कर्नाटक के कोलार जिले के नारासपुरा इलाके में स्थित ताइवान की कंपनी विस्ट्रॉन के परिसर में पिछले सप्ताह कर्मचारियों ने तोड़फोड़ की थी। इस मामले की शुरुआती जांच में यह सामने आ रहा है कि वेतन देने में कंपनी ने अनियमितता की है। नारासपुरा इलाका राज्य की राजधानी बेंगलुरु से 50 किलोमीटर दूर है।
ऐपल इंक की वैश्विक आपूर्तिकर्ता कंपनी विस्ट्रॉन ने पुलिस प्राथमिकी में आरोप लगाया कि ठेके के 5,000 से ज्यादा कर्मचारियों ने संपत्ति और उपकरणों को नष्ट कर दिया, जिसमें अनुमानित रूप से कंपनी को 6 करोड़ डॉलर (437 करोड़ रुपये) से ज्यादा का नुकसान हुआ। इससे कर्नाटक की बीएस येदियुरप्पा सरकार चिंतित हुई। पुलिस ने त्वरित कार्रवाई करते हुए 132 लोगों को गिरफ्तार कर लिया।
कोरोना काल में सरकार ने श्रम कानून में जो संशोधन किया है, उसके मुताबिक़ कंपनियां श्रमिकों से 12 घंटे काम करा सकती हैं। अन्य तमाम प्रावधान किए गए हैं, जो कर्मचारियों के सामान्य जीवन के अधिकार छीनने वाले हैं।
विस्ट्रॉन में भी 12 घंटे काम और ओवरटाइम का भुगतान न करने को लेकर बवाल मचा। रॉयटर्स की एक खबर के मुताबिक़, श्रम कार्यालय ने अपनी शुरुआती जांच में पाया है कि विस्ट्रॉन ने अपने उन कामगारों व स्टाफ की नियुक्ति व रोजगार का ब्योरा नहीं रखा है, जिन्होंने 12 घंटे काम किया। इन लोगों को ओवरटाइम का भुगतान भी नहीं किया गया।
दरअसल, इसमें कंपनी का दोष कम, भारत सरकार द्वारा कंपनियों को दिए गए असीमित और ऊल-जुलूल अधिकारों का दोष ज्यादा नजर आता है। कोरिया की कंपनी विस्ट्रॉन ऐपल आई-फोन के लिए कल पुर्जों की सप्लाई करती है। उद्योग जगत की भाषा में कहें तो वह ऐपल की वेंडर है।
सामान्यतया वेंडर से आशय रेलवे प्लेटफॉर्म पर चाय-बिस्किट बेचने वालों से निकाला जाता है, लेकिन उद्योग जगत के बड़े वेंडरों का कारोबार सामान्यतया 100 करोड़ रुपये से ऊपर का ही होता है। सरकार ने कंपनी को ठेके पर श्रमिक रखने और उनसे 12 घंटे काम कराने का अधिकार दे रखा है, इसकी वजह से इस वेंडर कंपनी ने ठेके पर कर्मचारी रखे। कर्मचारी की आपूर्ति करने वाली कंपनियां अलग हैं। विस्ट्रॉन के लिए क्रियेटिव इंजीनियर्स, क्वेस कॉर्प और एडेको इंडिया नाम की तीन कंपनियां कर्मचारियों की सप्लाई करती हैं।
किसी को कुछ पता नहीं
रॉयटर्स ने इस मामले में जानकारी चाही तो ऐपल कंपनी ने कोई जानकारी नहीं दी। स्वाभाविक है कि उसे पता भी नहीं होगा कि हिंसा क्यों हुई, क्योंकि उसकी वेंडर कंपनी के परिसर में हिंसा हुई है। विस्ट्रॉन ने भी कोई जानकारी नहीं दी, शायद उसे भी नहीं पता होगा कि उसने कर्मचारियों को पेमेंट करने के लिए वेंडरों को जो भुगतान किया, वह कर्मचारियों को मिला भी या नहीं। और कर्मचारियों की आपूर्ति करने वाली तीनों कंपनियों ने भी इस मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
अभी कर्मचारी उग्र हैं और जेलों में बंद हैं। स्वाभाविक है कि छोटे-मोटे आंदोलनों और खबरों से सरकार की छवि खराब हो रही है और संभव है कि वोटरों पर भी नकारात्मक असर पड़े। इसे देखते हुए अभी कर्मचारियों के पक्ष में कुछ रिपोर्टें आ सकती हैं। लेकिन इस मामले में कोई परिणाम निकलेगा, यह सोच पाना भी मुश्किल है।
विस्ट्रॉन और ऐपल दोनों कंपनियां विदेशी हैं, वे सामान्यतया अंतरराष्ट्रीय श्रम कानूनों का पालन करती हैं और जिस देश में जाती हैं, वहां के भी कानूनों का सम्मान करती हैं। ऐसे में इस मामले में अधिक से अधिक सकारात्मक बात यह हो सकती है कि दोनों कंपनियों की जांच में कर्मचारी आपूर्तिकर्ता कंपनियों की ओर से वेतन भुगतान में खामियां पाए जाने पर कर्मचारियों को भुगतान मिल सकता है, उन वेंडरों को हटाया जा सकता है। या यह भी संभव है कि साल-दो साल यह जांच आगे खिंचे, लोग मामले को भूल जाएं, जेल में बंद कंपनी कर्मचारियों के परिवार तबाह हो जाएं।
