आशुतोष: प्रशांत जी, आपका बहुत-बहुत स्वागत है। अब आप कैसा महसूस कर रहे हैं- रिलीव्ड या विंडिकेटेड?
प्रशांत: नॉट विंडिकेटेड, सर्टेनली रिलीव्ड। एक तरह से दुख भी हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने जो कंटेंप्ट (अवमानना) की कार्रवाई की उससे अपनी छवि और धूमिल कर ली। जैसा मैंने बोला कि सुप्रीम कोर्ट कमजोर होता है तो हर नागरिक कमजोर होता है। स्ट्रांग (मजबूत) और इनडिपेंडेंट (स्वतंत्र) सुप्रीम कोर्ट की सबको ज़रूरत है। ये बहुत अनफॉर्च्युनेट (दुर्भाग्यपूर्ण) है कि इस प्रोसेस में सुप्रीम कोर्ट की इमेज को और झटका लगा। ये भी बहुत अनफॉर्च्युनेट है कि इतने विसियस जजमेंट मेरे ख़िलाफ़ दिये गये। आख़िर में एक रुपये जुर्माना लगाया लेकिन अगर आप जजमेंट पढ़ेंगे तो बहुत ही विसियस जजमेंट है।
आशुतोष : ऐसा आप क्यों कह रहे हैं कि विसियस जजमेंट है?
प्रशांत : उसमें बहुत कुछ बोला है। बार काउंसिल को भी बोला है। बार भी चाहे तो मुझे बार कर दे। ये जो जवाब दिया वो भी एग्रेवेशन ऑफ़ कंटेंप्ट है। प्रेस में जो बयान दिया वो भी एग्रेवेशन ऑफ़ कंटेंप्ट है। बहुत सारी बातें मेरे ख़िलाफ़ बोली हैं। जो कि हमलोग रिव्यू और रिट पिटिशन के द्वारा चैलेंज करेंगे।
आशुतोष : मैं अपने दर्शकों को बता दूं कि जजमेंट का जो पैरा नंबर 89 है उसमें ये बातें बड़ी प्रमुखता से कही गयी हैं। जब आप कहते हैं कि जजमेंट बहुत ही विसियस है तो क्या कारण है कि आपको एक रुपये का जुर्माना लगा कर छोड़ दिया।
प्रशांत : ये तो मेरे समझ में नहीं आया कि एक रुपये का जुर्माना लगा कर क्यों छोड़ दिया। क्या इसके पीछे कोई राज था ये मुझे पता नहीं। ख़ैर, मैं तो एक तरह से रिलीव्ड ही था। मैं तो एक तरह से हर चीज के लिये तैयार था। रिलीव्ड था कि बहुत कोई हार्स पनिशमेंट (कठोर दंड) नहीं इंपोज किया गया।
आशुतोष : आप मानसिक रूप से तैयार थे कि आप जेल जा सकते हैं?
प्रशांत : जी हाँ, मैं मानसिक रूप से तैयार था। इस बात को सोच लिया था कि ज़्यादा से ज़्यादा वो मुझे छह साल के लिये जेल भेज देंगे। सुप्रीम कोर्ट में साल दो साल के लिये प्रैक्टिस करने से बार कर देंगे। ट्विटर अकाउंट सस्पेंड कर देंगे। ये सब मैंने सोच रखा था। अगर ये सारी चीज़ें हो जाती हैं तो कोई आसमान नहीं गिर जायेगा। मैं अगर जेल जाऊँगा तो देखूँगा कि लोग किस तरह से किस हालात में रहते हैं। टाइम मिलेगा तो पढ़ूँगा। किताब भी लिखूँगा, न्यायपालिका के बारे में।
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बहुत लोग जेल जा चुके हैं। मेरे ग्रैंड पैरेंट्स एक-एक साल के लिये जेल जा चुके हैं। जेल गये थे इंडिपेंडेंस मूवमेंट (आज़ादी के आंदोलन) में। पिता जी भी एक हफ़्ते के लिये जेल गये थे। सिविल डिसओबिडियेंस में। और भी बहुत सारे। भीमा कोरेगाँव में दो-दो साल से जेल में पड़े हैं। तो ऐसा क्या है?
