एक दौर में भारत की महारत्न कंपनी रह चुकी भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) बीमार है। इसी से अलग हुई महानगर टेलीफ़ोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल) भी बीमार है। सरकार पर निर्भर ग़रीब आदमी से लेकर कंपनियाँ तक मृत्यु शैया पर पड़ी हैं। इन सरकारी कंपनियों के पास बड़ी मात्रा में ज़मीन है और अब यह कहा जाने लगा है कि ज़मीन बेचे बग़ैर इन कंपनियों का उद्धार नहीं होने वाला है।
हालाँकि केंद्रीय दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि सरकार बीएसएनएल और एमटीएनएल की स्थिति को बेहतर बनाने के पूरे प्रयास कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि बीएसएनएल और एमटीएनएल का बेहतर होना देशहित में है तथा सरकार इसे लेकर गंभीर है। उन्होंने कहा कि सरकार इसके लिए रिवाइवल प्लान तैयार कर रही है।
बीएसएनएल की बीमारी का इतिहास अटल बिहारी वाजपेयी के शासन वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार तक जाता है। उस समय संचार मंत्री हुआ करते थे प्रमोद महाजन। महाजन पर संचार घोटाले का आरोप लगा और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। उनके ऊपर रिलायंस इंडस्ट्रीज को लाभ पहुँचाने के आरोप लगे थे। यह वह दौर था, जब तमाम निजी कंपनियाँ बहुत तेज़ी से फलीं-फूलीं।
बहरहाल उसके बाद संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार आई। बीएसएनएल और एमटीएनएल की हालत बहुत बेहतर तो नहीं हुई, लेकिन स्थिति ऐसी बनी रही कि लोग इन कंपनियों के मोबाइल, लैंडलाइन कनेक्शन और इंटरनेट कनेक्शन पर भरोसा करते रहे। इनके नेटवर्क दूर-दराज के ग्रामीण इलाक़ों, पहाड़ों, दुर्जन क्षेत्रों में कनेक्टिविटी देते थे और वहाँ एमटीएनएल-बीएसएनएल के सिम कार्ड भी बिकते थे और तमाम लोग मूल कनेक्शन इन कंपनियों का रखते थे और उसके साथ किसी निजी कंपनी का भी एक नंबर रखते थे।
2019 आते-आते बीएसएनएल और एमटीएनएल की हालत ख़राब हो गई। इतनी ख़राब कि इन कंपनियों के इतिहास में पहली बार कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं मिला।
दाँव पर है कर्मचारियों की नौकरी
उद्योग जगत के आंकड़ों के मुताबिक़, इस समय एमटीएनएल पर 20,000 करोड़ रुपये और बीएसएनएल पर 13,500 करोड़ रुपये कर्ज है। इस समय बीएसएनएल भारी घाटे, वेतन भुगतान में देरी, बड़ी संख्या में कर्मचारियों की कमी व 4-जी स्पेक्ट्रम न होने के संकट से जूझ रही है। एमटीएनएल में 22,000 और बीएसएनएल में 1,76,000 कर्मचारी हैं, जिनकी नौकरियाँ दाँव पर हैं।
चुनाव के दौरान जब इन कंपनियों के कर्मचारियों का वेतन रुका तो सरकार ने मदद कर उस समय मामले को दबा दिया। दोनों कंपनियों की माँग के आधार पर केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया है कि दोनों बीमार कंपनियों को जल्द ही पुनरुद्धार पैकेज दिया जाएगा। बीएसएनएल ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) के लिए 6,365 करोड़ रुपये और 4-जी स्पेक्ट्रम के आवंटन की इक्विटी के लिए 6,767 करोड़ रुपये की माँग की है। एमटीएनएल के मामले में वीआरएस पैकेज के लिए 2,120 करोड़ रुपये की ज़रूरत पड़ सकती है।
