अदालतों में पहले से ही लंबित मामलों का भारी बोझ था और कोरोना काल में हालात बेहद ख़राब हो गये हैं। निचली अदालतों में अब रिकॉर्ड 4 करोड़ से ज़्यादा लंबित मामले हो गए हैं। कोरोना महामारी आने से पहले 3.2 करोड़ मामले ही लंबित थे। यानी क़रीब 80 लाख लंबित मामले बढ़ गए। यदि निचली अदालतों के साथ ही उच्च न्यायालयों और शीर्ष अदालत में लंबित मामलों को जोड़ लें तो 4.6 करोड़ मामले हो गए हैं जबकि मार्च 2020 तक कुल लंबित मामले 3.7 करोड़ ही थे। ऐसे हालात तब हुए जब कोरोना महामारी के दौरान अदालतों ने सुनवाई के ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल किया और अदालती प्रक्रिया भी डिजिटल हुई है। तो फिर दिक्कत कहाँ आई?
इन दिक्कतों से पहले यह जान लें कि कोरोना महामारी व लॉकडाउन के दौरान अदालती सुनवाई कैसे चली है और अदालतों में पहले से ही लंबित मामले क्यों रहे हैं। अन्य कारणों के अलावा अदालतों में जजों के खाली पद को प्रमुख कारण माना जाता रहा है। हाल के वर्षों में तो ये पद ज़्यादा खाली हुए हैं।
2006 में देश भर के उच्च न्यायालयों में जहाँ स्वीकृत 726 पदों में से 154 खाली थे वहीं अब स्वीकृत क़रीब ग्यारह सौ पदों में से क़रीब आधे खाली हैं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने एक लेख में लिखा था कि ज़िला अदालतों में 2019 में स्वीकृत 22 हज़ार 999 पदों में से 5045 पद खाली हैं। खाली पद होने का असर अदालतों में लंबित मामलों पर भी पड़ा है और ये काफ़ी ज़्यादा हो गए हैं। ज़िला अदालतों में 2006 में जहाँ 2.56 करोड़ केस लंबित थे वे अब 4 करोड़ लंबित हो गए हैं। उच्च न्यायालयों में भी इस रफ़्तार से लंबित मामले बढ़े हैं।
इसके बाद कोरोना काल में अदालतों में स्थिति और ख़राब हुई। ऐसा नहीं हुआ कि सुनवाई नहीं हुई। वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से सुनवाइयाँ चलीं। ऑनलाइन माध्यमों का सहारा लिया गया। ऊपरी अदालतों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ब्रॉडबैंड, हाई-स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी और कम्प्यूटरीकरण की समस्याओं का समाधान किया गया। हालाँकि निचली अदालतों में अभी भी इसकी समस्या है।
अब अदालतों में ई-फाइलिंग, कोर्ट फीस का ई-पे और ई-समन जारी करने को स्वीकार करने के लिए एक सॉफ्टवेयर का उपयोग किया जा रहा है।
हालाँकि कोरोना महामारी की शुरुआत में और लॉकडाउन के बाद कई राज्यों में बार एसोसिएशनों में शुरुआत में झिझक थी। अंग्रेज़ी अख़बार टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार कुछ बार एसोसिएशनों ने ई-कोर्ट और डिजिटल सुनवाई को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। उच्च न्यायपालिका ने भी उन्हें मजबूर नहीं किया। उन राज्यों की राजधानियों में भी पूर्ण अदालती कार्यवाही शुरू नहीं हुई जहाँ हाई-स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी कोई मुद्दा नहीं था।
अख़बार की रिपोर्ट में कहा गया है कि क़ानून मंत्रालय समय-समय पर शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों को याचिकाओं की ई-फाइलिंग, इलेक्ट्रॉनिक रूप से अदालती शुल्क का भुगतान और ई-मेल के माध्यम से ई-समन जारी करने के लिए अनिवार्य बनाने के लिए लिखता रहा है। हालाँकि, वाणिज्यिक अदालतों के अलावा दूसरी अदालतों के लिए इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया है।
तो सवाल है कि क्या अदालतों में सिर्फ़ ऑनलाइन प्रक्रिया किए जाने के बाद ही हालात सुधर जाएँगे? कोरोना महामारी और लॉकडाउन जैसे हालात में ये सहायक तो हो सकते हैं, लेकिन क्या बिना जजों की भर्ती के लंबित मामलों को निपटाना संभव हो सकेगा?
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