भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर शुरू होने के बाद से अब तक केंद्रीय कैबिनेट की पांच बैठक हो चुकी हैं लेकिन इनमें इस महामारी को लेकर एक भी फ़ैसला नहीं लिया गया। कोरोना महामारी की दूसरी लहर मार्च के आख़िर या अप्रैल के पहले हफ़्ते से शुरू हुई थी और ये बैठकें भी 1 अप्रैल से 12 मई के बीच हुईं।
हैरान करने वाली बात ये भी है कि महामारी से जुड़े सारे फ़ैसले प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ही अकेले करता रहा तो ऐसे में भारत सरकार की कैबिनेट की आख़िर क्या भूमिका रह गयी?
कैबिनेट की इन बैठकों में मेट्रो प्रोजेक्ट्स, दूसरे देशों के साथ एमओयू साइन करना और कुछ अन्य योजनाओं को लेकर तो फ़ैसले लिए गए लेकिन कोरोना महामारी को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ।
‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, 20 अप्रैल को जब कोरोना की दूसरी लहर अपने चरम पर थी और देश भर में दिल दहला देने वाले हालात थे, उस दिन हुई मोदी कैबिनेट की बैठक में बेंगलुरू मेट्रो के दूसरे चरण से जुड़े प्रोजेक्ट्स को मंजूरी और न्यूज़ीलैंड, आस्ट्रेलिया, बांग्लादेश और ब्राजील के साथ कुछ आपसी समझौतों को मंजूरी दी गयी।
ऐसे हालात में सवाल यही खड़ा होता है कि इतनी भयंकर महामारी और सरकार की लापरवाहियों के कारण देश में बने हालात के वक़्त भी केंद्रीय कैबिनेट कोई भूमिका क्यों नहीं निभा पाया। इस दौरान सरकार के लिए महामारी से लड़ना ज़रूरी था या मेट्रो या दूसरे प्रोजेक्ट्स को मंजूरी देना।
बंगाल चुनाव पर रहा फ़ोकस
फरवरी से लेकर अप्रैल के आख़िर तक, यानी जब तक पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार ख़त्म नहीं हुआ, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और कुछ केंद्रीय मंत्रियों का पूरा फ़ोकस बंगाल पर रहा। इस दौरान कोरोना का संक्रमण बेतहाशा बढ़ गया और जब देश भर में ऑक्सीजन की कमी के कारण मौतें होने लगीं, लोग सड़कों और अस्पतालों के बाहर दम तोड़ने लगे, तब जाकर प्रधानमंत्री सक्रिय हुए और उन्होंने 23 अप्रैल को 10 राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की।
‘द न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, राज्यसभा के पूर्व महासचिव योगेंद्र नारायण कहते हैं, “हर मंत्री के पास अपना विभाग होता है और उस पर उसे दिए गए काम को करने की जिम्मेदारी होती है। यह प्रधानमंत्री के ऊपर होता है कि अगर वह सोचते हैं कि उन्हें किसी मंत्री को स्वास्थ्य मंत्री की मदद के लिए उनके साथ जोड़ना है तो वह ऐसा कर सकते हैं।”
योगेंद्र नारायण कहते हैं कि इस बात की जांच करनी होगी कि क्या कैबिनेट सेक्रेट्री ने वक़्त रहते प्रधानमंत्री को मुंह के सामने खड़े इस संकट के बारे में बताया था या नहीं, अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया था तो वह अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने में फ़ेल रहे।
कब-कब हुई कैबिनेट की बैठकें?
1 अप्रैल के अलावा मोदी कैबिनेट की बैठक 7 अप्रैल, 20 अप्रैल, 28 अप्रैल और 12 मई को हुई। पिछली यानी 12 मई को हुई बैठक में कैबिनेट ने आईटीबीपी की ज़मीन को उत्तराखंड सरकार को सौंपने का फ़ैसला किया।
भारत की संघीय व्यवस्था और संसदीय लोकतंत्र की जानकारी रखने वाला कोई भी शख़्स इसे जानकर हैरान ही होगा कि देश के साथ ही दुनिया भर के मामलों में मंजूरी कैबिनेट की इन बैठकों में दी गई लेकिन कोरोना महामारी को लेकर कोई फ़ैसला नहीं हुआ।
जबकि केंद्रीय कैबिनेट के सारे मंत्रियों से इस मामले में राय-मशविरा करने के साथ ही उन्हें जिम्मेदारियां भी सौंपी जा सकती थीं कि कोई मंत्री ऑक्सीजन का मामला देख ले तो कोई दवाइयों और अस्पतालों में बेड्स की कमी का।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं कि उन्होंने नोटबंदी जैसा बड़ा फैसला लेने से पहले भी किसी से कोई चर्चा तक नहीं की और बाद में नोटबंदी के जो फ़ायदे बताए गए, वैसा कुछ देश को नहीं मिला उल्टा 100 से ज़्यादा लोग नोट बदलवाने के लिए लाइनों में लगकर मर गए।
खड़े होंगे सवाल
इतनी भयंकर आपदा के वक़्त भी पीएमओ को ही सारे फ़ैसले करने हैं तो केंद्रीय कैबिनेट को नज़रअंदाज करने या मोदी सरकार में इसकी भूमिका पर भी निश्चित रूप से सवाल खड़े होंगे। क्योंकि यह मंत्रियों का समूह है जो किसी राज्य के नहीं बल्कि देश भर के मामलों को देखते हैं लेकिन इतनी बड़ी महामारी में भी उसकी भूमिका को कम कर दिया गया।
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