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भारत-चीन सीमा विवाद बढ़ने पर दिल्ली का साथ क्यों नहीं देगा अमेरिका? 

भारत-चीन में बढ़ते तनाव के बीच जब अमेरिका ने एक के बाद एक बयान देकर यह संकेत दिया था कि दो पड़ोसियों में युद्ध होने की स्थिति में वह भारत का साथ देगा, तो कुछ लोगों ने इस पर शक किया था। क्या वाकई? यह सवाल भारत-चीन-अमेरिका के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण है। इस सवाल के जवाब में पूरी दक्षिण एशिया की तसवीर तो छिपी हुई है ही, रणनीतिक-भौगोलिक समीकरण का हल भी है।

ट्रंप की पहल

लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों के जमावड़ा शुरू होने के तुरन्त बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता करने की पेशकश की थी। इसे भारत और चीन ने अलग-अलग तरीके से नकार दिया और कहा कि हम आपसी बातचीत से सुलझा लेंगे।
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लगभग इसी समय अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेज़ेन्टेटिव्स के विदेश मामलों की समिति ने एक प्रस्ताव पारित कर चीन को 'आक्रामक' क़रार दिया था। उसने बीजिंग से सेना तुरन्त वापस बुलाने की माँग भी कर दी थी।

'भारत को चीन से ख़तरा है'

इसके कुछ दिनों बाद ही अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ ने यूरोपीय संघ के एक वर्चुअल सम्मेलन में कहा कि उनका देश कुछ सैनिकों को यूरोप से हटा कर दक्षिण पूर्व एशिया में तैनात करेगा। उन्होंने इसका कारण बताते हुए कहा था कि 'भारत को चीन से ख़तरा है।'
इन्ही पॉम्पिओ ने 59 चीनी ऐप्स को भारत में प्रतिबंधित करने के फ़ैसले का स्वागत करते हुए कहा था कि 'इससे भारत की संप्रुभता मजबूत हुई है।'

चीन सागर में अमेरिकी बेड़ा

इसके बाद ही अमेरिका ने अपने दो विमान वाहक पोत (एअरक्राफ़्ट कैरिअर) यूएसएस निमिज़ और यूएसएस रोनल्ड रेगन को युद्ध अभ्यास के लिए दक्षिण चीन सागर भेज दिया। दक्षिण चीन सागर यानी चीन की जल सीमा से सिर्फ कुछ नॉटिकल माइल्स की दूरी पर दो विमान वाहक पोत तैनात थे। चीन ने इस पर तमतमा कर अमेरिका को चेतावनी दे डाली।
चीनी सरकार के अख़बार 'ग्लोबल टाइम्स' ने अपने संपादकीय में कहा कि चीन के पास विमानवाहक पोत ध्वस्त करने वाली मिसाइलें हैं और ये अमेरिकी विमानवाहक पोत इस इलाक़े में 'चीनी नौसेना के रहमोकरम' पर हैं।

किसका साथ देगा अमेरिका?

तो क्या इसका अर्थ यह निकाल लिया जाए कि भारत-चीन युद्ध होने पर अमेरिका दिल्ली का साथ देगा?
विश्व राजनीति में चीजें इतनी आसान नहीं होती हैं। इसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन के बयान से समझा सकता है। उन्होंने इस पर गहरी शंका जताई। बोल्टन ने साफ़ संकेत दिया है कि अमेरिका अपने व्यापारिक हितों की रक्षा करने के लिए चीन-भारत विवाद में भारत का साथ नहीं देगा।

क्या कहा जॉन बॉल्टन ने?

