“जनहित याचिकाएँ सरकार के विरोधियों और सिविल सोसाइटी के लोगों का एक औज़ार बनती जा रही हैं, जिसका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है।” यह कहना है देश के सर्वोच्च न्यायालय का, जिसका मानना है कि सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्ट जनहित के मामलों में सर्वोच्च संस्था नहीं बन सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को हरी झंडी देते हुए कही।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस ए. एम. खानविलकर और जस्टिस दिनेश महेश्वरी की बेंच ने कहा कि जनहित याचिका के नाम पर अदालतों का समय सरकार से असहमति रखने वाले ग्रुप और सिविल सोसाइटी के लिए बर्बाद नहीं किया जा सकता। करीब 20 हज़ार करोड़ की लागत वाले सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ कई याचिकाँ सुप्रीम कोर्ट में डालकर आरोप लगाया गया था कि इसके पहले दिल्ली डेवलेपमेंट एक्ट के प्रावधानों की अवहेलना की गयी है।
कोर्ट का समय सरकार विरोधियों के लिए नहीं?
सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को हरी झंडी देते हुए जनहित याचिकाएँ दायर करने वाले संगठनों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों को निशाने पर लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “जनहित याचिका वह साधन है जिससे आम लोगों के संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित रखा जाता है, अदालतों का कर्तव्य है कि वे उन अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए यह देखें कि सरकार के लिए गये किसी फ़ैसले में आम लोगों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की अवेहलना तो नहीं हो रही।”
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा,
“
“अदालतों के पास इतना वक़्त नहीं है कि वे सरकार के फ़ैसलों से असहमति रखने वाले संगठनों और सिविल सोसाइटी के लोगों के लिए सुनवाई करके अपना कीमती वक़्त ख़राब करें।"
सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का अंश
क्या होती हैं जनहित याचिकाएँ?
सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से जनहित याचिकाओं के आंदोलन को तगड़ा झटका लग सकता है। जनहित याचिकाओं ने देश के आम नागरिकों के लिये न्याय का एक रास्ता खोला और यह सुविधा दी कि कोई भी एक चिट्ठी सुप्रीम कोर्ट को लिख कर इंसाफ की गुहार लगा सकता है। अगर सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा रुख़ रहा तो फिर आम आदमी के लिये न्याय का यह रास्ता भी बंद हो सकता है।
1980 तक देश में जनहित याचिकाएँ (पीआईएल) दाखिल करने का तरीका नहीं था, हालांकि पीआईएल को लेकर संविधान के अनुच्छेद 39 'ए' में व्यवस्था ज़रूर की गयी थी, जिसमें कहा गया था कि क़ानून के माध्यम से सामाजिक न्याय देने का प्रावधान हो।
पहली जनहित याचिका
बिहार में सालों जेल में बंद क़ैदियों की दयनीय स्थितियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हुसैना ख़ातून बनाम बिहार राज्य के मामले को सबसे पहले जनहित याचिका के तौर पर लिया और क़ैदियों को मुफ़्त और जल्द न्याय दिलाने का आदेश दिया। इसके बाद करीब 40 हज़ार क़ैदियों को बिहार के जेलों से रिहाई मिली। इस केस को ही जनहित याचिकाओं के मामलों में पहला मामला कहा जाता है।
इसके बाद यह सिलसिला रुका नहीं। बात आदे बढ़ी। देश की सर्वोच्च अदालत और हाईकोर्ट ने जनहित के सैकड़ों मामलों में फ़ैसले देते हुए कई ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं। जनहित याचिकाओं के मामले में जारी किए गये कुछ फ़ैसलों पर नज़र डालते हैं।
शीला बरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य (15 फरवरी, 1983)
पुलिस कस्टडी में महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचारों को लेकर दाखिल जनहित याचिका पर अदालत ने फ़ैसला दिया और महिलाओं को इन अत्याचारों से निजात दिलाई। अदालत ने आदेश दिया कि महिलाओं को अलग से महिला बैरक में रखा जाए, जिससे कि उनके सम्मान और होने वाले अत्याचार पर रोक लग सके।
एम. सी. मेहता बनाम भारतीय संघ (गंगा का प्रदूषण, 12 जनवरी, 1988)
पर्यावरणवादी और वकील एम. सी. मेहता की जनहित याचिकाओं पर देश की सर्वोच्च अदालत के पर्यावरण के मामलों में काफी बड़े फ़ैसले दिये। टैनरियों और फैक्ट्रियों से निकलने वाले रसायन को सीधे गंगा और जमुना में डालने पर रोक लगा दी गयी। दिल्ली के प्रदूषण को देखते हुए 28 जुलाई, 1998 को एम. सी. मेहता की याचिका पर सीएनजी लागू की गयी। सोचिये, अगर आज सीएनजी की व्यवस्था अदालत ने न दी होती तो प्रदूषण की क्या हालत होती।
2-जी घोटाला, 2012
