हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति और तबादले पर सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम का फ़ैसला एक बार फिर विवादों में है। यह विवाद साम्प्रदायिक हिंसा और नागरिक स्वतंत्रता पर फ़ैसले देने के लिए प्रसिद्ध जस्टिस मुरलीधर के दिल्ली हाई कोर्ट से पंजाब और हरियाणा कोर्ट में तबादले को लेकर है। दिल्ली हाई कोर्ट के वकीलों ने इस फ़ैसले का विरोध किया है। कुछ महीने पहले ही कॉलीजियम के उस फ़ैसले पर सवाल उठे थे जिसमें इसने सरकार की आपत्ति पर गुजरात के जस्टिस अकील कुरैशी से जुड़ी अपनी ही सिफ़ारिश को पलट दिया था। इससे पहले जस्टिस विजया ताहिलरमानी के तबादले पर भी विवाद हुआ था। इस फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज जस्टिस मदन बी लोकुर ने भी सवाल उठाए थे। तो सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ही कॉलीजियम के फ़ैसले पर क्यों सवाल उठाते रहते हैं और इसके बावजूद एक के बाद एक ऐसी सिफ़ारिशें कॉलीजियम कर देता है?
हालाँकि कॉलीजियम ने तबादले का कारण नहीं बताया है। बता दें कि अक्टूबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम ने तबादले का कारण बताना शुरू किया था लेकिन एक साल बाद ही अक्टूबर 2018 से इसका कारण बताना बंद कर दिया।
तबादले पर दिल्ली हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने विरोध जताया है। उसने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए और इसको वापस लेना चाहिए। दिल्ली हाई कोर्ट में वकील, ख़ासकर युवा वकील, जस्टिस मुरलीधर के कायल रहे हैं। वह सुनवाइयों के दौरान अक्सर कहते रहते हैं कि उन्हें 'योर लॉर्डशिप' या 'माई लॉर्ड' कहकर न संबोधित किया जाए। उनके तटस्थ फ़ैसले भी लोगों को आकर्षित करते हैं।
जस्टिस मुरलीधर 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट की उस बेंच का हिस्सा रहे थे जिसने सबसे पहले धारा 377 को अपराध की श्रेणी से हटाया और एलजीबीटी समुदाय को अपनी सेक्सुअल पसंद की आज़ादी दी थी।
दिल्ली हाई कोर्ट में रहते ही उन्होंने भीमा कोरेगाँव मामले में एक अक्टूबर 2018 को सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा को घर की नज़रबंदी से रिहा करने का निर्देश दिया था। तब आरबीआई बोर्ड के सदस्य और आरएसएस विचारधारा वाले एस गुरुमूर्ति ने ट्विटर पर जज पर पक्षपात करने का आरोप लगाते हुए निशाना साधा था। इसके बाद गुरुमूर्ति पर अवमानना का केस चला था और इसे तब बंद किया गया जब उन्होंने बिना शर्त माफ़ी माँगी थी और अपनी टिप्पणी वापस ले ली थी।
पिछले साल ही जस्टिस मुरलीधर के नेतृत्व वाली बेंच ने हाशिमपुरा नरसंहार के मामले में उत्तर प्रदेश के 16 पूर्व पुलिसकर्मियों और सिख विरोधी दंगे के मामले में कांग्रेस के सज्जन कुमार को जेल भेजा था।
दरअसल कई मामलों में ऐसे आरोप लगते हैं कि संबंधित जज के किसी फ़ैसले पर विवाद हो जाता है या किसी ख़ास वर्ग को पसंद नहीं आता है। इसके बाद होने वाले तबादले पर सवाल खड़े किए जाने लगते हैं।
अकील कुरैशी का मामला
कॉलीजियम के उस फ़ैसले पर सवाल उठे थे जिसमें इसने सरकार की आपत्ति पर गुजरात के जस्टिस अकील कुरैशी से जुड़ी अपनी ही सिफ़ारिश को पलट दिया था। सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम ने जस्टिस अकील कुरैशी को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने के बजाए उन्हें त्रिपुरा हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाने की सिफ़ारिश की। मध्य प्रदेश का हाईकोर्ट देश के सबसे बड़े हाईकोर्ट में से एक है, जबकि त्रिपुरा हाईकोर्ट सबसे छोटा।
