यह रिपोर्ट दर्शाती है कि सरकारी योजनाओं को कैसे हज़म किया जाता है। क्यों इस देश में बड़ी बड़ी योजनाओं का फल आम लोगों तक नहीं पहुँचता और बीच में ही लपक लिया जाता है, यह रिपोर्ट उसे भी दर्शाती है? इस रिपोर्ट से आप यह भी जान पाएंगे कि किस तरह हमारे बड़े बड़े सरकारी संस्थान इसका शिकार हो सकते हैं।
मामले की शुरुआत होती है 25 अप्रैल 2020 से, जब हमारे देश के सबसे प्रतिष्ठित सरकारी वैज्ञानिक संस्थान केंद्रीय वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद ने एक प्रेस बयान जारी किया।
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प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुरूप
इस प्रेस नोट में बताया गया कि देश में एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल इनग्रेडियेंट यानी एपीआई (दवा बनाने के लिए ज़रूरी कच्चा माल) के विकास के लिए सीएसआईआर ने अपनी ही सहयोगी संस्था आईआईसीटी के ज़रिए एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान से एक क़रार किया है।यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इसी वर्ष मार्च में की गई उस घोषणा को ज़मीन पर लागू करने के दिशा में है, जिसमें उन्होंने देश में ही एपीआई विकसित करने के लिये 14 हज़ार करोड़ की सरकारी सहायता उपलब्ध कराने की घोषणा की थी।
जेनरिक दवा बनाने के मामले में भारत दुनिया का सबसे बड़ा देश है। दुनिया भर में जितनी जेनरिक दवाएं बनती हैं, उसका लगभग 20 फ़ीसदी भारत में बनता है। भारत ने क़रीब 21 अरब डॉलर का निर्यात बीते वर्ष किया था। लेकिन हम अपनी ज़रूरत की दवा बनाने के लिए क़रीब 70 फ़ीसद कच्चा माल विदेशों से मंगाते हैं, ज़्यादातर चीन से। प्रधानमंत्री के इस ऐलान से दवाओं के लिये एपीआई देश में ही बनाने का एक बड़ा प्रयास शुरू हो सकता है।
सीएसआईआर का क़रार
सीएसआईआर व आईआईसीटी के 25 अप्रैल के प्रेस बयान को पढ़ने से पता चला कि इन्होंने लक्साई लाइफ़ लाइन्सेज नामक एक कंपनी से इस आशय का समझौता किया है। लक्साई ने बताया कि उसकी एक आनुषंगिक कंपनी है थेरापिवा प्राइवेट लिमिटेड, जिसके पास एपीआई विकसित करने का एक संयंत्र है। वह संयंत्र अमेरिकी फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन और जीएमपी जैसे अंतरराष्ट्रीय मानकों द्वारा प्रमाणित है।केंद्रीय वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय का सबसे प्रमुख संस्थान है। इसका सालाना बजट क़रीब 5 हज़ार करोड़ रुपये का होता है। इसकी कई शाखाएँ हैं और हैदराबाद स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ कैमिकल टेक्नोलॉजी (आईआईसीटी) उनमें से एक है। इस कारण इन दोनों संस्थाओं ने जिस निजी कंपनी को एपीआई विकास योजना के तहत भागीदारी के लिये देश भर में से चुना, उस पर संदेह करने का कोई कारण नहीं होना चाहिए था।
सत्य हिन्दी की पड़ताल
सत्य हिंदी और फ़्रंटलाइन ने देश में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप की परियोजनाओं पर नज़र रखने के क्रम में इस क़रार की पड़ताल की। पहले हमने लक्साई लाइफ़ साइन्सेज के अतीत को खंगाला। फिर इसकी आनुषंगिक कंपनी थेरापिवा प्राइवेट लिमिटेड के बारे में जाँच पड़ताल की। पता चला कि इस कंपनी ने दवा बनाने का प्लांट मशहूर दवा कंपनी डा० रेड्डीज़ लैब से 2017-18 में ख़रीदा था।थेरापिवा की वित्तीय स्थिति जानने के लिए हमने आईसीआरआई से रिपोर्ट हासिल की, जिसने चौंकाने वाली सूचनाएँ दीं। इस रिपोर्ट में इस कंपनी के दो वर्षों 2019 और 2020 के आय-व्यय का ब्योरा है। इसके अनुसार इन दोनों वर्षों में इस कंपनी का संचालन से उत्पन्न लाभ क्रमशः -15.3 % और -20.4 % रहा है।
कंपनी की हालत ख़स्ता
यानी कंपनी बुरी तरह घाटे में चल रही है। कंपनी पर ऋणदाताओं का भारी क़र्ज़ चढ़ा है और इसकी हैसियत क़र्ज़ की तुलना में नीचे जा पहुँची है। सितंबर 2019 में कंपनी के वित्तीय ब्योरे से पता चलता है कि कंपनी के संचालन से होने वाले मुनाफ़े की तुलना में इसका क़र्ज़ 5.1 गुणा ज्यादा और कर-पूर्व मुनाफा -8.4 गुना है।यानी क़र्ज़ बहुत ही ज़्यादा है, मुनाफ़ा तो है ही नहीं, घाटा है और वह भी बहुत ज़्यादा। इसके अलावा कंपनी के दस्तावेज़ों में किसी तरह के उल्लेखनीय व्यापार या किसी रिसर्च प्रोजेक्ट का कोई ज़िक्र नहीं है।
थेरापिवा का सच!
