सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को पूछा है कि आने वाले कितनी पीढ़ियों के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण को बरकरार रखा जा सकता है। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को आरक्षण दिए जाने के मामले की सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी की।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में पिछली सुनवाई के दौरान तमाम दलीलों को सुनने के बाद सभी राज्यों को नोटिस जारी किया था और उनसे इस बात पर जवाब मांगा था कि क्या 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण दिया जा सकता है।
अदालत ने इस पर चिंता जताई कि अगर आरक्षण 50 फ़ीसदी से ज़्यादा हुआ तो इसकी वजह से असमानता आ सकती है। इंदिरा साहनी मामले में फ़ैसले के मुताबिक़ आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं हो सकती। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में कहा है कि वह इस पर सुनवाई करेगा कि क्या इंदिरा साहनी केस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए और क्या इसे बड़ी बेंच के पास भेज दिया जाना चाहिए।
रोहतगी ने कहा कि शीर्ष अदालत को आरक्षण को तय करने का मामला राज्यों पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने यह भी दलील दी कि मंडल मामले में अदालत का जो फ़ैसला था, वह 1931 की जनगणना के आधार पर था।
क्या था मंडल मामले में फ़ैसला
1 जनवरी, 1979 को तत्कालीन जनता पार्टी सरकार ने सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मंडल आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों की पहचान कर उन्हें 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की वकालत की थी और 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने आयोग की रिपोर्ट या सिफ़ारिशों को लागू किया था।
1992 में जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो शीर्ष अदालत ने सरकार के इस फ़ैसले को बरकरार रखा था। 1992 से ही केंद्र सरकार की सरकारी नौकरियों में ओबीसी वर्ग की जातियों के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू कर दिया गया। इस मामले को इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले के नाम से भी जाना जाता है।
ठाकरे सरकार ने महाराष्ट्र सरकार की नौकरियों में मराठा समाज के लिए 13 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था। मुंबई हाई कोर्ट ने इसे वैध भी करार दिया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी। बीजेपी ने इस मुद्दे पर ठाकरे सरकार को घेर लिया था।
सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान मुकुल रोहतगी ने ठाकरे सरकार द्वारा मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए बनाए गए क़ानून का समर्थन किया और मंडल मामले में शीर्ष अदालत के फ़ैसले के कई पहलुओं को सामने रखा। रोहतगी ने कहा कि केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से ग़रीब लोगों को दिया गया दस फ़ीसदी का आरक्षण भी 50 फ़ीसदी के तय मानक का उल्लंघन करता है।
50 फ़ीसदी की तय सीमा को पार करने के लिए मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में एक रास्ता निकाला था। सरकार ने संविधान के 124वें संशोधन विधेयक के ज़रिये ग़रीब सवर्णों के लिए दस फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू कराई थी।
इस पर बेंच की ओर से कहा गया कि, “अगर 50 फ़ीसदी जैसी या कोई सीमा ही न हो तो फिर समानता के तर्क का क्या होगा। हमें इस मामले को देखना ही होगा। इससे पैदा होने वाली असमानता का क्या होगा और कितनी पीढ़ियों तक आप इसे जारी रखेंगे।” बेंच में जस्टिस भूषण के अलावा, जस्टिस एल. नागेश्वर राव, एस. अब्दुल नज़ीर, हेमंत गुप्ता और एस. रविंद्र भट शामिल हैं।
रोहतगी ने कहा कि ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से मंडल मामले में अदालत के फ़ैसले पर फिर से देखा जा सकता है और 1931 के बाद से जनसंख्या बहुत ज़्यादा बढ़ चुकी है।
बेंच ने कहा कि आज़ादी के 70 साल हो चुके हैं और राज्यों ने कई कल्याणकारी योजनाएं चलाई हैं और क्या हम इस बात को स्वीकार कर सकते हैं कि कोई भी पिछड़ी जाति आगे नहीं बढ़ी है।
इस पर रोहतगी ने कहा, “हां, हम आगे बढ़े हैं लेकिन ऐसा नहीं है कि पिछड़ा वर्ग 50 से 20 फ़ीसदी पर आ गया है। हमारे देश में अभी भी भूख से मौतें हो रही हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इंदिरा साहनी पूरी तरह ग़लत हैं और इसे कूड़े में फेंक दिया जाना चाहिए।”
रोहतगी ने कहा कि वह यह मुद्दा उठा रहे हैं कि तब से अब तक 30 साल हो चुके हैं, क़ानून बदल गया है, जनसंख्या बढ़ चुकी है और पिछड़े लोगों की संख्या भी बढ़ सकती है। उन्होंने क़ानून में हुए संशोधनों का भी हवाला दिया।
मराठा आरक्षण बड़ा मुद्दा
मराठा आरक्षण का मुद्दा हमेशा से ही महाराष्ट्र की सियासत को प्रभावित करता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मराठा समाज ने पिछले साल 10 अक्टूबर को इस मुद्दे पर महाराष्ट्र बंद का आह्वान किया था। उस दौरान मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण गत ने मराठा समाज के नेताओं से मुलाक़ात की थी और उन्हें मनाया था।
सरकार में ही अलग राय
ठाकरे सरकार में सहयोगी कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की तरफ़ से भी मुख्यमंत्री ठाकरे पर दबाव डाला जा रहा है कि वह मराठा समाज को आरक्षण दे, लेकिन ओबीसी आरक्षण कोटे पर उसका प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। यानी मराठा आरक्षण का अलग से ही प्रावधान हो। जबकि शिव सेना का तर्क है कि तमिलनाडु में जब आरक्षण की सीमा बढ़ाकर आरक्षण दिया जा सकता है तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं।
कर्नाटक 70, आंध्र प्रदेश 55 और तेलंगाना 62 फ़ीसदी तक आरक्षण बढ़ाना चाहते हैं। राजस्थान और हरियाणा में भी कुछ जातियां आरक्षण की ज़ोरदार मांग करती रही हैं और यहां हिंसक प्रदर्शन तक हो चुके हैं।
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