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सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा मनमाने ढंग से विध्वंस (डिमोलिशन) के खिलाफ पहली बार दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें फैसला सुनाया गया कि नागरिकों की आवाज को "उनकी संपत्तियों को नष्ट करने की धमकी देकर दबाया नहीं जा सकता" और इस तरह के "बुलडोजर न्याय" के लिए कानून द्वारा शासित समाज में कोई जगह नहीं है।
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बुलडोजर के माध्यम से इंसाफ न्यायशास्त्र की किसी भी सभ्य प्रणाली के लिए अज्ञात है।
-सुप्रीम कोर्ट, 6 नवंबर 2024 सोर्सः लाइव लॉ
सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य सुरक्षा उपाय तय करते हुए, सीजेआई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने फैसला सुनाया कि-
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राज्य सरकार द्वारा इस तरह की मनमानी और एकतरफा कार्रवाई को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता... अगर इसकी अनुमति दी गई, तो अनुच्छेद 300 ए के तहत संपत्ति के अधिकार की संवैधानिक मान्यता एक मृत पत्र (डेड लेटर) में बदल जाएगी।
-सुप्रीम कोर्ट, 6 नवंबर 2024 सोर्सः लाइव लॉ
अदालत ने किसी भी संपत्ति को ढहाने से पहले छह आवश्यक कदम उठाने का आदेश दिया, यहां तक कि विकास परियोजनाओं के लिए विध्वंस की कार्रवाई के दौरान भी पालन करना होगा।
सुप्रीमकोर्ट के दिशानिर्देश सितंबर 2019 में यूपी के महाराजगंज जिले में पत्रकार मनोज टिबरेवाल आकाश के पैतृक घर को ध्वस्त करने के मामले से सामने आए। अधिकारियों ने दावा किया था कि राष्ट्रीय राजमार्ग के विस्तार के लिए विध्वंस आवश्यक था। लेकिन इसकी जांच में उल्लंघन का एक पैटर्न सामने आया जिसे अदालत ने स्टेट पावर के दुरुपयोग का उदाहरण बताया। यानी पत्रकार मनोज टिबरेवाल के पैतृक घर को यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार ने बदले की भावना से गिरवाया था।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने पाया कि जहां कथित तौर पर सरकारी भूमि पर केवल 3.70 मीटर की संपत्ति का अतिक्रमण किया गया था, वहीं अधिकारियों ने बिना किसी लिखित नोटिस के 5-8 मीटर के बीच को ध्वस्त कर दिया। विध्वंस से पहले केवल ढोल बजाकर सार्वजनिक घोषणा की गई।
टिबरेवाल ने आरोप लगाया था कि यह विध्वंस इसलिए किया गया, क्योंकि उनके पिता ने ₹185 करोड़ की सड़क निर्माण परियोजना में कथित अनियमितताओं की एसआईटी जांच की मांग की थी। हालाँकि अदालत ने सीधे तौर पर इस दावे पर कुछ नहीं कहा, लेकिन उसने विध्वंस को चयनात्मक सजा के रूप में इस्तेमाल करने के खतरों पर जोर दिया।
अदालत ने कहा- “मनुष्य के पास जो परम सुरक्षा है, वह गृहस्थी के लिए है। कानून निस्संदेह सार्वजनिक संपत्ति पर गैरकानूनी कब्जे और अतिक्रमण की इजाजत नहीं देता है। जहां ऐसा कानून मौजूद है, वहां इसमें दिए गए सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिए।”
अदालत ने यूपी सरकार को याचिकाकर्ता को ₹25 लाख का अंतरिम मुआवजा देने का निर्देश दिया और यूपी के मुख्य सचिव को अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने और बिना नोटिस जारी किए या कोई रिकॉर्ड पेश किए घर को ध्वस्त करने के लिए जिम्मेदार दोषी अधिकारियों और ठेकेदारों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा- मुख्य सचिव को भी पर्याप्त सूचना के बिना क्षेत्र में किए गए इसी तरह के विध्वंस की जांच करनी चाहिए। एनएचआरसी के निर्देशानुसार यह तय करना चाहिए कि एफआईआर दर्ज की जाए और सीबी-सीआईडी द्वारा जांच की जाए। कोर्ट ने कहा- आदेश को मुख्य सचिव द्वारा एक महीने के भीतर लागू करना होगा और अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू होने की तारीख से चार महीने में समाप्त करनी होगी।
यह फैसला एक महत्वपूर्ण समय पर आया है जब जस्टिस बी आर गवई की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने हाल ही में राज्यों में मनमाने ढंग से विध्वंस को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर आदेश सुरक्षित रख लिया है। हाल के वर्षों में कई उदाहरण देखे गए हैं, खासकर भाजपा शासित राज्यों में, जहां अधिकारियों पर उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रदर्शनकारियों, अल्पसंख्यकों और सरकार के आलोचकों की संपत्तियों के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया गया है।
अदालत ने निर्देश दिया कि इन दिशानिर्देशों की प्रतियां तत्काल लागू करने के लिए सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को भेजी जाएं। यह स्पष्ट करते हुए कि कानून अवैध अतिक्रमणों को माफ नहीं करता है, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि हटाने के लिए स्थापित कानूनी प्रक्रियाओं और सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिए।
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