केंद्र सरकार द्वारा पेश किए गए 3 कृषि विधेयकों को लेकर पंजाब, हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में उबाल है। इन इलाकों को भारत के अनाज का कटोरा कहा जाता है। हरित क्रांति के समय से ही यहां बहुत शानदार मंडियां स्थापित हैं।
सरकार की ओर से तय न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर सबसे ज्यादा खरीद इन्हीं इलाकों से होती है। इसकी वजह से इन राज्यों के किसानों की आमदनी देश के अन्य इलाकों के किसानों की तुलना में औसतन बेहतर रही है। वहीं, जिन राज्यों ने आढ़तियों से इतर सीधी बिक्री के इंतजाम किए हैं, उनके प्रयोग सफल साबित नहीं हुए हैं।
आढ़तियों को लेकर ग़लत प्रचार
यह प्रचारित किया जा रहा है कि आढ़तियों व राज्यों के कर से किसानों का शोषण हो रहा है। लेकिन आंकड़े बताते हैं कि पंजाब और हरियाणा में सबसे ज्यादा आढ़तिये हैं और इन्हीं दो राज्यों में खरीद व मंडियों पर सबसे ज्यादा कर लगता है, इसके बावजूद पंजाब व हरियाणा के किसानों की औसत आमदनी अन्य राज्यों के किसानों की तुलना में बेहतर है।
अब इन राज्यों के किसानों को डर है कि नए कानून से एमएसपी और खरीद की मौजूदा व्यवस्था खत्म हो जाएगी।
सरकारी खरीद को लेकर डर
यह भी डर है कि अगर भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) मंडियों के बाहर से खरीदारी करता है तो धीरे-धीरे खरीद की व्यवस्था राज्य से बाहर चली जाएगी, जो इन राज्यों में हरित क्रांति के दौर से ही खेती की रीढ़ रही है।
2019-20 विपणन सत्र में पंजाब और हरियाणा से केंद्रीय पूल में हुए 347.7 लाख टन गेहूं की खरीद में से 65 प्रतिशत से ज्यादा खरीद पंजाब और हरियाणा से हुई है। वहीं, धान की कुल 443.9 लाख टन खरीद में से इन राज्यों की हिस्सेदारी 34.3 प्रतिशत है। विभिन्न आयोगों की रिपोर्ट भी किसानों को डरा रही है कि सरकार एमएसपी पर खरीद घटा सकती है, इनकी रिपोर्ट के मुताबिक़ ही इन तीनों कानूनों को लागू किया गया है।
क्या सचमुच मंडियों में शोषण है?
कृषि विधेयकों का समर्थन करने वालों और केंद्र सरकार का एक तर्क यह है कि मंडियां शोषण के अड्डे हैं। मंडी में जो उत्पाद बिकते हैं, उन्हें आढ़तिये किसानों से खरीदते हैं। आढ़तिये उसके लिए एक निश्चित शुल्क लेते हैं और इसका बोझ किसानों पर पड़ता है। उसके बाद आढ़तियों से एफसीआई अनाज खरीदता है। दरअसल, इन राज्यों में अनाज खरीद की एक व्यवस्था बनी हुई है, जिसके तहत खरीद-बिक्री की प्रक्रिया में बड़ी संख्या में लोग लगे हुए हैं।
पंजाब में ही करीब 50,000 ब्रोकर/कमीशन एजेंट हैं, जबकि 8 लाख श्रमिक इस काम में लगे हैं। छोटे किसानों के लिए यह संभव नहीं होता कि वे समय और श्रम खर्च कर अपने उत्पाद मंडी तक या एफसीआई तक पहुंचा सकें। ऐसे में आढ़तिये यह भूमिका निभाते हैं।
सरकार आढ़तियों को खलनायक के रूप में पेश कर रही है। जबकि हकीकत यह है कि पंजाब और हरियाणा में बिक्री व्यवस्था की रीढ़ आढ़तिये ही हैं।
बिचौलियों की भूमिका समझें
खरीद की प्रणाली चाहे जो हो, उसके लिए मानव संसाधन का एक तंत्र बनाना होता है। अगर मुंबई का कोई उद्योगपति भी खरीददारी करता है तो उसे भी अपने एजेंट लगाने होंगे, जो किसानों से अनाज खरीदेंगे। न तो उद्योगपति किसान तक 5 क्विंटल गेहूं खरीदने जा सकता है और न ही किसान अपना 5 क्विंटल गेहूं बेचने मुंबई के उद्योगपति के पास जा सकता है। ऐसे में बिचौलिये तो रहेंगे ही।
किसानों का भुगतान फंसेगा?
