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दोषियों की रिहाई के खिलाफ याचिकाएं तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लाल और लखनऊ यूनिवर्सिटी की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा सहित अन्य ने दायर की थीं। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और जस्टिस उज्जल भुइयां ने अक्टूबर 2023 में फैसला सुरक्षित रख लिया था।
गुजरात सरकार ने 2022 में स्वतंत्रता दिवस पर एक कानून के आधार पर गैंगरेप और हत्या के दोषियों को रिहा कर दिया था। इन्हें रिहा करते वक्त सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का सहारा लिया गया था। इस पर विपक्ष, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नागरिक समाज ने कड़ी निंदा की। आम लोगों में आक्रोश फैल गया।
दोषी जब जेल से बाहर आए तो हीरो की तरह उनका स्वागत किया गया और उन्हें भाजपा सांसद और विधायक के साथ मंच साझा करते देखा गया। दोषियों में से एक, राधेशयाम शाह ने तो वकालत भी शुरू कर दी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट के ध्यान में लाया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मई 2022 में जस्टिस अजय रस्तोगी (रिटायर) द्वारा दिए गए अपने ही फैसले के खिलाफ कड़ी आलोचना की, जिसने दोषियों को गुजरात सरकार के समक्ष अपनी शीघ्र रिहाई के लिए अपील करने की अनुमति दी थी।
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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उस आदेश को रद्द करते हुए कहा कि दोषियों को 2022 का सुप्रीम कोर्ट का आदेश "कपटपूर्ण तरीकों से" मिला। गुजरात सरकार को इस आधार पर 2022 के आदेश की समीक्षा के लिए याचिका दायर करनी चाहिए थी कि वे दोषियों को छूट देने के लिए सक्षम नहीं थी।
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दोषियों की मौत की सज़ा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया। ऐसी स्थिति में उन्हें 14 साल की सजा के बाद कैसे रिहा किया जा सकता है? अन्य कैदियों को रिहाई की राहत क्यों नहीं दी जाती है?
सुप्रीम कोर्ट, अक्टूबर 2023 सोर्सः लाइव लॉ
गुजरात सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने कहा कि चूंकि लोगों को 2008 में दोषी ठहराया गया था, इसलिए उन पर 1992 की नीति के तहत विचार किया जाना चाहिए।
गोधरा में 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों के दौरान भागते समय बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। उस समय वो 21 साल की थीं, वो पांच महीने की गर्भवती थीं। उनकी तीन साल की बेटी दंगों में मारे गए परिवार के सात सदस्यों में से एक थी।
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