देश के सबसे बड़े घोटालों में शामिल 2-जी स्पेक्ट्रम स्कैम के मामले में जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गयी, जिसके बाद पूरे मामले की जाँच सीबीआई को सुपुर्द की गयी। हालांकि बाद में सभी आरोपियों को निचली अदालत से रिहा कर दिया गया। इसी मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने 122 लाईसेंस रद्द किए। बीजेपी नेता और वकील सुब्रमणियण स्वामी और मानवाधिकार के वकील प्रशान्त भूषण ने मामले में जनहित याचिका दायर की थी।
देश में आरक्षण के इतिहास में 16 नवंबर, 1992 का दिन ऐतिहासिक है। इस दिन देश की सर्वोच्च अदालत ने वकील इंदिरा साहनी की जनहित याचिका पर सुनवाई करने के बाद पिछड़े वर्ग के लिये 27 फ़ीसदी आरक्षण पर मुहर लगाई।
सामाजिक तौर पर पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की व्यवस्था को 10 साल तक चलाने का आदेश दिया और समय समय पर पिछड़े वर्ग को दिए गये आरक्षण की समीक्षा की भी व्यवस्था करने का निर्देश जारी किया।
विशाखा फ़ैसला
नौकरी करने के स्थान पर महिलाओं के दैहिक शोषण को लेकर दाखिल जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत फ़ैसला देते हुए इसे संविधान द्वारा प्रदत मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप का मामला करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किए जिसमें नौकरी देने वाली कंपनी को अपने यहां एक कमेटी बनानी पड़ेगी जो उस कंपनी में काम करने वाली महिला के साथ होने वाले यौन शोषण की शिकायत दर्ज कर जाँच करे और दोषी साबित होने पर कार्रवाई की सिफारिश करे। यह जनहित याचिका नैना कपूर ने 1992 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी।
हुसैना ख़ातून बनाम बिहार राज्य
इस जनहित याचिका को भारत की पहली जनहित याचिका भी कहते हैं जहाँ जेलों में सालों साल बंद क़ैदियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी। यह याचिका बिहार में बंद उन क़ैदियों के लिए की गयी थी जो कि अपने किए गये अपराध से ज्यादा समय इन जेलों में बिता चुके थे। सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले में क़रीब 40 हज़ार क़ैदियों की रिहाई का आदेश देते हुए त्वरित न्याय की अवधारणा को निचली अदालतों तक लागू कराया।
परमानंद कटारा बना भारतीय संघ
इस जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुनाते हुए आदेश दिया कि सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त किसी भी शख़्स के तुरन्त इलाज से अस्पताल और डॉक्टर मना नहीं करेगा। अख़बार में छपी ख़बर को जनहित याचिका का आधार बनाते हुए वकील परमानंद कटारा ने जनहित याचिका दाखिल की, जिसमें कहा गया थी कि एक स्कूटर वाले को कार ने टक्कर मार दी, घायल स्कूटर वाले को नजदीक के अस्पताल ले जाया गया। लेकिन डाक्टर ने इलाज करने से मना कर दिया और पीड़ित को 20 किलोमीटर दूर अस्पताल ले जाने को कहा। इलाज के अभाव में पीड़ित की मौत हो गयी थी।
श्रेय सिंघल बनाम भारतीय संघ
इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के सेक्शन 66 'ए' जिसमें इंटरनेट के माध्यम से आपत्तिजनक पोस्ट डालने पर गिरफ़्तारी का प्रावधान था, उसे सुप्रीम कोर्ट ने ग़ैर-संवैधानिक क़रार देते हुए ख़रिज कर दिया। इस सेक्शन के दुरुपयोग और लगातार हो रही गिरफ़्तारियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ये बड़ा फैसला किया।
नाज़ फाउंडेशन बनाम एनसीआर
समलैंगिकता पर आये ऐतिहासिक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को ग़ैर-क़ानूनी और ग़ैर संवैधानिक करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में धारा 377 को आपराधिक श्रेणी से बाहर कर दिया। पहले इस धारा के अंतर्गत सज़ा का प्रावधान था। नाज़ फाउंडेशन समेत दर्जनों संगठनों ने इस धारा के दुरुपयोग को देखते हुए जनहित याचिका दाखिल की थी।
डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य
डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में एक पत्र को सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका मानते हुए ऐतिहासिक फ़ैसला देते हुए पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों और गिरफ़्तारी के समय पुलिस को क्या-क्या दिशा निर्देश होंगे, यह सुप्रीम कोर्ट ने तय किया। यह याचिका उस वक़्त दायर की गयी जब पुलिस किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर लेती थी और उसे अपनी हिरासत में अपनी मर्जी के हिसाब से रखती थी। सुप्रीम कोर्ट ने एक पत्र को जनहित याचिका में तब्दील करते हुए गिरफ्तारी, अभियुक्त को पुलिस हिरासत में रखने और उसे कोर्ट में पेश करने के दिशा-निर्देश जारी किए।
इसी तरह के ढेरों फ़ैसले सुप्रीम कोर्ट ने दिये, जिन्हें भारतीय न्याय व्यवस्था में मील का पत्थर कहा गया है। इससे भारतीय न्यायपालिका की साख सिर्फ देश में ही नहीं, विदेशों में भी बढ़ी। आम आदमी का भरोसा बढा कि उसे कही न्याय मिले या न मिले, अदालत से इंसाफ ज़रूर मिलेगा। पर क्या अब उसका भरोसा टूटेगा?
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