इंटरव्यू के दौरान प्रशांत भूषण
आशुतोष : घर में कुछ लोग परेशान थे? बच्चे आपके। घर के लोग।
प्रशांत : हाँ ज़रूर परेशान थे। रिलीव्ड फ़ील कर रहे हैं।
आशुतोष : प्रशांत जी। सुप्रीम कोर्ट ने आपसे बार-बार कहा कि आप माफ़ी माँग लीजिये। माफ़ी एक मैजिकल शब्द है। अगर आप सुप्रीम कोर्ट की गरिमा के लिये, मान रखने के लिये माफ़ी माँग लेते तो क्या ग़लत होता? आप ने एक मुद्दा उठाया। पब्लिक के बीच आया। अंततः एक मुद्दा तो बना। आप माफ़ी माँग लेते तो क्या ग़लत होता?
प्रशांत : माफ़ी माँग लेता तो मैं अपनी ग़लती स्वीकार कर लेता। जब मैंने गलती की ही नहीं, कम से कम मेरी राय में नहीं की है तो झूठी माफ़ी कैसे माँग लूँ। माफ़ी सच्ची होनी चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि मन से माफ़ी माँगें, आप उसके लिये रिमोर्स (पश्चाताप) फ़ील करें। फिर ये प्लेज (संकल्प) करें कि आगे मैं ऐसा नहीं करूँगा। तो मैं ये कैसे कर सकता था। जब मैं शुरू से ये मान रहा था कि जो मैंने बोला वो मेरी राय में बिल्कुल सच बोला था। और सोच-समझ के बोला। ऐसे नहीं कि गफ़लत में कह दिया।
आशुतोष : लेकिन अभी तो मामला ख़त्म नहीं हुआ है। 2009 का मामला है?
प्रशांत : हां। लेकिन उसमें बहुत सारे कांस्टीट्यूशनल मामले हैं। पहले तय करने पड़ेंगे और मुझे उम्मीद है कि कांस्टीट्यूशन बेंच को रेफ़र किये जायेंगे। और ये पुराना वाला मामला है उसमें रिव्यू भी फ़ाइल करेंगे और रिट भी फ़ाइल करेंगे। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बोला है कि क्रिमिनल कनविक्शन के ख़िलाफ़ एक अपील होनी चाहिये। ये ओरिजिनल क्रिमिनल कनविक्शन है। इसके ख़िलाफ़ एक अपील होनी चाहिये। सुप्रीम कोर्ट अपने जजमेंट में ये प्रोवाइड कर सकता था। जो रिव्यू फ़ाइल होगी वो नये जज़ेज के सामने जायेगी फिर इसकी एक इंट्रा कोर्ट अपील होगी जो पाँच जज सुनेंगे।
आशुतोष : जो ट्वीट आपने किया था उसका मक़सद क्या था? क्या आपको लगा कि जो ज्यूडिशियरी है वो दबाव में काम कर रही है? इंडिपेंडेंट नहीं रह गयी है, सरकार के दबाव में काम कर रही है? या ये आपको स्थापित करना था कि इस देश के अंदर वाणी की स्वतंत्रता महत्वपूर्ण है? जो लोग ज्यूडिशियरी में बैठे हैं, जज़ेज हैं अगर वो गलती करते हैं तो उसे प्वाइंट आउट करना एक नागरिक की ज़िम्मेदारी है? क्या था आपका मंतव्य?
