मुसलिम समाज में प्रचलित मौजूदा शरीयत के मुताबिक़ तलाक़ देने का अधिकार सिर्फ़ पति को है। हालाँकि महिला चाहे तो अपने पति से तलाक़ माँग सकती है। इसे 'ख़ुला' कहते हैं। महिला क़ाज़ी के पास के पास जाकर ‘फस्क़-ए-निकाह’ यानी निकाह को निरस्त या रद्द करने की माँग कर सकती है। लेकिन महिलाओं के लिए 'ख़ुला' लेना या अपना ‘फस्क़-ए-निकाह’ कराना इतना आसान नहीं है जितना आसान एक शौहर के लिए तलाक़ देकर अपनी पत्नी को छोड़ देना है।
दूल्हा-दुल्हन के बीच क़रार है निकाह
इस्लाम में निकाह दूल्हा-दुल्हन के बीच क़ानूनी क़रार है। अरबी भाषा में इसे ‘अक़्द-अल-क़िरआन’ यानि ‘शादी का क़रार’ कहते हैं। उर्दू में इसे ‘निकाह नामा’ कहते हैं। इसमें दूल्हा और दुल्हन के बीच आपसी रज़ामंदी से कुछ शर्तें तय होती हैं। शादी-शुदा ज़िंदगी में दोनों को उन शर्तों पर क़ायम रहना होता है। निकाह के वक़्त एक वकील और दो गवाहों की मौजूदगी ज़रूरी है। वकील और गवाह दूल्हा-दुल्हन के क़रीबी रिश्तेदार या फिर परिचित और मित्र हो सकते हैं।
निकाह से पहले वकील दो गवाहों की मौजूदगी में दुल्हन को निकाह की शर्तें बताकर उससे निकाह की मंज़ूरी लेता है। फिर वकील गवाहों की मौजूदगी में क़ाज़ी के सामने दुल्हन की तरफ़ से रखी गई मेहर की रक़म और अन्य शर्तों की जानकारी दूल्हे को देता है। दूल्हे के ये शर्तें मानने पर ही क़ाज़ी निकाह पढ़ाकर निकाह नामे पर दूल्हा-दुल्हन, वकील और गवाहों के दस्तख़त करवा के निकाह की रस्म पूरी करता है।
कैसे तोड़ा जा सकता है निकाह
इस्लाम में निकाह यानी शादी के क़रार को तोड़ने के मोटे तौर पर तीन तरीक़े हैं। तलाक़, ख़ुला और फस्क़-ए-निकाह। निकाह के क़रार को तोड़ने के लिए तलाक़ का अधिकार पति को है। तलाक़ अरबी के ‘तुल्क़’ शब्द से बना है। इसका मतलब होता है पाबंदी हटा लेना। शादी के मामले में इसका मतलब यह है कि पति ने निकाह के समय जिन शर्तों को मानने की रज़ामंदी दी थी, वह उन पर शर्तों को ख़त्म कर रहा है। इसके लिए पति को पत्नी की माँगें पूरी करनी होती हैं।
क़ुरआन में तलाक़ का तरीक़ा
क़ुरआन ने तलाक़ का एक सीधा और सरल रास्ता बताया है। इसके मुताबिक़, अगर पति-पत्नी के बीच मतभेद हो जाएँ और मामला अलगाव तक पहुँच जाए तो दोनों को अपना एक प्रतिनिधि चुनकर विवाद सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए। यह तलाक़ से पहले की ज़रूरी शर्त है। अगर किसी सूरत में दोनों के बीच सहमति नहीं बनती है तो फिर पति एक बार तलाक़ दे और पत्नी की तीन माहवारी तक उसे अपने पास रखे। इस बीच अगर दोनों साथ रहने पर रज़ामंद हो जाएँ तो तलाक़ ख़ुद-ब-ख़ुद ख़त्म हो जाएगा। लेकिन अगर पति तलाक़ देने पर ही अड़ा रहता है तो तीन महीने बाद वह दूसरा तलाक़ देगा। पत्नी फिर तीन महीने साथ रहेगी। इस बीच अगर सहमति बन जाए तो दोनों दोबारा निकाह करके साथ रह सकते हैं। अगर सहमति नहीं बनती तो दोनों के रास्ते अलग हैं।मौजूदा शरीयत में तलाक़
तलाक़-ए-अहसन: ग़ौरतलब है कि शरीयत में क़ुरआन में बताए तलाक़ के तरीक़े को ही बेहतरीन तरीक़ा बताया गया है। ऊपर बताए गए तरीक़े को ही तलाक़-ए-अहसन कहा जाता है। लेकिन कई और तरीक़े बताकर मर्दों के लिए बीवी से छुटकारा पाना आसान कर दिया गया है।सबसे ख़राब तरीक़ा
तलाक़-ए-बिदअत: शरीयत में तलाक़-ए-बिदअत यानी एक वक़्त में तीन तलाक़ सबसे बुरा तरीक़ा बताया गया है। हालाँकि एक बार में तीन तलाक़ चाहे जिस मंशा से दिया गया हो उसे माना जाएगा। इसके पैरोकार दावा करते हैं कि पैगंबर मोहम्मद साहब ने इसे बुरा कहा लेकिन उसे ख़त्म नहीं किया।जबकि सच्चाई यह है कि पैगंबर मोहम्मद साहब ने एक साथ तीन तलाक़ को तो तलाक़ माना ही नहीं। ऐसे कई वाक़ये हदीसों में मौजूद हैं जिनमें उन्होंने एक साथ दिए गए तीन तलाक़ को तलाक़ नहीं माना और अपनी बीवी के साथ रहने का हुक्म दिया।
महिलाएँ भी ले सकती हैं तलाक़
कहने को तो महिलाओं को शादी का रिश्ता ख़त्म करने के लिए ‘ख़ुला’ और ‘फ़स्क़-ए-निकाह’ के रूप में दो अधिकार दिए हैं। लेकिन दोनों के अधिकारों में फर्क यह है कि शौहर जब चाहे तलाक़ दे सकता है जबकि बीवी को ख़ुला लेने या अपना निकाह निरस्त कराने के लिए क़ाज़ी के पास जाना पड़ता है।ऐसा भला कैसे हो सकता है कि एक वकील और दो गवाहों की सामने क़ाज़ी की मोहर से हुए निकाह को शौहर कभी भी तलाक़, तलाक़, तलाक़ बोल कर तोड़ दे। जबकि बीवी अगर इस रिश्ते से बाहर आना चाहे तो उसे क़ाज़ी के सामने वज़ह साबित करनी पड़े।
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