जब खरीद प्रक्रिया में मंडी समितियां और एफसीआई शामिल रहती है तो किसानों को सरकार का भरोसा होता है। खरीददार किसानों की हालत के मुताबिक़ मोलभाव नहीं कर सकता और आढ़तियों को एक निश्चित कमीशन पर काम करना होता है और एमएसपी पर गेहूं या धान बिक जाता है। अगर कोई उद्योगपति अपने भंडारण करने व महंगा होने पर गेहूं चावल बाजार में उतारने के लिए अनाज खरीदता है तो उसके ऊपर एमएसपी का दबाव या एमएसपी के हिसाब से भाव देने की बाध्यता नहीं होगी। वह औने-पौने भाव में अनाज खरीद सकेगा, किसानों का भुगतान फंसा सकेगा।
गन्ना खरीद के मामले में सरकारी दबाव व उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) के बावजूद किसानों का भुगतान फंसा रहता है। अनाज के मामले में तो न्यूनतम समर्थन मूल्य के हिसाब से भुगतान की भी बाध्यता नहीं रखी गई है।
किसानों की समस्याओं पर सुनिए, वरिष्ठ पत्रकार शैलेश और किसान नेता वीएम सिंह की चर्चा।
मंडी से राज्यों को आमदनी
अनाज का खरीद मूल्य तय करने वाले मुख्य निकाय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट के मुताबिक़ 2019-20 में गेहूं पर वैधानिक कर (मंडी कर, एपीएमसी उपकर और आढ़तिया कमीशन) पंजाब और हरियाणा में क्रमशः 5.5 प्रतिशत और 4.5 प्रतिशत के बीच रहा है। वहीं, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश में तुलनात्मक रूप से कम 2.5 और 2 प्रतिशत रहा। इसके अलावा राज्य सरकारें ग्रामीण विकास और बुनियादी ढांचा विकास उपकर भी लगाती हैं।
सीएसीपी की रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब में कुल कर करीब 8.5 प्रतिशत और हरियाणा में 6.5 प्रतिशत है। इससे पंजाब को सालाना 4,000 से 5,000 करोड़ रुपये और हरियाणा को 1,000 से 1,500 करोड़ रुपये की कमाई होती है।
केंद्र सरकार के नए कृषि विधेयकों का समर्थन कर रहे लोगों का कहना है कि इससे राज्य सरकारों को नुकसान होगा, इसलिए राज्य विरोध कर रहे हैं। वहीं, हकीकत यह है कि इतने करों के बावजूद देश में तुलनात्मक रूप से सबसे ज्यादा सुखी किसान पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के हैं।
इसकी वजह यह है कि राज्य सरकार पर किसानों के हित में कदम उठाने का दबाव होता है और राज्य इस खरीद पर अपनी तरफ से एमएसपी से इतर बोनस देते हैं। इससे किसान फसल का उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने को प्रोत्साहित होते हैं। इन राज्य सरकारों के सालाना बजट और किसानों को दी जा रही सुविधाओं को देखते हुए मंडी कर से वसूली बहुत मामूली नजर आती है। ऐसे में यह कहने का कोई मतलब नहीं रह जाता है कि राज्य सरकारों को कोरोना की आर्थिक तंगी में यह शुल्क गंवाने का डर है।
कोरोना को देखते हुए विवेकहीन तरीके से किए गए लॉकडाउन से जो समस्याएं उपजी हैं, वे अस्थायी समस्याएं हैं। मंडी व्यवस्था को बर्बाद करना एक स्थायी समस्या है। पंजाब व हरियाणा में सबसे ज्यादा आढ़तिये, कमीशन एजेंट हैं। इन्हीं दो राज्यों में मंडियों पर सबसे ज्यादा कर लगता है। उसके बावजूद सरकार के आंकड़े कहते हैं कि पंजाब में किसानों की मासिक आमदनी देश में सबसे ज्यादा 13,311 रुपये है, जबकि हरियाणा में 10,637 रुपये है। वहीं, बिहार में 2006 में एपीएमसी एक्ट खत्म किए जाने के बाद कृषि विपणन समितियां और मार्केटिंग बोर्ड को भंग कर दिया गया, लेकिन राज्य में किसानों की मासिक आमदनी 5,485 रुपये ही है।
मंडियां ख़त्म होने से होगी मुश्किल?
देश में नियमन के दायरे में आने वाले 7,000 बाजार हैं और 22,000 से ज्यादा मार्केटयार्ड हैं। इन बाजारों के माध्यम से किसानों को भाव का पता रहता है और ये बाजार गैर एमएसपी वाले कृषि उत्पादों के भाव तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इनकी वजह से किसानों को दरों की जानकारी मिलती रहती है। अगर इन मंडियों को नष्ट किया जाता है तो किसानों की यह शंका नाजायज नहीं है कि खरीद प्रक्रिया में मनमानी चलेगी और सबसे ज्यादा नुकसान उन किसानों को उठाना पड़ेगा, जो छोटी जोत के हैं और कम अनाज बेचते हैं।
जिन राज्यों ने आढ़तियों से इतर किसानों के सीधे माल बेचने की व्यवस्थाएं की हैं, वह व्यवस्थाएं अब तक विफल साबित हुई हैं। वहीं, पंजाब हरियाणा व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को अपना अनाज बेचने में ज्यादा समस्या नहीं होती है और उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुताबिक दाम भी तत्काल मिल जाते हैं।
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