सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद अहम फ़ैसले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निरोधी) अधिनियम से जुड़े अपने पहले के फ़ैसले को पलट दिया है। उस फ़ैसले के आधार पर एससी/एसटी एक्ट के दुरुपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश तय किए गए थे।
सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के खंडपीठ ने पहले के दो जजों के खंडपीठ के फ़ैसले को पलटते हुए कहा कि उसे दिशा निर्देश देने ही नहीं चाहिए थे क्योंकि यह काम विधायिका के अधिकार क्षेत्र में आता है।
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है और इससे जुड़े अधिनियम का दुरुपयोग भी होता है, लेकिन दुरुपयोग के आधार पर क़ानून में ही बदलाव नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने 18 सितंबर को पहले के तीन जजों की बेंच के बीते साल के 20 मार्च के फ़ैसले की आलोचना की थी और सवाल उठाया था कि क्या संविधान की मूल आत्मा के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसला सुनाया जा सकता है? सर्वोच्च अदालत ने संकेत दिया था कि बराबरी कायम करने के लिए नियम क़ानून के मुताबिक़ यह कोई आदेश जारी कर सकती है। इसने कहा था कि आज़ादी के 70 साल बाद भी एससी/एसटी समुदायों के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है और अब भी भी उनके साथ छुआछूत होता है।
एससी/एसटी एक्ट के तहत गिरफ़्तारी के प्रावधान को कमज़ोर करने के ख़िलाफ़ केंद्र सरकार ने एक अर्जी दाखिल की थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 13 सितंबर को तीन जजों के खंडपीठ को भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च, 2018 के फ़ैसले के ख़िलाफ़ पूरे देश में एससी/एसटी के लोगों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन किया था। इसके बाद इस असंतोष को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निरोधक) अधिनियम, 2018 संसद से पारित कराया था।
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