प्रशांत : देखिये, ये वाला जो ट्वीट था जिसके तीन हिस्से थे। पिछले छह साल में लोकतंत्र का इस देश में काफ़ी पतन हुआ है। उस पतन को रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया। या बहुत कम किया। पिछले चार मुख्य न्यायाधीशों का उसमें काफ़ी बड़ा रोल रहा है। ये मैंने बहुत सोच-समझ कर किया था। मेरी ये बहुत क्लियर राय थी। इस देश में लोकतंत्र का बहुत पतन हुआ है, पिछले छह साल में। मोदी रिजीम के दौरान। और इस पतन को रोकने के लिये जो सुप्रीम कोर्ट का संवैधानिक दायित्व था मौलिक अधिकारों की रक्षा करना, कार्यपालिका को अपने दायरे में रखना, वो काम नहीं किया या नहीं के बराबर किया। पिछले चार चीफ़ जस्टिसेज का उसमें काफ़ी बड़ा रोल रहा। चीफ़ जस्टिस के पास एक बहुत बड़ी पावर होती है जिसे कहते हैं मास्टर ऑफ़ रोस्टर। कोई भी केस अपनी चहेती बेंच के सामने लगा सकते हैं। और ये हो रहा था और इसी पर वो चार जज़ेज ने प्रेस कॉन्फ्रेन्स भी की थी। तो मैंने सोच-समझ कर, ध्यान आकर्षण करने के लिये ताकि इस पर चिंतन हो सके कि भाई हमारे लोकतंत्र में पिछले कुछ सालों में हुआ क्या है और हमारे सुप्रीम कोर्ट ने छह सालों में किया क्या है, उस पतन को रोकने के लिये और उसमें चार चीफ़ जस्टिसेस का क्या रोल रहा है, किया था।
आशुतोष : आपका इशारा था कि ज्यूडिशियरी का जो संवैधानिक दायित्व है, वो काम वो नहीं कर रही है। क्या कारण आपको समझ में आता है?
प्रशांत : ये देखा गया है कि जब कोई बहुत स्ट्रांग सरकार होती है, इमरजेंसी के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट चरमरा गया था, हैबियस कॉर्पस में तो यही होल्ड कर दिया गया था कि कोई हैबियस कॉर्पस ही नहीं ला सकता, अभी जो सरकार है वो बहुत स्ट्रांग और फासीवादी सरकार है, इससे जज लोग थोड़ा डर जाते हैं। दूसरी तरफ़ इस दौरान ऐसे-ऐसे जज अप्वाइंट हो गये हैं जो कि ये कहते हैं, खुलेआम कहते हैं कि मोदी जी मेरे हीरो हैं। या मोदी जी ‘वर्सेटाइल जीनियस’ हैं। या जिनका कोई न कोई रिश्ता रहा है बीजेपी और आरएसएस के साथ, इस तरह के जज़ेज का भी अप्वाइंमेंट हुआ है।
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साथ में एक और चीज़ देखी गयी है कि ये सरकार अनफॉर्च्यूनेटली सारी एजेंसीज को यूज करती है। सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स, पुलिस सबका इस्तेमाल करती है, मीडिया को कंट्रोल करने के लिये, कई बार बिज़नेस हाउसेज को कंट्रोल करने के लिये और कई बार ये देखा जा रहा है कि जज़ेज को भी कंट्रोल करने के लिये इनका इस्तेमाल हो रहा है। इसलिये बहुत सारे कारण हैं। ये भी है जिसकी वजह से सुप्रीम कोर्ट की इंडिपेंडेंस पर आँच आ रही है।
इंटरव्यू के दौरान प्रशांत भूषण
आशुतोष : प्रशांत जी अगर आप देखें 2019 के पहले बहुत सारे ऐसे फ़ैसले हैं जिसपर लोगों ने दबे-छुपे आपत्तियाँ कीं। काफ़ी आलोचना हुई है। लेकिन अगर 2019 के लोकसभा के चुनाव के बाद देखें तो जो अर्जेंसी सुप्रीम कोर्ट को दिखानी चाहिये या जो उम्मीद की जा रही थी, चाहे वो धारा 370 का मसला हो, या फिर सीएए का मसला हो या फिर कश्मीर में हैबियस कॉर्पस का मसला या जो दिल्ली में दंगे हुए, जामिया में जो ब्रूटैलिटी हुई उस पर जो अर्जेंसी होनी चाहिये वो दिखाई नहीं दी। लेकिन प्रशांत भूषण अगर ट्वीट करते हैं तो एक महीने में उस पर फ़ैसला भी आ जाता है। क्या आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट दबाव में आकर ऐसा कर रहा है? क्या कारण है?
