कोरोना वायरस से मारे गए लोगों को मुआवजा देने से इनकार कर चुकी केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ा झटका दिया है। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से कोरोना से मारे गए लोगों का सच सामने आ सकता है! अदालत ने बुधवार को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी एनडीएमए को कहा है कि वह कोरोना से हताहत हुए लोगों के परिवार वालों को मुआवजा देने के नियम और राशि छह हफ़्ते में तय करे। मुआवजा दिए जाने की स्थिति में सरकार के लिए बहुत बड़ी परेशानी यह आएगी कि कोरोना से मारे गए लोगों की संख्या काफ़ी ज़्यादा बढ़ सकती है। मुआवजा मिलने की स्थिति में कोरोना काल में मारे गए लोगों के परिजन तो इसके तहत मुआवजे के लिए दावे करेंगे। सरकारी आँकड़ों के अनुसार अब तक 3 लाख 98 हज़ार 454 लोगों की मौत बताई गई है, लेकिन कई ऐसी रिपोर्टें आ गई हैं कि मृतकों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा होगी।
तो मुआवजे की घोषणा से मृतकों की वास्तविक संख्या का सच आने का डर है? क्या इसीलिए पहले केंद्र सरकार ऐसे किसी मुआवजे की बात से इनकार कर चुकी है? या फिर सरकार की आर्थिक हालत इतनी ख़राब है कि वह क़रीब 4 लाख लोगों को भी आर्थिक सहायता देने की स्थिति में नहीं है?
ख़ुद केंद्र सरकार इस बारे में क्या सोचती है उसके सुप्रीम कोर्ट को दिए बयान से भी समझा जा सकता है। उसने हलफनामा देकर अदालत से 10 दिन पहले ही कहा था कि वह कोरोना से मारे गए सभी लोगों के लिए 4-4 लाख रुपये का मुआवजा नहीं दे सकती है क्योंकि इससे पूरी आपात राहत निधि खाली हो जाएगी। सरकार का यह हलफनामा उस याचिका के जवाब में था जिसमें न्यूनतम राहत और कोरोना से मारे गए लोगों को मुआवजा या अनुग्रह राशि देने की माँग की गई थी।
इसके अलावा सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि कोविड-19 के पीड़ितों को मुआवजा नहीं दिया जा सकता है क्योंकि आपदा प्रबंधन क़ानून में केवल भूकंप, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं पर ही मुआवजे का प्रावधान है। सरकार ने कहा था कि यदि पूरे एसडीआरएफ़ यानी राज्यों के आपदा राहत फंड को कोरोना पीड़ितों के लिए अनुग्रह राशि पर ख़र्च किया जाता है तो राज्यों के पास कोरोना से लड़ने के लिए संसाधन नहीं बचेंगे।
कोरोना पीड़ितों को राहत देना सरकार के लिए कितना नागवार गुजर रहा है यह इससे भी समझा जा सकता है कि सरकार ने तो हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट के पहले के फ़ैसलों को लेकर याद दिलाया था कि न्यायपालिका केंद्र की ओर से निर्णय नहीं ले सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलीलों को नहीं माना। यह कहते हुए कि मुआवजे के नियमों या राशि पर फ़ैसला करना उसके दायरे में नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने एनडीएमए की आलोचना की।
अदालत ने कहा कि इस तरह के विवरणों के लिए ज़िम्मेदार एजेंसी अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में विफल रही है। इसने कहा कि यह 'राहत के न्यूनतम मानकों को देने के लिए बाध्य है, जिसमें अनुग्रह राशी की सहायता शामिल है।'
4 जुलाई को सेवानिवृत्त होने वाले जस्टिस अशोक भूषण और एमआर शाह की दो सदस्यीय पीठ ने कहा, 'हम एनडीएमए को राहत के न्यूनतम मानकों के अनुसार, कोविड के शिकार लोगों के परिवारों को मुआवजे के लिए दिशानिर्देश बनाने का निर्देश देते हैं।' न्यायाधीशों ने कहा, 'क्या उचित राशि प्रदान की जानी है, यह प्राधिकरण के विवेक पर छोड़ दिया गया है।' कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा है कि आर्थिक सहायता मैनडेटरी यानी ज़रूरी है, मनमर्जी के आधार पर नहीं।