बीएसएनएल का नेटवर्क देशव्यापी होने की वजह से इसकी टीम में भारी-भरकम कर्मचारियों की फ़ौज़ है और इसमें से आधे कर्मचारी 5 से 7 साल में सेवानिवृत्त होने वाले हैं। कंपनी की हालत यह हो गई है कि मौजूदा कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं, आगे के विस्तार या नई भर्तियों की तो कोई गुंजाइश ही नहीं बची है।बीएसएनएल अन्य सरकारी नवरत्न कंपनियों की ही तरह है। जब तक इनका प्रबंधन सही तरीके़ से चला है, कभी कर्मचारियों को वेतन देने के लाले नहीं पड़े थे। शिमला से लेकर मसूरी और दक्षिण भारत के हिल स्टेशन से लेकर बड़े और छोटे महानगरों में इन कंपनियों के आईक्यू बने हैं, जिनमें होटलों जैसी व्यवस्था है। इनका इस्तेमाल किसी सरकारी काम से जाने वाले कर्मचारियों के लिए होता रहा है। यह सब उस समय के बने हुए हैं, जब बीएसएनएल फायदे में होती थी।
नेटवर्क विस्तार और कार्यालय बनाने के लिए हर राज्य सरकार ने बीएसएनएल को प्राइम लोकेशन पर बड़े-बड़े भूखंड आवंटित किए हुए हैं। अब इन ज़मीन के टुकड़ों पर नज़र लग गई है।
ऐसा नहीं है कि बीएसएनएल ही कर्ज में डूबी हुई है। इस समय दूरसंचार क्षेत्र पर 6.1 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। इसकी तुलना में बीएसएनएल और एमटीएनएल का कर्ज कुछ भी नहीं है। देश की ज़्यादातर निजी टेलीकॉम कंपनियाँ कर्ज में डूबी हुई हैं। इसके चलते सरकार को पिछले कुछ साल से 4-जी स्पेक्ट्रम की नीलामी लगातार टालनी पड़ रही है।
सरकारी कंपनी को डुबाने से पहले उसके कर्मचारियों पर आरोप लगने शुरू होते हैं कि वे काम नहीं करते। हालाँकि यह हक़ीक़त से परे नज़र आता है। सरकारी कंपनियों को कुप्रबंधन का शिकार बनाकर लूटने से पहले, वे निजी क्षेत्र की किसी कंपनी को टक्कर देने में सक्षम होती हैं। पेट्रोलियम, बिजली आदि क्षेत्रों की नवरत्न कंपनियाँ इसका उदाहरण हैं, जो सरकार को मोटा मुनाफ़ा दे रही हैं। लेकिन जो कंपनियाँ सरकारी कुपोषण का शिकार हो जाती हैं, उनकी ज़मीन पर सरकार की नज़र गड़ जाती है और उन्हें बर्बाद होते देर नहीं लगती।
5-6 साल पहले बीएसएनएल से उतनी दिक़्क़त नहीं थी और बड़ी संख्या में लोग इसके सिम और इंटरनेट का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब एमटीएनएल और बीएसएनएल का सिम कहाँ मिलता है, निजी कंपनियों के सिम की तुलना में यह खोजना मुश्किल हो गया है।
फिलहाल सरकार बीएसएनएल और एमटीएनएल को बचाने के लिए दीर्घकालीन रणनीति बनाने में जुटी है। रणनीति तो नहीं बन पा रही है, लेकिन सरकार कवायद कर रही है कि बैंक बीएसएनएल के लिए 2,500 करोड़ रुपये का कर्ज दे दें, जिससे कर्ज के ब्याज और कर्मचारियों के वेतन का भुगतान कम से कम अगले 6 महीने तक होता रहे। इस कर्ज से कंपनी को परिचालन व्यय जैसे वेतन, बिल भुगतान, वेंडरों के भुगतान आदि जुटाने में मदद मिलेगी।
आसान नहीं है ज़मीन बेचना
कंपनी की ज़मीन बेचे जाने में भी गंभीर समस्या है। ज़्यादातर ज़मीन राज्य सरकारों ने आवंटित की है। अगर कंपनी ज़मीन बेचना चाहती है तो उसे संबंधित राज्य सरकारों से अनुमति लेनी पड़ेगी, जिन्होंने अपने राज्य मे बेहतर और सस्ती सेवाएँ देने के लिए बीएसएनएल को ज़मीन दी थी। इसके अलावा बीएसएनएल को बंद करने में भी मुसीबत है क्योंकि यह कंपनी न सिर्फ़ सामरिक हिसाब से अहम है, बल्कि ग्रामीण इलाक़ों, दुर्गम क्षेत्रों में जहाँ निजी कंपनियाँ पाँव भी रखना पसंद नहीं करती हैं, वहाँ भी बीएसएनएल सेवाएँ दे रही है।
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