मशीनें लाचार हैं, क्योंकि वे मानव-निर्मित तकनीक पर निर्भर हैं। इंसान ही उनका जन्मदाता है और वे उसी की ग़ुलामी करती हैं। लेकिन इतिहास गवाह है कि कोई तकनीक न तो चिरंजीवी होती है और न कालजयी। हरेक तकनीक का अपना कार्यकाल होता है। नई तकनीकों से पुरानी का सफ़ाया होता है। ईवीएम भी एक तकनीकी उपकरण है। इसका जीवनकाल पूरा हो चुका है! अब हमें वापस बैलट पेपर यानी मतपत्र की ओर लौटना होगा। यह काम जितनी जल्दी होगा, उतना ही लोकतंत्र फ़ायदे में रहेगा। ताज़ा विधानसभा चुनावों ने उन आरोपों को और पुख़्ता किया है कि ईवीएम में घपला हो सकता है। बेशक यह हुआ भी है! तर्कवादी इसका सबूत चाहेंगे। यह स्वाभाविक है। मेरे पास घपलों के सबूत नहीं हैं। लेकिन प्रति-तर्क ज़रूर हैं।
ईवीएम ने गोपनीयता घटाई
वैसे भी ईवीएम में अब वे गुण भी नहीं रहे, जिसने कभी इसे बैलट पेपर से बेहतर बनाया था! मसलन, ईवीएम ने मतदान की गोपनीयता को घटाया है। ईवीएम की वजह से यह बात अब गोपनीय नहीं रह जाती कि अमुक मतदान केन्द्र के मतदाताओं की पसन्द क्या रही है? कभी वोटों की गिनती से पहले ईवीएम को बैलट पेपर की तरह मिलाया जाता था ताकि मतदान की गोपनीयता पर आँच नहीं आए। लेकिन कालान्तर में ईवीएम में हुए घपलों को देखते हुए,अब हरेक मशीन के आँकड़े अलग-अलग हासिल किए जाते हैं। इससे उम्मीदवारों को पता चल जाता है कि उन्हें किस मतदान केन्द्र पर कितने वोट मिले हैं? यदि ये वोट विजेता के नहीं होते हैं तो उसे क्षेत्र के मतदाताओं को सबक़ सिखाने के लिए वे उनके सरोकारों की अनदेखी करता है।कभी ईवीएम की तारीफ़ इसलिए भी की जाती थी कि इससे मतदान के नतीजे महज कुछ घंटों में ही मिल जाते थे। लेकिन ताज़ा विधानसभा चुनाव की तमाम सीटों पर नतीजे आने में 24 घंटे तक का वक़्त लग गया। इतना वक़्त तो बैलट पेपर के दौर में भी, पहले कभी नहीं लगा।
कभी ईवीएम के गुणगान का एक कारण यह भी हुआ करता था कि इससे बूथ कब्ज़ा करने वाले हतोत्साहित होते हैं। बेईमानी के नए-नए हथकंडे विकसित हो चुके हैं। मशीन की जाँच करने वाले 'मॉक पोल' की क़वायद को भी पोलिंग एजेंट की मिलीभगत से भ्रष्ट किया जा चुका है।
सुनील अरोड़ा भी मानते हैं कि ताज़ा चुनाव में ही क़रीब 250 ईवीएम के साथ यह घोटाला हुआ है। अरोड़ा की दलील है कि कुल 66,000 ईवीएम के सामने यह संख्या बहुत मामूली है।
ईवीएम में बेईमानी?
सुनील अरोड़ा की लाचारी है कि वे अपने दही को खट्टा नहीं कहना चाहते। लेकिन सच्चाई यह है कि यह बहुत बड़ी चूक है। चुनावकर्मी सरकारी कर्मचारी होते हैं। उन्हें कौन ऐसा आश्वासन दे सकता है कि वे अपनी नौकरी पर खेल कर ईवीएम में बेईमानी करें? सत्ताधारियों के सिवाय भ्रष्ट कर्मचारियों को अभयदान और कौन दे पाएगा? ताज़ा चुनावों में वायरल हुए उन विडियो से इस अभयदान का पता चलता है कि मतदानकर्मी ईवीएम को लेकर उन जगहों पर जा पहुँचे, जहाँ उनका होना पूरी तरह से ग़ैरक़ानूनी था। अभी तक किसी को नहीं पता कि चुनाव आयोग ने ऐसे कितने लोगों को नौकरी से बर्ख़ास्त करके उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की है?बेमानी हैं ईवीएम के सुख
ईवीएम के पक्ष में दलील थी कि इससे मतपत्र वाले काग़ज़ों की भारी बचत होती है। लेकिन अब साफ़ दिख रहा है कि यह बचत भारतीय लोकतंत्र के लिए काफ़ी भारी पड़ी है। हमने देखा है कि बीजेपी ने उस ईवीएम की ख़ूब तरफ़दारी की, जिसे ले कर ख़ुद उसने ही उस दौर में भरपूर हाय-तौबा मचाई थी, जब वह विपक्ष में थी। इसीलिए यह शक होना स्वाभाविक है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी ने ईवीएम में सेंधमारी की किसी तकनीक को साध लिया हो! 2014 के बाद हुए तमाम विधानसभा चुनावों में ईवीएम की सच्चाई पर जितने सवाल दागे गए, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। सुप्रीम कोर्ट के दख़ल के बाद चुनाव आयोग ने भी अपनी साख बचाने के लिए वीवीपैट (वोटर वेरिफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की जुगत अपनाई। लेकिन इससे भी ईवीएम की प्रतिष्ठा बहाल नहीं हुई।ईवीएम की तकनीक और मशीन यदि बेदाग़ होती तो आज सारी दुनिया में इसी का डंका बज रहा होता। बेहतर तकनीक अपनी जगह बना ही लेती है। जीवन का कोई भी क्षेत्र नई तकनीक से अछूता नहीं है।
टेलिग्राम को किसने ख़त्म किया? पेजर कहाँ चले गए? बजाज स्कूटर को कौन निगल गया? एलईडी लाइट्स ने पुराने बल्ब-ट्यूब का क्या हाल किया? तकनीक के बेहिसाब विस्तार के बावजूद तमाम विकसित देशों ने ईवीएम को आज़माने के बाद इसे अनफिट ही क्यों पाया?