उन्होंने भारतीय टेलीविज़न चैनल वियॉन (वर्ल्ड इज़ वन न्यूज़) को दिए एक ख़ास इंटरव्यू में कहा, 'मुझे नहीं पता कि वह (डोनल्ड ट्रंप) किस ओर मुड़ेंगे और शायद उन्हें भी नहीं पता है। मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ट्रंप चीन के साथ अपने भौगोलिक-रणनीतिक रिश्ते पर व्यापार के नज़रिए से ध्यान देंगे।'
जॉन बॉल्टन के कहने का साफ़ अर्थ यह है कि चीन के साथ व्यापारिक हित जुड़े होने के कारण अमेरिका बीजिंग का साथ देगा, भारत का नहीं।
जब इस मुद्दे को कुरेदा गया और उनसे पूछ गया कि भारत-चीन युद्ध की स्थिति में इसकी गारंटी नहीं है कि अमेरिका भारत का साथ देगा, उन्होंने कहा, 'बिल्कुल सही।'

भारत से आगे चीन

वजह बहुत ही साफ़ है। चीन अमेरिका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, उसकी तुलना भारत से नहीं की जा सकती है।
इसे हम आँकड़ों से समझने की कोशिश करते हैं। चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ कस्टम्स के अनुसार, 2019 में अमेरिका ने चीन को 122.70 अरब डॉलर का माल निर्यात किया। लेकिन यह तो कम है। इसके एक साल पहले यानी 2019 में अमेरिका ने चीन को 155.10 अरब डॉलर का माल निर्यात किया था।
हांगकांग से प्रकाशित होने वाले अख़बार साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के मुताबिक़, 
चीन अमेरिका से 75 अरब डॉलर का मैन्युफैक्चर्ड सामान, 50 अरब डॉलर का ईंधन, 40 अरब डॉलर के कृषि उत्पाद और 35 से 40 अरब डॉलर की सेवाएं लेगा। चीन 2020 में कुल मिला कर 165 अरब डॉलर का आयात अमेरिका से करने पर राजी हो गया है।
अब एक नज़र भारत-चीन व्यापार पर डालते हैं। भारत ने 2019 में चीन से 74.72 अरब डॉलर का सामान आयात किया। इसके एक साल पहले यानी 2018 में उसने चीन से 76.87 अरब डॉलर का आयात किया।

चीनी पूंजी

एक नज़र डालते हैं पूंजी निवेश पर। मशहूर अमेरिकी पत्रिका फ़ोर्ब्स के अनुसार, चीन ने अमेरिका में 2019 में 13 अरब डॉलर का निवेश किया है। इस साल यानी 2020 की पहली छमाही में 6.8 अरब डॉलर का निवेश कर चुका है। और यह निवेश कोरोना महामारी और उस वजह से हो रही आर्थिक बदहाली के बावजूद हुआ है। ये आँकड़े प्रत्यक्ष विदेश निवेश (एफ़डीआई) के हैं।
भारतीय उद्योगपतियों ने 2019 में अमेरिका में 2.69 अरब डॉलर का प्रत्यक्ष निवेश किया है।
भविष्य में चीन में अमेरिका की दिलचस्पी और बढ़ेगी, यह तय है। इसकी वजह यह है कि चीन अभी भी सरप्लस इकॉनमी है। उसके पास पूंजी है, वह उस पैसे को जहां-तहां निवेश कर रहा है। लातिन अमेरिका, एशिया ही नहीं अफ्रीका तक में चीन निवेश बड़े पैमाने पर हो चुका है और हो रहा है।
ऐसे में चीन अमेरिकी बाज़ार में भी निवेश कर सकता है। इसके अलावा चूंकि उसकी अपनी अर्थव्यवस्था उपभोक्ता आधारित हो चुकी है और उसका बहुत बड़ा बाज़ार है, लोगों की क्रय क्षमता भी बहुत अधिक है, लिहाज़ा चीन अमेरिका से बहुत बड़ी मात्रा में माल खरीद सकता है।
व्यापारिक नफ़ा-नुक़सान के लिहाज़ से चीन और भारत की तुलना नहीं है और निश्चित तौर पर अमेरिका को फ़ायदा चीन के साथ रहने में ही है। ऐसे में जॉन बॉल्टन के कहे का अर्थ निकाला जा सकता है। 
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प्रमोद मल्लिक
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