विश्वविद्यालयों में दलित, पिछड़े और आदिवासियों के आरक्षण के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद अब नया संकट खड़ा हो गया है। अब शायद किसी विश्वविद्यालय में उपलब्ध कुल पदों के अनुसार सीटें आरक्षित नहीं होंगी। इसका असर दिल्ली विश्वविद्यालय और इससे जुड़े कॉलेजों के क़रीब 2000 आरक्षित वर्गों के असिसटेंट प्रफ़ेसर पर पड़ेगा। इनकी एड-हॉक नियुक्तियाँ हुई थीं यानी वे स्थाई नहीं थे। इन एड-हॉक असिसटेंट प्रफ़ेसर की नियुक्तियाँ हर 4 महीने पर की जानी होती है। और अब जो नियुक्तियाँ होंगी वे यूजीसी के आरक्षण से जुड़े नए नियम के तहत होंगी। इसमें यह आशंका है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दलितों, पिछड़ों और आदिवासी तबक़ों के लिए कोटा प्रणाली के तहत आरक्षित शिक्षण पदों को लगभग समाप्त कर दिया जाएगा।
यह आशंका उस फ़ैसले के कारण है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यूजीसी के आरक्षण से जुड़े मामले पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के फ़ैसले को सही क़रार दिया है। तब हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में यूजीसी के 5 मार्च 2018 के आदेश को सही बताया था। उस आदेश में यूजीसी ने नियुक्तियों में आरक्षण को लेकर मोटे तौर पर दो बड़े बदलाव किए हैं।
- 13 प्वाइंट वाली रोस्टर व्यवस्था। पहले 200 प्वाइंट वाली रोस्टर व्यवस्था थी।
- विभाग या विषय के स्तर पर आरक्षण। पहले विश्वविद्यालय के स्तर पर होता था।
अब जैसे ही यूजीसी का नया 13 प्वाइंट वाला रोस्टर सिस्टम लागू होगा, इन वर्गों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा और ये सड़क पर होंगे। यह कैसे होगा, इसको समझने के लिए पहले रोस्टर प्रणाली को समझें।
200 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली विश्वविद्यालय स्तर पर
रोस्टर आरक्षण व्यवस्था में यह तय होता है कि कौन से पद किस श्रेणी में रखे जाएँगे। 200 प्वाइंट रोस्टर का अर्थ है कि 200 पद तक रोस्टर क्रमवार चलेगा, उसके बाद फिर 1 से शुरू होकर 200 पद तक जाएगा। इसमें आरक्षण प्रावधान के अनुपात में पद तय होते हैं; जैसे-सामान्य या अनारक्षित - 50.5%, ओबीसी -27%, एससी -15%, एसटी-7.5। इसी अनुपात में पद भी तय होते हैं।
200 प्वाइंट में पद कैसे तय होते हैं? इसमें सबसे पहले विश्वविद्यालय को इकाई माना जाता है। उस विश्वविद्यालय के सभी विषयों को A से Z तक के सभी पदों को एक साथ 200 तक जोड़ लिया जाता है। तो क्रम के अनुसार पहले 4 पद सामान्य, फिर ओबीसी, फिर एससी/एसटी इत्यादि के लिए पद होंगे। इस व्यवस्था में सामान्य पदों की जगह आरक्षित पदों से भी नियुक्तियों की शुरुआत हो सकती है। और अगर किसी श्रेणी में नियुक्ति नहीं होती है तो उस पद को बाद में, बैकलॉग के आधार पर भरा जा सकता है। इस हिसाब से 200 प्वाइंट रोस्टर फ़ॉर्मूले में क्रम वार सभी तबक़ों के लिए पद 200 नम्बर तक तय हो जाते हैं। लेकिन 13 प्वाइंट रोस्टर में ऐसा नहीं है।
13 प्वाइंट रोस्टर विभाग/विषय स्तर पर
13 प्वाइंट रोस्टर के तहत नियुक्तियाँ विभाग/विषय स्तर पर होंगी। इसमें 14 पदों के बाद दुबारा एक नम्बर से रोस्टर शुरू होगा। इसमें सबसे पहले 3 पद अनारक्षित होंगे। उसके बाद चौथा पद ओबीसी होगा। फिर 5 और 6 नम्बर का पद अनारक्षित है। 7 नम्बर का पद दलित य़ानी एससी का है। 8वां पद ओबीसी का है। 9, 10 और 11 नंबर का पद अनारक्षित है। 12 नम्बर का पद ओबीसी का है। 13वाँ पर फिर अनारक्षित हो जाएगा। लेकिन देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में 14 सीटें कभी भी नहीं आएँगी। जब भी विभाग में पद ज्ञापित होगा तो 1 या 3 या 4 या 6 पद ही ज्ञापित होंगे। ऐसे में 14वें नम्बर का पद आदिवासी यानी एसटी के लिए रिज़र्व होना चाहिए, जो आएगा ही नहीं, क्योंकि 13 पदों के बाद फिर 1 नम्बर से गिनती शुरू हो जाएगी।