दस्तावेजों की जाँच से पता चला कि दरअसल लैक्सिस का यह दावा ग़लत है कि थेरापिवा उसकी आनुषंगिक कंपनी है। दरअसल लैक्सिस का एक दूसरी कंपनी ओम्नीकेयर ड्रग्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक क़रार हुआ है। इसके तहत ओम्नीकेयर के पास इस कंपनी की 61 फ़ीसदी शेयर है, लैक्सिस के पास सिर्फ़ 39 प्रतिशत हिस्सेदारी है।इस तथ्य को सीएसआईआर-आईआईसीटी के बयान में छिपाया गया है। इसकी एक ख़ास वजह है। दरअसल ओम्नीकेयर ड्रग्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड खुद दुबई की कंपनी नियोफार्मा इंटरनेशनल होल्डिंग कंपनी की आनुषंगिक कंपनी है। इसका शत प्रतिशत शेयर दुबई की कंपनी के पास है।
पहले लैक्सिस और उसके बाद थेरेपिवा और उसके बाद ओम्नीकेयर को सामने लाया गया ताकि कोई जान ही न सके कि दरअसल यह क़रार दुबई की कंपनी नियोफार्मा और सीएसआईआर के बीच हुआ है। क्या ज़बरदस्त स्वदेशीकरण है? क्या आत्मनिर्भरता है? वाह!
क्या है नियोफ़ार्मा होल्डिंग?
लेकिन बात सिर्फ़ इतनी नहीं है। अब जानिये कि दुबई की कंपनी नियोफार्मा इंटरनेशनल होल्डिंग क्या है, किसकी है और क्यों दुबई से ओम्नीकेयर और थेरेपिवा होते हुए सीएसआईआर-आईआईसीटी तक पहुँच गई? नियोफार्मा के मालिक हैं डॉक्टर भावगुथु रघुराम शेट्टी। अगर आप डॉक्टर बी. आर. शेट्टी का नाम गूगल सर्च में डालें तो खबरों से, फ़ोटोज़ से वीडियोज से भर जायेंगे।सबसे ताजी खबर इकोनॉमिक टाइम्स की मिलेगी जिसमें बैंक ऑफ़ बड़ौदा शेट्टी साहेब से अपने 1300 करोड़ रुपये वसूलने के लिये इनकी और इनके परिवार की जायदाद को बेचने से रोक लगाने के लिये हाईकोर्ट में गिड़गिड़ाता मिलेगा। दूसरी खबर 15 अप्रैल की दुबई से देखें जिसमें दुबई का सबसे प्रमुख बैंक अबूधाबी कमर्शियल बैंक इन पर धोखाधड़ी, जालसाजी और ग़बन के अरबों दिरहम वसूलने के लिये आपराधिक मामला दर्ज कराता हुआ मिलेगा। तीसरी ख़बर लंदन से उसी समय की है जिसने लंदन स्टॉक एक्सचेंज में इनकी कंपनी के शेयरों के कारोबार पर रोक लगा दी है और इनसे जुड़े हर खाते को सील कर दिया है।
दुबई में इनका और इनके परिवार व सहयोगियों का हर बैंक अकाउंट सीज़ है, पुलिस इनकी तलाश में है, ये मार्च में ही भारत भाग आए हैं और वहाँ जाने को तैयार नहीं हैं। इनकी कुल हैसियत 3.2 अरब डॉलर की घोषित की गई थी, पर इन पर बैंकों का लगभग 12 अरब डॉलर का बकाया है।
ख़ैर, इस बीच यह ख़बर भी आई है कि शेट्टी साहब के बेटे को दुबई में पुलिस ने इसी मामले में गिरफ़्तार कर लिया है।
प्रधानमंत्री के नज़दीकी
शेट्टी साहब 1968-70 के बीच उडुपी में भारतीय जनसंघ की ओर से दो बार म्युनिसिपैलिटी के पार्षद व उप सभापति रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुराने कार्यकर्ता हैं। वह हमारे प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं और प्रधानमंत्री उन्हें। दोनों के कई वीडियो यूट्यूब पर मौजूद हैं।शेट्टी ने प्रधानमंत्री को 2017 में संयुक्त अरब अमीरात का सबसे बड़ा सम्मान दिलाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। उन्होंने मोदी जी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में सुपर स्पेशलिटी अस्पताल बनाने का ऐलान किया था और सरकार ने बीच शहर में उन्हें पाँच एकड़ ज़मीन दी थी।
ख़ैर, बैंक ऑफ़ बड़ौदा के 1300 करोड़ डकार लिए, या सीएसआईआर के अफ़सरों को घुड़की देकर नई स्कीम में दो-चार हज़ार करोड़ पार कर लेने का प्लान बना लिया तो क्या ग़लत किया? ऐसे तर्क भी मिल सकते हैं!
हमने आईआईसीटी को लिखा कि समझौता करने से पहले उन्होंने अपने व्यावसायिक साझीदार का ड्यू डिलीजेंस किया था? क़रीब एक महीने तक तमाम रिमाइंडरों के बाद आईआईसीटी ने सफ़ाई भेजी कि 'उनके साथ लेन देन में अभी तक उस कंपनी ने कोई त्रुटि नहीं की है!'
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