प्रशांत : देखिये ये तो साफ़ है क़रीब-क़रीब हर चीज में सरकार की इच्छा के अनुरूप ही सुप्रीम कोर्ट काम कर रहा है। कुछ सालों में। सारे के सारे अहम फ़ैसलों में सरकार की इच्छा के अनुसार ही फ़ैसले आ रहे हैं। चाहे वो अयोध्या का मसला हो या फिर चाहे राफेल हो। और भी बहुत सारे केस हैं। सरकार जिन केस की सुनवाई करवाना नहीं चाहती है, उसकी सुनवाई नहीं होती चाहे वो सीएए का चैलेंज हो या कश्मीर का मुद्दा हो ये तो बहुत बड़ी प्रॉब्लम दिख रही है।
आशुतोष : हो सकता है आपकी विचारधारा सरकार की विचारधारा से बिल्कुल अलग हो और सुप्रीम कोर्ट को ये लगता हो कि इस वक्त ये फ़ैसले किये जायेंगे तो शायद देश के अंदर स्थिति इतनी अच्छी नहीं होगी?
प्रशांत : देखिये, नज़रिया तो किसी का मुझसे अलग हो सकता है। लेकिन अगर कोई कहे कि काली चीज सफ़ेद है और सफ़ेद चीज काली तो मैं तो उसे नहीं मान सकता। अगर कोई कहे कि कश्मीर का मुद्दा अर्जेंट नहीं है, सीएए का मुद्दा अर्जेंट नहीं है, हैबियस कॉर्पस का मुद्दा अर्जेंट नहीं है या जामिया में पुलिस ने जो बर्बरता की वो अर्जेंट नहीं है या जेएनयू में जो गुंडागर्दी की गयी, पुलिस की निगरानी में वो अर्जेंट नहीं है तो मैं तो उसे नहीं मान सकता।
आशुतोष : क्या आपको लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का नेचर बदल गया है? जैसे अमेरिका में कंज़रवेटिव जज़ेज होते हैं, लिबरल जज़ेज हैं। क्या हिंदुस्तान में भी वो दौर आ गया है कि कंज़रवेटिव जज़ेज हैं और लिबरल जजेज हैं। कंज़रवेटिव जज़ेज का सोचना बिल्कुल अलग है और लिबरल का सोचना अलग है? और दोनों के बीच टकराव की स्थिति बनी रहती है। क्या 2014 के बाद सुप्रीम कोर्ट का जो स्वभाव है, उसका रिफ्लेक्शन दिखाई पड़ रहा है?
प्रशांत : मुझे आइडियालॉजी का उतना इश्यू नहीं लगता जितना इस बात का कि सुप्रीम कोर्ट के जज कितने स्वतंत्र हैं और कितने दमदार हैं, कि फासीवादी सरकार की मनमानी के ख़िलाफ़ कितने खड़े होने को तैयार हैं। ऐसा लगता है कि उसमें बदलाव थोड़ा आया है। इस समय ऐसे जज़ेज थोड़े कम रह गये हैं जो बोल्डली खड़े रह सकें। संविधान का जो उल्लंघन हो रहा है उसके ख़िलाफ़ बोल्डली खड़े हो सकें। ऐसे जज कम हो गये हैं।
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