राजनीति में दागी नेताओं पर रोक लगाने की जो माँग लंबे समय से नागरिक समाज करता रहा है उस दिशा में लगता है सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का असर हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राजनीतिक दलों को निर्देश दिया है कि वे चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ लंबित आपराधिक केसों को सार्वजनिक तौर पर बताएँ और यह भी बताएँ कि ऐसे लोगों को टिकट क्यों दिया। कोर्ट ने साफ़ कहा है कि पार्टियों के लिए यह ज़रूरी होगा कि वे उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटे के अंदर ऐसे उम्मीदवारों की जानकारी वेबसाइट, सोशल मीडिया और अख़बारों में दें।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि उम्मीदवार चुनने के 72 घंटे के अंदर राजनीतिक दल उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ लंबित आपराधिक केसों की जानकारी प्रकाशित करने के नियम पालन करने की रिपोर्ट चुनाव आयोग को दें। इसमें विफल रहने पर चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट को इससे अवगत कराए। कोर्ट ने यह भी कहा है कि इसमें विफल रहने पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना मानी जाएगी।
कोर्ट का यह आदेश एक अवमानना याचिका पर आया है। इस याचिका में राजनीति के अपराधीकरण का मुद्दा उठाया गया है और कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के सितंबर 2018 के उस फ़ैसले को लागू नहीं किया जा रहा है जिसमें उम्मीदवारों को अपने आपराधिक केसों के बारे में खुलासा करने को कहा गया है।
बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने यह आरोप लगाते हुए केंद्र सरकार और चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ याचिका डाली थी कि कोर्ट के आदेश के बाद भी राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किए जा रहे हैं।
इस दौरान चुनाव आयोग ने दलील दी कि उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड को प्रकाशित करने के कोर्ट के आदेश का कोई असर नहीं हो रहा है और राजनीतिक दलों को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को टिकट नहीं दें।
'सिर्फ़ विनेबिलिटी की दलील सही नहीं'
कोर्ट ने इस पर भी टिप्पणी की है कि उम्मीदवार की एक योग्यता होनी चाहिए। इसने कहा, 'उम्मीदवार चुनने का आधार योग्यता होनी चाहिए न कि विनेबिलिटी (चुनाव जीतने की संभावना)। सिर्फ़ विनेबिलिटी की दलील सही नहीं हो सकती है।'
कोर्ट का यह आदेश ऐसे समय में आया है जब राजनीति में आपराधिक छवि वाले नेताओं की संख्या ख़तरनाक स्तर तक बढ़ गयी है। कोर्ट ने भी माना है कि पिछले चार आम चुनावों में राजनीति का अपराधीकरण काफ़ी ज़्यादा हुआ है।
हाल के दिनों में ऐसी रिपोर्टें आती रही हैं जिसमें चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों के ख़िलाफ़ रेप, हत्या, फिरौती जैसे गंभीर आरोप लगे होते हैं।
फ़िलहाल नियम यह है कि नामाँकन भरने वाला उम्मीदवार अपने ख़िलाफ़ लंबित मामलों की जानकारी नामाँकन पत्र में देता है। यानी चुनाव आयोग के पास उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड की जानकारी होती है। इन्हीं नामाँकन पत्रों के रिकॉर्ड के आधार पर एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स यानी एडीआर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या का विश्लेषण करता रहा है।
इसकी रिपोर्ट के अनुसार, हाल ही में दिल्ली चुनाव में नामाँकन भरने वाले उम्मीदवारों में से 672 प्रत्याशियों का एडीआर ने विश्लेषण किया है। इसमें 133 उम्मीदवारों ने ख़ुद स्वीकार किया है कि उनके ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इसमें सभी पार्टियों के लोग हैं। साफ़-सुथरी राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के 70 में से 36 उम्मीदवार दागी थे। बीजेपी और कांग्रेस में भी दागियों की संख्या काफ़ी ज़्यादा थी। इससे पहले झारखंड, महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनावों में भी काफ़ी बड़ी तादाद में दागी उम्मीदवार थे।
159 सांसद दाग़ी
2019 के लोकसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति थी। एडीआर ने 542 सांसदों में से 539 सांसदों के हलफनामों के विश्लेषण के आधार पर बताया था कि इनमें से 159 सांसदों यानी 29 फ़ीसदी सांसदों के ख़िलाफ़ हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर आपराधिक मामले लंबित हैं। बीजेपी के 303 में से 301 सांसदों के हलफनामे के विश्लेषण में पाया गया कि साध्वी प्रज्ञा सिंह सहित 116 सांसदों यानी 39 फ़ीसदी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले चल रहे हैं। कांग्रेस के 52 में से 29 सांसद यानी 57 फ़ीसदी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़ 2009 के लोकसभा चुनाव में आपराधिक मुकदमे वाले 162 सांसद यानी 30 फ़ीसदी सांसद चुनकर आए थे, जबकि 2014 के चुनाव में निर्वाचित ऐसे सांसदों की संख्या 185 थी।
इस लिहाज़ से सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला काफ़ी महत्वपूर्ण है। हालाँकि, इससे राजनीतिक दलों पर कितना असर होता है, यह तो आगे आने वाले चुनावों में ही दिखेगा। लेकिन एक बात तो तय है कि जब तक राजनीतिक दलों की इच्छा शक्ति नहीं होगी तब तक शायद दागियों को राजनीति से दूर रखना मुश्किल होगा।
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