सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को बरकरार रखा है। सीजेआई यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पांच जजों की बेंच ने इस मामले में फैसला सुनाया। बेंच में सीजेआई के अलावा जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस एस. रवींद्र भट, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला शामिल हैं। इस मामले में एक हफ्ते तक चली सुनवाई के बाद शीर्ष अदालत ने 27 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
जस्टिस माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस पारदीवाला ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के पक्ष में अपना फैसला दिया जबकि सीजेआई यूयू ललित और जस्टिस एस. रवींद्र भट ने इसके विरोध में फैसला सुनाया।
सरकार ने 103 वां संविधान संशोधन करके आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भर्ती में 10 फीसद का आरक्षण दिया था। इस संविधान संशोधन को तमाम याचिकाओं के जरिए अदालत में चुनौती दी गई थी।
जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने अपने फैसले में कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है। 15(4), 16(4) के अंतर्गत आने वाले वर्गों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण से बाहर रखा जाना समानता संहिता का उल्लंघन नहीं करता है और संविधान के बुनियादी ढांचे को भी नुकसान नहीं पहुंचाता है। जस्टिस माहेश्वरी ने कहा कि 50 फीसद की अधिकतम सीमा का उल्लंघन संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन नहीं करता है।
जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने कहा कि 103वें संविधान संशोधन को संसद के द्वारा ईडब्ल्यूएस तबके की भलाई के लिए एक सकारात्मक कार्रवाई के रूप में किया गया संशोधन माना जाना चाहिए और 103वें संविधान संशोधन की वैधता को बरकरार रखा जाना चाहिए। आजादी के 75 साल के बाद हमें हमें समाज के व्यापक हित में आरक्षण की व्यवस्था पर फिर से विचार करने की जरूरत है।
जस्टिस पारदीवाला ने जस्टिस माहेश्वरी और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी से सहमति जताई और 103वें संविधान संशोधन को बरकरार रखा।
तीन अहम बिंदु
इस मामले में मुख्य रूप से 3 बिंदु तय किए गए थे। पहला- क्या संविधान आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की अनुमति देता है और अगर इसकी अनुमति दी जाती है तो क्या यह संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ होगा। यह बिंदु इसलिए अहम है क्योंकि संविधान किसी भी व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के आधार पर उसे आरक्षण दिए जाने के बारे में नहीं कहता।
दूसरा बिंदु यह कि सरकार के द्वारा जो 103वां संविधान संशोधन किया गया था और इसके जरिए राज्यों को निजी गैर सहायता प्राप्त संस्थानों में प्रवेश देने के लिए विशेष प्रावधान बनाने की अनुमति दी गई थी, क्या इसे संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन कहा जा सकता है।
तीसरा बिंदु यह कि क्योंकि ईडब्ल्यूएस आरक्षण से एसईबीसी (सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग)/ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग)/एससी (अनुसूचित जाति)/एसटी (अनुसूचित जनजाति) वर्ग को बाहर रखा गया है तो क्या 103 वें संविधान संशोधन को संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन कहा जा सकता है।
संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगाता है। जबकि अनुच्छेद 16 रोजगार के मामलों में समान अवसर की गारंटी देता है। इस अनुच्छेद के अतिरिक्त क्लाज के आधार पर संसद ने ईडब्ल्यूएस के लिए वैसा ही विशेष कानून बनाया जैसा कि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए है।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एस आर सिंहो की अध्यक्षता वाले एक आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिया गया था। मार्च 2005 में यूपीए सरकार द्वारा गठित इस आयोग ने जुलाई 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी।
50 फीसद आरक्षण का मामला
इंदिरा साहनी मामले में फैसला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि आरक्षण की सीमा 50 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकती। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के मामले में सुनवाई के दौरान इस आरक्षण का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं ने इस तर्क को अदालत के सामने रखा था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले से आरक्षण की सीमा 50 फीसद से ज्यादा हो गयी है।
केंद्र सरकार का तर्क
इस मामले में अदालत में केंद्र सरकार का तर्क था कि गरीब तबके को 10 फीसद का आरक्षण दिए जाने से दूसरे वर्गों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। केंद्र सरकार ने अदालत से कहा था कि उसने केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में 2.1 लाख से ज्यादा सीटें बढ़ाने की स्वीकृति दी है जिससे ईडब्ल्यूएस आरक्षण का असर एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को मिलने वाले आरक्षण पर नहीं होगा। केंद्र सरकार ने अदालत से कहा था कि 103वां संविधान संशोधन किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं करता बल्कि यह संविधान के बुनियादी ढांचे को और मजबूत करता है क्योंकि यह देश के नागरिकों के साथ आर्थिक आधार पर न्याय करता है।
जबकि इस आरक्षण का विरोध करने वाले याचिकाकर्ताओं का कहना था कि आरक्षण दिए जाने का अधिकार आर्थिक नहीं हो सकता है और उन्होंने 103 वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की थी। इन याचिकाकर्ताओं का कहना था कि सामान्य वर्ग को आरक्षण दिया जाना संविधान के साथ धोखाधड़ी है।
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को 10 फीसद का आरक्षण देने का विधेयक जनवरी, 2019 में संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया था और तब तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने इस पर हस्ताक्षर किए थे।
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