दलित-पिछड़ों-आदिवासियों की बारी नहीं आएगी
विषयवार नियुक्तियाँ करने में एक दिक्कत है। चूँकि किसी भी विषय में एक, दो, तीन से अधिक पद नहीं होते हैं, इससे हर बार सामान्य वर्ग के उम्मीदवार की ही नियुक्ति होगी।
ऐसे में दलित-पिछड़ों-आदिवासियों का नंबर ही नहीं आएगा। चूँकि बैकलॉग का प्रावधान नहीं है तो हर बार नियुक्ति सामान्य वर्ग से ही होगी। इससे आरक्षण की मूल भावना और प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का हनन होता है। सामाजिक न्याय प्राप्त करने की दिशा में यह एक बड़ा रोड़ा है। इसलिए विषयवार या विभागवार नियुक्तियों की जगह कॉलेजों और विश्वविद्यालय को इकाई मानते हुए व्यवस्था को लागू किया जाना चाहिए।
13 प्वाइंट रोस्टर का असर
- एक, विभाग को इकाई मानने पर कभी भी एक साथ 14 पद नहीं आएँगे। आदिवासी तबक़ों यानी एसटी को एक पद भी नहीं मिल पाएगा। जवाहर लाल विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कितने ऐसे विभाग हैं जिसमें मात्र एक या दो या तीन प्रफ़ेसर ही विभाग को संचालित करते हैं। वहाँ कभी भी आरक्षित वर्गों की नियुक्ति हो ही नहीं सकती है।
- दो, विभागों में पदों की भर्ती के लिए सामान्य रूप से 1 या 2 या 3 पद ही निकलते हैं। ऐसे में आदिवासी तबक़े को कुछ नहीं मिलता और फिर दलित और पिछड़ा तबक़े हाशिये पर आ जाते हैं।
केंद्र सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगों को 10 फ़ीसदी आरक्षण देने का फ़ैसला किया है। सरकार भले ही उनके उत्थान का दावा कर रही हो, लेकिन दलितों को मिले आरक्षण से उनकी भागीदारी बहुत ज़्यादा नहीं बढ़ पाई है। कम से कम आँकड़े यही बताते हैं।
हाल ही में एक अंग्रेजी अख़बार को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी में इन सवालों के जवाब सामने आए।
95.2 फ़ीसद सवर्ण प्रफ़ेसर
बता दें कि देश में कुल 40 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं, जिसमें कुल पढ़ाने वाले 11,486 लोग हैं। इनमें 1,125 प्रफ़ेसर हैं और इनमें दलित प्रफ़ेसर 39 यानी 3.47 फ़ीसद जो कि 15 फ़ीसदी होने चाहिए थे। आदिवासी प्रफ़ेसर सिर्फ़ 6 यानी 0.7 फ़ीसद जो कि 7.5 फ़ीसद होने चाहिए थे। पिछड़े प्रफ़ेसर 0 जो 27 फ़ीसद होने चाहिए थे। जबकि सवर्ण प्रफ़ेसर 1071 यानी 95.2 फ़ीसद है जो हर हाल में 50 फ़ीसद से अधिक नहीं होने चाहिये।
92.9 फ़ीसदी सवर्ण असोसिएट प्रफ़ेसर
अगर असोसिएट प्रफ़ेसर की बात करें तो 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में असोसिएट प्रफ़ेसर की हालत और भी ख़राब है। 40 संस्थानों में कुल 2620 असोसिएट प्रफ़ेसर हैं। इसमें 130 यानी 4.96 फ़ीसदी दलित प्रफ़ेसर जो कि 393 होने चाहिए थे, 34 यानी 1.3 फ़ीसदी आदिवासी प्रफ़ेसर जो 197 होने चाहिए थे। इसके उलट कुल 3434 यानी 92.9 फ़ीसदी सवर्ण असोसिएट प्रफ़ेसर जो 50 फ़ीसदी से ज्यादा हैं। पूरे देश में एक भी पिछड़े वर्ग का असोसिएट प्रफ़ेसर नहीं है।
66.27 फ़ीसदी सवर्ण असिस्टेंट प्रफ़ेसर
वहीं देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालय में 7741 असिसटेंट प्रफ़ेसर हैं। इसमें 12.2 फ़ीसदी दलित असिसटेंट प्रफ़ेसर, 5.46 फ़ीसदी आदिवासी असिसटेंट प्रफ़ेसर, 14.38 फ़ीसदी पिछड़े वर्ग के असिसटेंट प्रफ़ेसर होने चाहिये। इसके विपरीत 66.27 फ़ीसदी सवर्ण असिसटेंट प्रफ़ेसर हैं।
ऐसी स्थिति में क्या समाज के पिछड़े वर्ग, एससी, एसटी के साथ संवैधानिक न्याय और सामाजिक न्याय नहीं मिलना चाहिए?
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