क्या किसी पार्टी की क़रारी हार का आत्ममंथन धड़ाधड़ इस्तीफ़ों के रूप में हो सकता है? जवाब होगा, 'नहीं', बल्कि पार्टी को हार की हताशा को भुलाकर पूरी ताक़त के साथ आगे के चुनावों की तैयारियों में जुट जाना चाहिए। लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में यही हो रहा है। लोकसभा चुनाव में मिली क़रारी हार के बाद पार्टी के अध्यक्ष पद से राहुल गाँधी ने इस्तीफ़ा दिया तो उसके बाद इस्तीफ़ों की झड़ी लग गयी। एकदम ताज़ा घटनाक्रम में शुक्रवार को पार्टी के 120 पदाधिकारियों ने इस्तीफ़ा दे दिया। अब सवाल यह खड़ा होता है कि क्या धड़ाधड़ इस्तीफ़े देने से कांग्रेस बीजेपी जैसी मज़बूत सांगठनिक क्षमता वाली पार्टी के सामने खड़ी हो पाएगी?
राहुल गाँधी इस जिद पर अड़े हुए हैं कि वह अब किसी भी सूरत में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नहीं रहेंगे। यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गाँधी, कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा, वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा, केसी वेणुगोपाल सहित कई नेता राहुल को कई बार समझा चुके हैं, लेकिन राहुल का कहना है कि वह पार्टी में काम करते रहेंगे। लेकिन अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं करेंगे। पार्टी के वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली के ताज़ा बयान ने इस पर मुहर लगा दी है। मोइली ने कहा है कि राहुल गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष रहने की संभावना एक फ़ीसद भी नहीं है।
लेकिन कांग्रेस के सांगठनिक हालात पर अगर नज़र डालें तो पार्टी हर मोर्चे पर पस्त नज़र आती है। जबकि अक्टूबर-नवंबर में ही तीन राज्यों - हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने हैं। और उसके बाद दिल्ली, जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में उसकी कोई मुकम्मल तैयारी नहीं दिखती जबकि बीजेपी इन सभी राज्यों में चुनावी तैयारियों में जुट गई है।
भयंकर गुटबाज़ी से जूझ रही पार्टी
कई राज्यों में कांग्रेस भयंकर गुटबाज़ी से जूझ रही है। इन राज्यों में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, कर्नाटक शामिल हैं। इन राज्यों में पार्टी नेताओं के बीच आपसी तालमेल का घोर अभाव होने के कारण ही लोकसभा चुनाव में उसे क़रारी हार मिली है।लोकसभा चुनाव के बाद हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जब राहुल ने इस्तीफ़े की पेशकश की तो महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चव्हाण, पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़, झारखंड कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार, असम कांग्रेस अध्यक्ष रिपुन बोरा ने झट से इस्तीफ़ा भेज दिया था। राज बब्बर और कमलनाथ ने भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने की पेशकश की थी। अब 120 पदाधिकारियों के इस्तीफ़े की पेशकश के बाद यह सवाल उठता है कि अगर राहुल अध्यक्ष नहीं रहेंगे तो क्या पार्टी के कार्यकर्ता काम करना छोड़ देंगे। क्या राहुल के भरोसे ही वह पार्टी से जुड़े हुए हैं।
निश्चित रूप से कांग्रेस के लिए देश की आज़ादी के बाद का यह सबसे ख़राब समय है जब वह कुछ ग़िने-चुने राज्यों में ही सत्ता में है और इनमें से भी कुछ जगहों पर वह गुटबाज़ी से जूझ रही है। ऐसे में पार्टी को इस ख़राब हालत से उबारने के लिए शीर्ष नेतृत्व को राज्यों में नेताओं की गुटबाज़ी पर लगाम लगानी होगी और इसके लिए कड़े से कड़े क़दम उठाने होंगे और पार्टी को एकजुट रखना होगा।
अब आते हैं मूल सवाल पर। हालाँकि कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में क़रारी हार मिली है और राहुल गाँधी के पूरा जोर लगाने के बाद भी वह 2014 में मिली 44 सीटों में केवल 8 सीटों की ही वृद्धि कर पाई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि पार्टी अपनी पुरानी स्थिति में नहीं लौट सकती है। जब वह आपातकाल के बाद 1977 में मिली क़रारी हार के बाद 1980 में सत्ता में वापसी कर सकती है, जब बीजेपी 2 सीटों से बढ़कर 303 के आंकड़े को छू सकती है तो कांग्रेस ऐसा क्यों नहीं कर सकती। बस उसे ख़ुद को ज़्यादा चुस्त-दुरुस्त दिखाने, जनता के मुद्दों पर संघर्ष करने की ज़रूरत है। पार्टी नेताओं को जनता के मन में यह विश्वास पैदा करने की ज़रूरत है कि वह उनकी लड़ाई को मजबूती से लड़ सकती है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब पार्टी आत्ममंथन करे और आगे का कोई बेहतर रोडमैप कार्यकर्ताओं के सामने रखे। वरना उसके लिए बीजेपी से मुक़ाबला करना बेहद मुश्किल होगा।
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