों को परेशान करने के ढेरों मामले हुए थे। परेशान आप धर्म विशेष के लोगों को करें पर अर्थव्यवस्था में उसका योगदान तो किसी धर्म के नाम से नहीं दर्ज होता है। कारोबार किसी धर्म वाले का कम हो, दूसरे का नहीं बढ़ेगा तो हालत बिगड़ेगी ही। इस तरह लोगों की कमाई कम होगी तो ख़र्चा भी कम होगा। खर्चा कम होने का मतलब है बिक्री घटना। और यह चक्र चलता रहेगा। दूसरी ओर, सरकार ने इस स्थिति पर ध्यान नहीं दिया या जानबूझकर आंकड़े बदलती रही और अच्छी तस्वीर दिखाती रही।
हद तो यह हुई कि प्रधानमंत्री ने 50 दिन में सपनों का भारत देने का वादा कर दिया और इसे 15 लाख की तरह जुमला न समझा जाए इसलिए यह भी जोड़ दिया कि सपनों का भारत नहीं बना तो वह किसी भी चौराहे पर आ जाएँगे। पर उरी से लेकर पुलवामा तक ख़ुफ़िया तंत्र की नाकामी को घर में घुसकर मारने का मौक़ा बना दिया गया।
लोगों की नौकरी गई, कारोबार छूटा पर उन्हें खुश रहने का बहाना मिला। नहीं तो मनोरंजन हुआ ही। रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी और सरकार की कमजोरी उजागर करने की बजाय प्रशंसा में लग गया। पर सच्चाई कितने दिन छिपती। 
अंतत: सरकार ने माना कि हालात खराब हैं, सुधारने के नाम पर कुछ उपायों की घोषणा की गई। यह अलग बात है कि उससे कुछ होना-जाना नहीं है।

जो हालात हैं उसमें रिजर्व बैंक के पैसे से कुछ नहीं होने वाला है। लोगों को सरकार पर भरोसा ही नहीं है। आज ही किसी ने जानना चाहा कि सरकार 2000 के नोट बंद करेगी क्या? यह स्थिति ऐसे ही नहीं बनी है। बड़े नोट बंद करने की वकालत करने और हजार की जगह 2000 का नोट लाने को क्या कहा जाए? और ऐसी सरकार से कोई क्यों न डरे। 

दूसरी ओर, सरकार अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर ला सकेगी ऐसी योग्यता और सक्षमता किसी में नजर आती है क्या? क्या आप सरकार में किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिससे आप उम्मीद करें कि वह कुछ कर सकता है। मैं तो नहीं जानता। ऊपर से नृपेन्द्र मिश्र के इस्तीफ़े की ख़बर। ऐसे में हर कोई यही मानता है कि सरकार एक व्यक्ति की है और वह न जाने कब क्या कर देगा। 50 दिन में सपनों का भारत देने का वादा और फिर अफसोस भी न जताना कैसी छवि बनाएगा? 

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और जो छवि है वह यह कि अच्छी-भली अर्थव्यवस्था से कालाधन हटाने के नाम पर नोटबंदी जैसी सर्जरी की गई और मरीज अभी ठीक भी नहीं हुआ था कि उस पर जीएसटी लाद दिया गया। दूसरी ओर, स्विस बैंक से कालाधन लाने के लिए कुछ नहीं किया गया। नोटबंदी और जीएसटी को सही और ज़रूरी बताया गया। इससे नुक़सान की बात आज तक स्वीकार नहीं की गई है। 

कारोबारियों से उनकी समस्याएँ जानने-सुनने की कोई कोशिश नहीं हुई है। सब जैसे-तैसे चल रहा है। लोगों को उलझाने के लिए एफ़डीआई जबकि ऐसी हालत में कौन विदेशी अपना पैसा यहाँ लगाएगा और ऐसे उपायों से हालात सुधरने की उम्मीद कैसे की जाए? 

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संजय कुमार सिंह
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