क्यों चुनाव फिर बैलट पर पर ही लौट गए? वजह साफ़ है कि ईवीएम की ख़ामियाँ, उसकी ख़ूबियों पर भारी पड़ीं! ये तर्क अकाट्य हैं।
ईवीएम का मुखौटा है वीवीपैट
ख़ुद चुनाव आयोग को भी वीवीपैट (वोटर वेरीफ़ाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) को प्रमाणिक नहीं मानता है। ताज़ा चुनावों में भी नई-नवेली वीवीपैट मशीनों ने ख़ूब धोखा दिया है। इनके धोखेबाज़ी की दर जहाँ 2.22% रही, वहीं बैलट यूनिट और कंट्रोल पैनल में 0.53% की ख़राबी पाई गई। अब बड़ा सवाल ये है कि चुनाव आयोग हरेक ईवीएम को तो वीपीपैट से जोड़ने के लिए तैयार है, लेकिन उसमें इक्कठा हुई हरेक पर्ची की गिनती करवाने के लिए तैयार क्यों नहीं है? पिछले साल काँग्रेस ने सिर्फ़ एक चौथाई वीवीपैट मशीनों के नतीजों की ईवीएम के नतीजों से मिलान करवाने की माँग की थी, लेकिन चुनाव आयोग इसके लिए तैयार नहीं हुआ। आयोग का कहना था कि इससे वोटों की गिनती होने में भारी वक़्त लगने लगेगा!अब ज़रा सोचिए कि ऐसे दौर में जब चुनाव आयोग और ईवीएम पर निष्पक्ष नहीं होने के बेहद गम्भीर आरोप हों, वैसे वक़्त में देरी या जल्दी की क्या औक़ात! अरे, मरीज़ का इलाज ज़रूरी है या उसमें लगने वाला वक़्त! गिनती में लगने वाले वक़्त कम करने के लिए और भी तकनीकें मौजूद हैं। रुपये गिनने की मशीन है। उससे वीवीपैट की पर्चियाँ क्यों नहीं गिनी जा सकतीं? इन पर्चियों को उम्मीदवारों के हिसाब से छाँटने का काम उन मशीनों से क्यों नहीं लिया जा सकता, जिनके ज़रिये बैंकों के चेक ‘क्लियरिंग हाउस’ में छाँटे जाते हैं? लेकिन इन सारी दलीलों के बावजूद चाहे ईवीएम या वीवीपैट, वह रहेगी तो मशीन ही। मानवीय भूल-चूक की तरह इसे सुधारा नहीं सकता।
ईवीएम के हैकर्स
सबसे बड़ा आरोप यह है कि ईवीएम के हैकर्स विकसित हो चुके हैं! लेकिन चुनाव आयोग की ज़िद है कि मेरे सामने ईवीएम को हैक करके दिखाओ, तभी मानेंगे कि हैकिंग सम्भव है! दुर्भाग्यवश, आयोग यह समझने को तैयार नहीं कि करोड़ों-अरबों रुपये का वारा-न्यारा करने वाले हैकर्स और उनका फ़ायदा लेने वाले लोग क्यों अपने पाँव यानी ‘कमर्शल इन्ट्रेस्ट’ पर ही कुल्हाड़ी मारने को तैयार होंगे? इनसे यह अपेक्षा रखना नादानी होगी कि वह चुनाव आयोग की सनक या ज़िद को मिटाने के लिए अपनी कामधेनु का बलिदान दे दें!अब तो ऐसे भी संकेत मिल रहे हैं कि ईवीएम के हैकर्स, चुनाव जीतने और हारने वाली यानी दोनों पार्टियों से सौदा कर रहे हैं! जनाक्रोश से बचने के लिए वे हारने वाली पार्टियों की सीटों को सम्मानजनक बना दे रहे हैं तो जीतने वाले पार्टी की जीत का अन्तर घटा दे रहे हैं। ये बातें सच्ची हों या अफ़वाह, लेकिन लोकतंत्र के लिए इसका किसी भी रूप में होना ही, अपने आप में बेहद नुक़सानदेह है। ईवीएम पर सन्देहों का भरमार है। बेचारे स्ट्रॉङग रूम में भी महफ़ूज़ नहीं रहते! लिहाज़ा, अब ईवीएम का अलविदा होना बेहद ज़रूरी है।
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