अदालत ने यह भी कहा कि कोरोना से मरने वालों के लिए मृत्यु प्रमाण पत्र में मृत्यु की तारीख़ और कारण (सीओडी) शामिल होना चाहिए और परिवार के संतुष्ट नहीं होने पर सीओडी को ठीक करने के लिए तंत्र भी होना चाहिए।
अब इस हिसाब से जिन लोगों की मौत कोरोना से हुई होगी और जिन्हें सरकार ने अपनी सूची में शामिल नहीं किया होगा, उनकी सूची कितनी बड़ी हो सकती है। यह उन रिपोर्टों से भी पता चलता है जिसमें दावा किया गया है कि भारत में सरकारी आँकड़ों से कहीं ज़्यादा मौतें हुई हैं।
भारत में कोरोना के पॉजिटिव केस और इससे मरने वालों की संख्या कम दर्ज होने के जो आरोप लगाए जा रहे हैं, उस पर 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने मई महीने में एक रिपोर्ट छापी थी। 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने कई सर्वे और संक्रमण के दर्ज किए गए आँकड़ों के आकलन के आधार पर लिखा था कि भारत में आधिकारिक तौर पर जो क़रीब 3 लाख मौतें (अब तीन लाख 98 हज़ार से भी ज़्यादा) बताई जा रही हैं वह दरअसल 6 लाख से लेकर 42 लाख के बीच होंगी। इसकी यह रिपोर्ट कोरोना की दूसरी लहर से पहले के बारे में ही थी। यानी दूसरी लहर में हुई मौतों की संख्या उसमें शामिल नहीं थी। हालाँकि सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था।
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कोरोना की दूसरी लहर के दौरान बिहार में क़रीब 75 हज़ार लोगों की मौतें कैसे हुईं, इसका कोई अंदाज़ा नहीं है। दरअसल, बिहार में जनवरी-मई 2019 में लगभग 1.3 लाख मौतें हुई थीं। एनडीटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के नागरिक पंजीकरण प्रणाली के आँकड़ों के अनुसार 2021 में जनवरी से मई के बीच यह आँकड़ा क़रीब 2.2 लाख रहा। यह पिछले साल से क़रीब 82 हज़ार ज़्यादा है। इसमें से आधे से ज़्यादा यानी क़रीब 62 फ़ीसदी की बढ़ोतरी इस साल मई में दर्ज की गई थी। मई महीने में कोरोना से क़रीब 7 हज़ार मौतें होना माना गया है इसलिए कहा जा रहा है कि फिर 75000 मौतें ज़्यादा कैसे हो गईं। यह वह दौर था जब कोरोना संक्रमण अपने शिखर पर था।
बिहार के अलावा गुजरात, दिल्ली, झारखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी कोरोना से मौत के आँकड़े कम दर्ज किए जाने की शिकायतें आई थीं।
गुजरात से छपने वाले अख़बार 'दिव्य भास्कर' ने अपनी एक ख़बर में कहा था कि 1 मार्च से 10 मई के बीच 1.23 लाख मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किया गया है, जबकि सरकार का कहना है कि कोरोना से 4,218 लोगों की मौत हुई है। तो बाक़ी लगभग 1.18 लाख लोगों की मौत कैसे हुई? पिछले साल गुजरात में इसी दौरान 58 हज़ार मृत्यु प्रमाण पत्र दिए गए थे। यानी, पिछले साल की तुलना में इसी अवधि में 65 हज़ार अधिक लोगों की मौत हुई है।
दिल्ली में तीन म्युनिसपल कॉरोपोरेशन ने इस साल अप्रैल-मई में 34,750 मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किए। लेकिन सरकार का कहना है कि इन दो महीनों में कोरोना से 13,201 लोगों की मौत हो गई। इसके साथ ही यह सवाल उठना लाज़िमी है कि बाकी के 21,549 लोगों की मौत किससे और क्यों हो गई।
झारखंड सरकार ने घर-घर जाकर एक सर्वे किया और पाया कि अप्रैल-मई के दौरान 25,490 लोगों की मौत हो गई। लेकिन अप्रैल-मई 2019 में 17,819 लोगों की मौत हुई थी। सरकार का कहना है कि उसके पास 2020 के आँकड़े नहीं है क्योंकि अभी उस पर काम पूरा नहीं हुआ है।
तो सवाल वही है कि क्या मुआवजा दिए जाने पर ऐसे परिवारों के लोग सहायता राशि की मांग नहीं करेंगे। ऐसे में कोरोना से मौत का सरकारी आँकड़ा कितना ज़्यादा बढ़ने की आशंका रहेगी। जब मौत के ये आँकड़े ज़्यादा आएँगे तो सरकार की छवि का क्या होगा!
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