इससे अन्य फैक्ट्रियों और कॉर्पोरेट्स के कर्मचारियों को सीख मिल जाए कि कॉर्पोरेट जितना भी देता है, उसे भगवान का आशीर्वाद समझकर रख लेना है, वर्ना कंपनी से टकराने का अंजाम बहुत बुरा होता है।
ठेके पर कर्मचारियों को रखना
देश भर में कर्मचारी सप्लाई करने के वेंडर हैं। एक तरफ सरकार खेती-बाड़ी को कॉर्पोरेट से जोड़कर और मंडी/बिचौलिए खत्म कर किसानों को फसलों के उचित दाम दिलाने का दम भर रही है, वहीं कंपनियों के रोजगार में हर कदम पर दलाल बढ़ते जा रहे हैं। ठेके पर कर्मचारी रखना और अपनी शर्तों पर काम कराना, कॉस्ट टु कंपनी (सीटीसी) सामान्य प्रक्रिया है।
कंपनियों द्वारा कर्मचारी आपूर्ति की यह व्यवस्था अब निजी क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि सरकारी अस्पतालों व अन्य विभागों में बहुत तेजी से गार्ड, बिलिंग, सफाई आदि का काम करने वालों तक पहुंच चुकी है।
भारत में स्वतंत्रता के समय या कुछ कंपनियों में उसके पहले भी, निजी क्षेत्र में शुरू से अंत तक फैक्ट्री परिसर में काम करने वाले उसी कंपनी के कर्मचारी होते थे। इतना ही नहीं, बड़े संयंत्रों में कर्मचारियों के क्वार्टर होते थे। अब सरकारों ने यह हालत कर दी है कि कर्मचारियों को ये सुविधा मिलना तो दूर, कौन सी कंपनी का ब्रांड/उत्पाद है, कौन सी कंपनी माल तैयार कर रही है, कौन सी कंपनी मजदूरों की आपूर्ति कर रही है, कौन सी कंपनी सिक्योरिटी गार्ड सप्लाई कर रही है, कौन सी कंपनी फैक्ट्री में कैंटीन चलाने वाले कर्मचारियों की आपूर्ति कर रही है, उसका बही खाता मेंटेन करना मुश्किल होता है।
वेतन भुगतान न होने, ओवरटाइम भुगतान न होने के मामलों में यह पता लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि किस कंपनी के स्तर पर समस्या खड़ी हुई है। कंपनियों के कर्मचारी इतने हिस्सों में तोड़े गए हैं कि उनका एकजुट हो पाना संभव न हो सके और न कर्मचारियों में एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति पैदा होने पाए।
सरकारें कॉर्पोरेट के साथ!
कंपनियों को इतनी सहूलियतें देने के बाद भी सरकारें कॉर्पोरेट के पक्ष में खड़ी हैं। सरकार को यह चिंता है कि ऐसी हिंसा से विनिर्माण और निवेश रुक जाएगा। विस्ट्रान फैक्ट्री में हुई अशांति से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करीब 5 दिन बाद चिंतित हुए। लेकिन उनकी भी चिंता संभवतः कर्मचारियों को लेकर नहीं, फैक्ट्री मालिकों को लेकर ज्यादा थी। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का वह बयान इसकी तस्दीक करता है, जिसमें जिन्होंने प्रधानमंत्री के चिंतित होने का खुलासा किया।
प्रधानमंत्री की चिंता और उसके बाद हुई कार्रवाई की जानकारी देते हुए येदियुरप्पा ने कहा, “हमने कार्रवाई की है। यह विदेशी कंपनियों के लिए बहुत अहम है और ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री भी इस मामले को लेकर बहुत चिंतित हैं।”
कुल मिलाकर 12 घंटे काम करने वाले कर्मचारियों की किसी को कोई चिंता नहीं है। असल चिंता यह है ही नहीं कि आम नागरिक किस तरह सुखमय जीवन जिए, चिंता की बात यह हो गई है कि कॉर्पोरेट्स/कंपनियां न नाराज होने पाएं।
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