सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर चर्चा 40 साल बाद
सुरक्षा परिषद में कश्मीर का मसला लगभग 40 साल बाद उठेगा। पिछली बार यह मुद्दा 1971 के बाँग्लादेश युद्ध के बाद उठा था। सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 370 में मुख्य रूप से भारत और पाकिस्तान को युद्ध रोकने, युद्धविराम पर हस्ताक्षर करने, युद्धबंदियों की अदला-बदली करने और शरणार्थिंयों के अपने घर लौटने और उस लायक स्थिति तैयार करने को कहा गया था।संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव संख्या 370 में कश्मीर की स्थिति पर चिंता जताई गई थी और दोनों देशों से कहा गया था कि वे ऐसा कुछ न करें, जिससे स्थिति और बिगड़े। लेकिन इसका मुख्य फ़ोकस कश्मीर पर नहीं था, बाँग्लादेश युद्ध पर था।
यह प्रस्ताव एक तरह से पाकिस्तान को किसी तरह युद्ध से बाहर निकालने और भारत को युद्धविराम पर राजी कराने के लिए दबाव डालना था। भारत ने इसे मान लिया था और युद्ध विराम हो गया था।
कश्मीर पर पहला सुरक्षा परिषद प्रस्ताव
सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर पहला प्रस्ताव 20 जनवरी 1948 को पारित किया गया था। प्रस्ताव संख्या 39 में यह कहा गया था कि तीन सदस्यों का एक आयोग बनाया जाए, जिसमें एक सदस्य भारत का, एक पाकिस्तान का और एक दो अन्य देशों के सुझाव पर चुना जाए। यह आयोग परिषद को यह सलाह दे कि किस तरह कश्मीर समस्या का निपटारा हो, वहाँ शांति बहाल हो और दोनों देशों को इसके निपटारे में किस तरह की मदद की जाए।जनमत संग्रह का प्रस्ताव
इसके बाद 21 अप्रैल, 1948 को सुरक्षा परिषद में जम्मू-कश्मीर पर एक और प्रस्ताव पास किया गया।
प्रस्ताव संख्या 47 में तीन मुख्य बातें थीं-पाकिस्तान से लड़ने के लिए कश्मीर गए सभी लोगों को इसलामाबाद वापस बुलाए, भारत अपनी सेना को वापस बुलाए और नई दिल्ली एक एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त करे, जो कश्मीर में स्वतंत्र और निष्पक्ष जनमत संग्रह कराए।
1965 का प्रस्ताव
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 20 सितंबर 1965 को एक प्रस्वाव पारित कर दोनों देशों से तुरन्त लड़ाई रोकने, युद्धविराम करने और लड़ाई शुरू होने के पहले की स्थिति तक सेना को वापस बुला लेने और इलाक़ा खाली करने को कहा था।
मिलिट्री ऑब्जर्वेशन ग्रुप पर प्रस्ताव
प्रस्ताव संख्या 211 के ठीक पहले उसी महीने यानी 4 सितंबर, 1965 को संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव संख्या 208 पारित किया गया था। इसके तहत तैनात ऑब्जर्वेशन ग्रुप आज भी दोनों देशों में तैनात हैं।प्रस्ताव संख्या 208 में कहा गया था कि संयुक्त राष्ट्र मिलिट्री ऑब्जर्वेशन ग्रुप इन इंडिया एंड पाकिस्तान (यूएनएमओजीआईपी) गठित किया जाए। यह ग्रुप भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के कश्मीर वाले इलाक़े में अपने सैनिक तैनात करें, जो युद्धविराम को सुनिश्चित करें।
शिमला समझौते के बाद
बाँग्लादेश युद्ध के बाद हुए शिमला समझौते में भारत और पाकिस्तान इस पर राजी हो गए थे कि कश्मीर द्विपक्षीय मामला है, जिसका निपटारा दोनों देश मिल कर शांतिपूर्वक तरीके से बातचीत के ज़रिए कर लेंगे। इस समझौते के बाद संयुक्त राष्ट्र के तमाम प्रस्ताव बेकार हो गए, क्योंकि इसलामाबाद ने यह मान लिया कि मामला दोतरफा है। मामला दोतरफा हो और आपसी बातचीत से ही सुलझाना हो तो तीसरे पक्ष और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका ख़त्म हो जाती है। इसलिए पाकिस्तान ने हमेशा शिमला समझौते के इस भाग का उल्लंघन किया। वह इसी वजह से अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह मामला लगातार उठाता रहा है ताकि वह इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाए रखे और इस आधार पर ही जनमत संग्रह की बात करता रहे।शुक्रवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में होने वाली बातचीत का नतीजा बाध्यकारी नहीं होगा। भारत उसे एक झटके से खारिज कर सकता है। पर यह बैठक ही पाकिस्तान की बड़ी जीत है, क्योंकि वह इस बहाने 40 बाद एक बार फिर कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उठाने में कामयाब रहा है।
'खुली बैठक', 'बंद कमरे की बैठक'
भारत के लिए राहत की बात यह है कि चीन ने 'बंद कमरे की बैठक' बुलाई है, उसने परिषद की 'खुली बैठक' पर ज़ोर नहीं दिया। 'बंद' और 'खुली' बैठक में अंतर यह है कि 'बंद कमरे' की बैठक अनौपचारिक होती है, यह विचार विमर्श के लिए होती है, इसका निर्णय बाध्यकारी नही होता है, इसका कोई आधिकारिक रिकॉर्ड नहीं होता है और इस पर कोई बयान भी नहीं जारी किया जाता है। पर 'खुली बैठक' में बहस होती है, वह आधिकारिक होता है, उसका रिकार्ड रखा जाता है, उस पर आधिकारिक बयान जारी किया जाता है। यदि इस बैठक में कोई प्रस्ताव रखा जाता है तो उस पर बहस होती है, वोटिंग होती है और वह प्रस्ताव सबको मानना होता है। यह बात अलग है कि संयुक्त राष्ट्र के कई प्रस्तावों को किसी ने नहीं माना है।
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