गुजरात हाई कोर्ट में रहते हुए जस्टिस कुरैशी ने कई अहम फ़ैसले सुनाए थे। उनमें से एक फ़ैसला गृह मंत्री अमित शाह से जुड़ा हुआ था। तब शोहराबुद्दीन शेख एन्काउंटर मामले में सुनवाई करते हुए जस्टिस कुरैशी ने उन्हें दो दिन की पुलिस कस्टडी में भेजा था। हालाँकि बाद में अमित शाह को इस केस में बरी कर दिया गया है।
जस्टिस ताहिलरमानी
मद्रास हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश विजया ताहिलरमानी ने अपेक्षाकृत छोटे मेघालय हाई कोर्ट भेजे जाने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। उनके तबादले के ख़िलाफ़ स्थानीय बार एसोसिएशन ने प्रदर्शन किया और उनके तबादले पर फिर से विचार करने का आग्रह किया था। हालाँकि कॉलीजियम ने कहा था कि बदलाव संभव नहीं है।
जस्टिस ताहिलरमानी ने बिलकीस बानो सामूहिक बलात्कार कांड के दोषियों की सज़ा को बहाल रखा था। उस बलात्कार कांड का मुक़दमा गुजरात हाई कोर्ट में चला था और उसमें 11 लोगों को सज़ा हुई थी। बाद में इस फ़ैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट भेजा गया था, जहाँ ताहिलरमानी कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थीं। बिलकीस बानो केस 2002 गुजरात दंगे के समय हुआ था।
जस्टिस जयंत पटेल ने दिया था इस्तीफ़ा
कर्नाटक में जस्टिस जयंत पटेल दूसरे सबसे वरिष्ठ जज थे और दो सप्ताह के अंदर उनकी तरक्की या तो कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश या फिर मुख्य न्यायाधीश के तौर पर होनी थी। लेकिन एकाएक उनको इलाहाबाद कोर्ट में तबादला कर दिया गया था जहाँ वह वरिष्ठता में तीसरे नंबर के जज होकर रह गए थे। बाद में उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था।
जस्टिस पटेल ने इशरत जहाँ एन्काउंटर मामले की सुनवाई की थी। इशरत जहाँ एन्काउंटर का मामला 2004 में तब हुआ था जब गुजरात में मोदी की सरकार थी और कहा गया था कि मुख्यमंत्री को मारने की आतंकी साज़िश रची जा रही थी। इसी मामले में यह मुठभेड़ हुई थी।
जस्टिस जोसेफ़ का विवाद
एक ऐसा ही विवाद एक साल पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस के. एम. जोसेफ़ को लेकर भी हुआ था। सुप्रीम कोर्ट कॉलीजियम ने जस्टिस जोसेफ़ को सुप्रीम कोर्ट जज बनाने की सिफ़ारिश की थी। सरकार ने आपत्ति जताई। लेकिन कॉलीजियम अपनी सिफ़ारिश पर अड़ा रहा। हालाँकि, अंत में जस्टिस जोसेफ़ की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति को केंद्र सरकार को हरी झंडी देना पड़ा। बता दें कि जस्टिस जोसेफ़ ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसले को पलट दिया था और बीजेपी को तगड़ा झटका लगा था। जस्टिस जोसेफ़ ने उत्तराखंड में केंद्र के राष्ट्रपति शासन लगाने के फ़ैसले को खारिज कर हरीश रावत को फिर से मुख्यमंत्री बनने का रास्ता सुनिश्चित कर दिया था।
इन विवादों पर रिटायर होने के पहले तक कॉलीजियम के सदस्य रहे जस्टिस मदन बी. लोकुर ने लिखा था, 'कॉलीजियम को विवादों की आदत रही है। लेकिन अब इसकी सिफ़ारिशों पर हमले हो रहे हैं। वे कौन-सी विवादित सिफ़ारिशें रही हैं और उनकी क्यों आलोचना हो रही है? इस पर विचार करने की ज़रूरत है क्योंकि इन सिफ़ारिशों में किसी तरह की तारतम्यता नहीं दिखायी देती है, मनमाने ज़्यादा लगते हैं।'
कॉलीजियम की सिफ़ारिशें पर लगातार विवाद होने, जस्टिस लोकुर की इस टिप्पणी और सुधार के सुझाव के बाद भी स्थिति नहीं बदली है।
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