सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कहा कि वह बिहार सरकार को जाति सर्वेक्षण के डेटा या निष्कर्षों को प्रकाशित करने से नहीं रोक सकता। जब तक इस मामले में किसी संवैधानिक अधिकार के उल्लंघन या उसकी ओर से सक्षमता की कमी का मामला पहली नजर में न बनता हो।
लाइव लॉ के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की बेंच इस संबंध में दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए कहा, ''जब तक पहली नजर में कोई उल्लंघन का मामला न हो, हम कुछ भी नहीं रोकेंगे... कुछ कानूनी मुद्दे हैं जिन पर बहस हो सकती है। कवायद पूरी हो चुकी है और हाई कोर्ट का फैसला उनके पक्ष में आ चुका है।
कोर्ट में जैसे ही मामला उठाया गया, याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील अपराजिता सिंह ने बेंच से अनुरोध किया कि जब तक अदालत मामले पर अंतिम निर्णय नहीं ले लेती, तब तक सर्वेक्षण के प्रकाशन पर रोक लगा दी जाए। वकील अपराजिता ने कहा- सारा डेटा पहले ही अपलोड किया जा चुका है। हम अदालत से सर्वेक्षण के प्रकाशन को रोकने का अनुरोध कर रहे हैं। लेकिन बेंच ने उनके तर्कों से प्रभावित हुए बिना कहा- “कृपया, मामले पर बहस करें। हम पक्षों को सुने बिना कुछ भी नहीं रोक रहे हैं। हम प्रथम दृष्टया मामले पर आपकी बात सुनेंगे और उनसे खंडन करने के लिए कहेंगे। यदि आप प्रथम दृष्टया संतोषजनक मामला पेश कर सकते हैं, तो हम उसके अनुसार एक आदेश पारित करेंगे, लेकिन हम अभी कोई आदेश पारित नहीं करने जा रहे हैं।''
बिहार सरकार की ओर से वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने सर्वेक्षण के प्रकाशन पर रोक लगाने की याचिका का विरोध किया, और कहा कि सर्वेक्षण और व्यक्तियों के व्यक्तिगत विवरण को सार्वजनिक नहीं किया जाता है। सिर्फ डेटा जुटाया गया है। इसके प्रकाशन में लोगों के व्यक्तिगत विवरण को प्रकाशित नहीं किया जाएगा।
इससे पहले मामले की सुनवाई शुरू होने पर एनजीओ यूथ फॉर इक्वेलिटी के वरिष्ठ वकील सीएस वैद्यनाथन ने दलीलें देते हुए कहा कि बिहार सरकार का सर्वेक्षण पुट्टास्वामी मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले का उल्लंघन है। उस फैसले में कहा गया है कि केवल एक कानून के माध्यम से ही कोई राज्य ऐसा कार्य कर सकता है जो किसी व्यक्ति की गोपनीयता को प्रभावित नहीं करता हो।लेकिन यहां, राज्य सरकार ने कार्यकारी आदेश के बावजूद पूरी कवायद की। इस सर्वेक्षण को करने के लिए राज्य सरकार द्वारा कोई कानून नहीं बनाया गया था, जैसा कि पुट्टस्वामी में सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की बेंच ने निर्देश दिया था। ऐसे में जब किसी की निजता के अधिकार का उल्लंघन होता है तो कार्यकारी आदेश किसी कानून का स्थान नहीं ले सकता।
इस पर बेंच ने वकील से पूछा कि गोपनीयता के किस पहलू का उल्लंघन होने का आरोप लगाया गया है जब सर्वेक्षण सिर्फ डेटा प्रकाशित करेगा, व्यक्तिगत जानकारी नहीं। इस पर वैद्यनाथन ने कहा कि सर्वेक्षण के दौरान व्यक्तियों से 17 सामाजिक-आर्थिक प्रश्न पूछे गए। लेकिन बेंच ने जवाब दिया कि अगर कोई जवाब नहीं देता है तो प्रक्रिया में किसी दंड की परिकल्पना नहीं की गई है।
जाति जनगणना अब राष्ट्रीय मुद्दा बन गई है। भाजपा कभी इसके समर्थन में दिखती है तो कभी विरोध में। बिहार में, जाति सर्वेक्षण पिछले साल हुआ था और सभी दलों ने इसका समर्थन किया था। हालांकि सत्तारूढ़ जेडीयू और आरजेडी ने ही इसके लिए पहल की थी। पिछले कुछ महीनों में, कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने पूरे भारत में इस मामले को उठाया है। असल में विपक्षी दलों को उम्मीद है कि जातियों की गणना से भाजपा के धार्मिक ध्रुवीकरण का जवाब दिया जा सकता है।
इस महीने की शुरुआत में, सर्वेक्षण की घोषणा करने वाली राज्य की 6 जून, 2022 की अधिसूचना की पुष्टि करते हुए, पटना हाईकोर्ट के फैसले में कहा गया था- “हम राज्य की कार्रवाई को पूरी तरह से वैध पाते हैं, यह न्याय के साथ विकास प्रदान करने का वैध उद्देश्य है। ...और वास्तविक सर्वेक्षण में विवरण प्रकट करने के लिए कोई दबाव नहीं डाला गया। इस प्रकार व्यक्ति की निजता के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया गया। बल्कि जनता इसकी तरफ आकर्षित हुई है कि राज्य ने उसके हित में यह कदम उठाया है।
पटना हाईकोर्ट ने साफ किया कि 'जनगणना' शब्द सूची की प्रविष्टि 69 के अंतर्गत आता है जो पूरी तरह से केंद्र के विशेषाधिकार के अंतर्गत है, लेकिन यह किसी भी राज्य सरकार को कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने और सकारात्मक कार्रवाई करने के लिए डेटा जुटाने से नहीं रोकता है। राज्य ने अपने सर्वेक्षण को सही ठहराने के लिए सांख्यिकी संग्रह अधिनियम, 2008 पर भरोसा किया था, हालांकि 6 जून की अधिसूचना में इसका कोई उल्लेख नहीं था।
पटना हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं में से नालंदा निवासी अखिलेश कुमार और एनजीओ एक सोच एक प्रयास ने जाति सर्वेक्षण को निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया क्योंकि राज्य ने धर्म, जाति और आय के बारे में व्यक्तिगत विवरण एकत्र किए थे। डेटा की सुरक्षा के लिए किसी तंत्र का अभाव का जिक्र किया गया। याचिकाओं में तर्क दिया गया कि बिहार सरकार के पास जाति सर्वेक्षण करने की पावर नहीं है।
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