राहुल गांधी को एक बार फिर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने की मांग उठी है। दिल्ली में 23 जून को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इसका प्रस्ताव रखा। बताया जाता है कि कई वरिष्ठ नेताओं ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। सबसे अहम बात यह है कि बीते कुछ महीनों में अध्यक्ष बनने के प्रस्ताव को कई बार खारिज कर चुके राहुल गांधी ने इस बार ऐसा नहीं किया है।
लोकसभा चुनाव 2019 में कांग्रेस की करारी हार के बाद राहुल ने जब पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया तो लाख मनाने और अनुनय-विनय के बाद भी वह दोबारा पद संभालने के लिए तैयार नहीं हुए। अध्यक्ष पद के लिए कई नेताओं का नाम चला लेकिन पार्टी शायद नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष बनाने में हिचक रही है या ऐसी भी ख़बरें आईं कि कोई नेता इस जिम्मेदारी को लेने के लिए तैयार ही नहीं हुआ।
राहुल के न मानने पर सोनिया गांधी को अस्वस्थता के बावजूद अध्यक्ष की कुर्सी संभालनी पड़ी लेकिन वह अंतरिम अध्यक्ष के रूप में काम संभाल रही हैं और पार्टी के छोटे-बड़े नेता लगातार राहुल को फिर से अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं।
लगातार दो लोकसभा चुनाव में हार से पस्त पड़ी कांग्रेस में पार्टी के वरिष्ठ नेता कई बार नेतृत्व के संकट का सवाल उठा चुके हैं। इनमें दिल्ली में दो बार सांसद रह चुके संदीप दीक्षित से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर तक शामिल हैं।
नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भरता
सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस कब तक नेहरू-गांधी परिवार पर निर्भर रहेगी। पार्टी को अपने विरोधियों के इस आरोप का जवाब तो उन्हें देना ही होगा कि वह नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति को अध्यक्ष नहीं बनाना चाहती। हालांकि पूर्व में इस परिवार से बाहर के कई लोगों को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया है। इनमें बाबू जगजीवन राम से लेकर सीताराम केसरी और के.कामराज सहित कई और नाम शामिल हैं।
लेकिन बीते कुछ सालों में बीजेपी नेताओं और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वंशवाद का सवाल बार-बार उठाए जाने पर पार्टी नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को अध्यक्ष चुनकर इसका जवाब दे सकती है। हालांकि बीजेपी में वंशवादी नेताओं की एक लंबी बेल है लेकिन वह वंशवाद के नाम पर सिर्फ़ कांग्रेस को दोष देती है।
राज्य सरकारों व कांग्रेस इकाइयों पर संकट
कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश तक कांग्रेस या उसके नेतृत्व वाली सरकारों की विदाई हुई है। गुजरात, गोवा, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में विधायकों ने पार्टी को दग़ा दे दिया। ऐसे समय में निश्चित रूप से पार्टी हाईकमान की ओर नज़रें जाती हैं क्योंकि राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेने वाले लोग अक़सर सवाल पूछते हैं कि विधायकों की लगातार भगदड़ के बाद भी हाईकमान नेताओं की बातों, उनकी परेशानियों को क्यों नहीं सुनता।
जब स्थायी अध्यक्ष ही न हो तो पार्टी के लिए पसीना बहाने वाले या सोशल मीडिया पर भिड़ने वाले कार्यकर्ताओं को विपक्षी दलों द्वारा कांग्रेस में नेतृत्व संकट का सवाल उठाने पर चुप्पी साधने को मजबूर होना पड़ता है।
चुस्त दिखे राहुल
आख़िरकार कोरोना संकट के दौरान राहुल गांधी ने सक्रियता बढ़ाई और इन दिनों वह कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों से लेकर, लॉकडाउन के कारण प्रवासी मजदूरों, व्यापारियों, आम लोगों को हुई परेशानी, भारत-चीन सीमा विवाद, पेट्रोल-डीजल की बढ़ती क़ीमतों और जनता से जुड़े हर मुद्दे पर सोशल मीडिया पर ख़ासे सक्रिय हैं और मोदी सरकार पर सवालों की बमबारी कर रहे हैं।
पद संभाला तो कर पाएंगे कमाल?
अगर राहुल गांधी फिर से अध्यक्ष पद संभाल लेते हैं तो क्या वह निर्जीव पड़ी पार्टी में जान फूंक पाएंगे। क्या वह पार्टी की राज्य इकाइयों, जिला इकाइयों के नेताओं को पार्टी के फिर से ताक़तवर होने का भरोसा दिला पाएंगे। क्योंकि पार्टी के सत्ता में आने की आस हर कार्यकर्ता रखता है।
देखना होगा कि राहुल गांधी फिर से अध्यक्ष का पद संभालते हैं तो क्या वह कांग्रेस में चल रही जोरदार भगदड़ को रोक पाएंगे। बीते छह सालों में कई दिग्गजों, धुरंधरों ने पार्टी का दामन छोड़ दिया है। ऐसे में शहर व ब्लॉक की कांग्रेस इकाइयों में काम कर रहे कार्यकर्ताओं के मनोबल को ऊंचा उठाने के साथ ही और कांग्रेस का स्वर्णिम समय दोबारा आने का उन्हें भरोसा दिलाने का काम भी राहुल को करना होगा।
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