राहुल गाँधी के कांग्रेस में धीरे-धीरे बड़ी जिम्मेदारियां संभालने के दौरान यह चर्चा होती थी कि क्या पुराने नेता राहुल और उनकी टीम को बर्दाश्त कर पायेंगे। राहुल गाँधी की नई टीम को लेकर कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष की ख़बरें आती रहती थीं और पुराने और नये नेताओं में वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी।
बात शुरू करते हैं 2004 से जब राहुल गाँधी पार्टी में नए-नए सक्रिय हुए थे और अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। राहुल पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव थे और कांग्रेस में धीरे-धीरे अपनी ताक़त बढ़ा रहे थे। तब तक युवक कांग्रेस और कांग्रेस के छात्र संगठन (एनएसयूआई) में मनोनयन की परंपरा थी और इन संगठनों में पदाधिकारियों को पार्टी मनोनीत करती थी। लेकिन राहुल गाँधी ने दोनों ही संगठनों में आतंरिक चुनाव की प्रक्रिया को शुरू किया और इसका नतीजा यह निकला कि इन संगठनों में छात्र व युवा नेता अपने दम पर नेता बनकर आने लगे जबकि पहले उन्हें संगठन में आगे बढ़ने के लिए वरिष्ठ नेताओं के ‘आशीर्वाद’ की ज़रूरत पड़ती थी।
धीरे-धीरे युवक कांग्रेस और एनएसयूआई के नेता कांग्रेस संगठन में आगे बढ़े और यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान तो राहुल गाँधी ने अपनी पसंद के कई नेताओं को मंत्री बनाया और कई नेताओं को राज्यों में कांग्रेस की कमान सौंपी।
संगठन से लेकर सरकार तक मीनाक्षी नटराजन, अशोक तंवर, सुष्मिता देव, मिलिंद देवड़ा, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, दिव्या स्पंदना, रणदीप सुरजेवाला, राजीव सातव, आरपीएन सिंह, तरुण गोगोई, भंवर जितेंद्र सिंह, अमरेंद्र सिंह राजा वडिंग, राजेश लिलोठिया, अनिल चौधरी, दीपेंद्र हुड्डा, दीपक बावरिया, जीतू पटवारी से लेकर सैकड़ों चेहरों को वह पार्टी में आगे लाये और बूढ़े चेहरों वाली कांग्रेस एकदम ऊर्जावान दिखाई देने लगी।
लेकिन पुराने नेताओं के लिए इसे बर्दाश्त कर पाना आसान नहीं था। लोकसभा चुनाव 2019 के आते-आते राहुल गाँधी ने चुनाव की सभी अहम कमेटियों और संगठन में युवा नेताओं को जगह दी और कोशिश की कि एकदम नौजवान कांग्रेस दिखाई दे।
2019 का चुनाव राहुल गाँधी के सियासी भविष्य के लिए बेहद अहम था। उन्होंने रफ़ाल से लेकर कई और मुद्दों पर बीजेपी सरकार को घेरा और कोशिश की वह कांग्रेस के 2014 के ख़राब प्रदर्शन को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ें। लेकिन चुनाव नतीजे बेहद ख़राब रहे। इसके बाद राहुल गाँधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया और उनके इस्तीफ़ा देते ही वे नेता जिन्हें राहुल ही संगठन में आगे लाये थे, उन्होंने भी अपने इस्तीफ़े पार्टी हाईकमान को सौंप दिये। यह वही मौक़ा था जिसका इंतजार पार्टी में युवा नेताओं के आगे आने से उपेक्षित नेता कर रहे थे। उन्हें मौक़ा तब मिला जब सोनिया गाँधी ने पार्टी की कमान संभाल ली।
तंवर को हटाने से बढ़ी हलचल
सोनिया ने अध्यक्ष बनते ही राहुल के चहेते हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक तंवर को हटा दिया। इससे यह संदेश गया कि अब राहुल के क़रीबियों के दिन लद गए हैं और इसकी तसदीक तब हुई जब महाराष्ट्र कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम ने इन बातों पर मुहर लगाई कि पार्टी में सोनिया के क़रीबी नेता राहुल गाँधी के निकटस्थों के पर कतर रहे हैं। ठीक यही बात अशोक तंवर ने पार्टी छोड़ते हुए कही कि राहुल के क़रीबियों की राजनीतिक हत्या की साज़िश रची जा रही है।
नवजोत सिंह सिद्धू के मामले में भी सोनिया और राहुल की टीम आमने-सामने दिखाई दी। सिद्धू कहते रहे कि उनके कैप्टन राहुल गाँधी हैं लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने जब सिद्धू के ख़िलाफ़ पूरा जोर लगा दिया तो सिद्धू को इस्तीफ़ा देना ही पड़ा क्योंकि राहुल गाँधी तब तक कुर्सी छोड़ चुके थे। तब यह ख़बर आई थी कि सिद्धू को सोनिया से मिलने का टाइम तक नहीं मिला था।
राहुल गाँधी की टीम के सदस्य यह शिकायत करते रहे हैं कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पार्टी की कमान युवा नेताओं के हाथ में नहीं जाने देना चाहते हैं।
भगदड़, गुटबाज़ी से परेशान
इस बीच कई राज्यों में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने इसे अलविदा कह दिया। गोवा में 15 में से 10 विधायक पार्टी छोड़कर चले गये। इनमें तो नेता विपक्ष तक शामिल थे। यही हाल महाराष्ट्र में रहा, जहाँ विधानसभा में नेता विपक्ष राधाकृष्ण विखे पाटिल सहित कई और नेताओं ने पार्टी को अलविदा कह दिया। तेलंगाना में उसके 12 विधायकों ने पार्टी छोड़कर तेलंगाना राष्ट्र समिति का दामन थाम लिया। महाराष्ट्र, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड सहित कई राज्यों में पार्टी भयंकर गुटबाज़ी से जूझ रही है।
अब बात पार्टी हाईकमान के हाथ से निकल चुकी है। अगर निरुपम, तंवर जैसे नेताओं से पहले ही कोई बातचीत की जाती और उन्हें समझाया जाता कि यह पार्टी का ख़राब समय है और उन्हें पार्टी में बने रहना चाहिए तो शायद यह दिन नहीं आता।
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