बिश्केक में चल रहे शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में सारा फ़ोकस ही बदला हुआ लग रहा है। भारतीय टीवी चैनल और अख़बार ऐसा दर्शा रहे हैं, जैसे यह आठ राष्ट्रों की बैठक भारत-पाक तनाव को लेकर ही हो रही है। वास्तव में इस बैठक का असली मुद्दा यह है कि रुस और चीन मिलकर अमेरिकी दादागीरी का मुक़ाबला कैसे करें। ये दोनों महाशक्तियाँ अपने दंगल में भारत को भी शामिल करना चाहती हैं लेकिन भारत और अमेरिका के रिश्तों में थोड़े से तात्कालिक तनाव के बावजूद काफ़ी गहराई पैदा हुई है।
डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी के बीच जो सहज समीकरण बन गया है, उसे बिश्केक भावना के द्वारा हिलाया नहीं जा सकता। जहाँ तक मोदी और इमरान की भेंट का सवाल है, उसका होना तो अब असंभव ही लगता है। लेकिन मैं यह मानता हूँ कि भारत ने बालाकोट हमले और उसके बाद की प्रतिक्रियाओं से पाकिस्तान को काफ़ी सबक सिखा दिया है। यदि अब भी वह अपनी चुनावी मुद्रा धारण किए रहेगा तो उससे न तो पाकिस्तान पर कोई असर पड़ने वाला है और न ही आतंकवाद ख़त्म होने वाला है।
यदि पाकिस्तान की सरकार और फ़ौज़ अपने आतंकवादियों का सफाया कर दे तो भी क्या आतंकवाद ख़त्म हो सकता है? नहीं हो सकता, क्योंकि कश्मीर, सिंक्यांग और काबुल में जो आतंकी सक्रिय हैं, वे सब पाकिस्तानी नहीं हैं और न ही वे पाकिस्तान के एजेंट हैं। वे स्वयंभू हैं। उनके अपने लक्ष्य हैं। वे पाकिस्तान से मदद लेते हैं। लेकिन पाक सरकार और फ़ौज़ से मतभेद होने पर वे पाकिस्तान के अंदर भी आतंक का नंगा नाच रचाते हैं।
यदि हम इसी शर्त पर अड़े रहे कि जब तक आतंकवाद ख़त्म नहीं होगा, तब तक कोई बात ही नहीं होगी तो मान लीजिए कि अगले दस-बीस साल बात ही नहीं होगी। जरा सोचिए कि एक तरफ़ इमरान बातचीत के लिए जमकर आग्रह कर रहे हैं और उधर अनंतनाग में आतंकी घटना घट गई! क्या ऐसा काम पाकिस्तानी सरकार के इशारे पर हो सकता है? बिल्कुल नहीं।
पाकिस्तान और भारत के बीच कहीं बातचीत शुरू न हो जाए, इसी डर से आतंकियों ने हमारे पाँच जवानों को ऐन बिश्केक के वक़्त मार डाला। दूसरे शब्दों में हम अनजाने ही आतंकवादियों के हाथ की कठपुतली बन रहे हैं। हम उनके हाथ क्यों मजबूत कर रहे हैं?
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