जेलों में क़ैद लोगों में पिछड़े समुदाय के लोगों, दलितों और मुसलमानों की संख्या दूसरे समुदाय के लोगों से अधिक क्यों है, यह सवाल उठना लाजिमी है। उनकी संख्या पूरे देश में उनके जनसंख्या के अनुपात से भी अधिक है। ऐसा क्यों है?
क्या कहते हैं एनसीआरबी के आँकड़े
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़ों पर एक नज़र डालने से ये बातें सामने आ जाती हैं। एनसीआरबी के आँकड़ों के हिसाब से जितने मुसलमानों को दोषी क़रार दिया जा चुका है और वे जेल में बंद हैं, उसकी तुलना में अंडर ट्रायल यानी ऐसे लोग जिन पर मुकदमा चल ही रहा है, ज़्यादा हैं। ऐसा क्यों है, ये सवाल पूरे समाज को मथना चाहिए।
एनसीआरबी के मुताबिक़, पूरे देश में सज़ायाफ़्ता क़ैदियों में 21.7 प्रतिशत तादाद दलितों की है। अनुसूचित जाति के लोग जिन पर मुकदमा चल रहा है, उनकी संख्या 21 प्रतिशत है। लेकिन पूरे देश में उनकी संख्या 16.6 प्रतिशत है।
मुसलमान
यही हाल मुसलिम समुदाय का है। देश में 14.4 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों की है, लेकिन सज़ायाफ़्ता क़ैदियों में से 16.6 प्रतिशत और अंडर ट्रायल में 18.7 प्रतिशत मुसलमान हैं। यानी जितने लोगों को सज़ा हो चुकी है, उनसे अधिक पर मुकदमे चल रहे हैं।ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के पूर्व प्रमुख एन. आर. वासन ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा,
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'इससे यह साफ़ है कि हमारी न्याय प्रणाली ग़रीबों के ख़िलाफ़ है। जो अच्छा वकील ले सकते हैं उन्हें ज़मानत मिल जाती है। ग़रीब आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण छोटे-मोटे अपराध में भी फँस जाते हैं।'
एन. आर. वासन, पूर्व प्रमुख, ब्यूरो ऑफ़ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट
न्याय प्रणाली पर सवाल
जेल में क़ैद लोगों के इस अनुपात का अध्ययन करने से पूरी न्याय प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं। न्याय प्रणाली को ऐसे समझा जा सकता है कि कुछ साल पहले तक कुछ जनजाति और समुदाय के लोगों को अपराधी माना जाता था। पश्चिम बंगाल के शबर खड़िया समुदाय के लोगों को अपराधी जनजाति कहा जाता था। यह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा था और उसमें सुधार नहीं किया गया था।इसी तरह न्याय प्रणाली में पैसे का प्रभाव भी सबके सामने है। कई बार लोग छोटा मोटा अपराध करके भी जेल में लंबे समय तक रह जाते हैं और उन्हें जमानत नहीं मिल पाती है क्योंकि उनके परिजन वकील नहीं रख पाते हैं या ज़मानत की रकम का इंतजाम नहीं कर पाते हैं।
कहने को सरकार उन लोगों को वकील देती है, जो खुद वकील नहीं रख पाते, पर ज़मीनी सच्चाई यह है कि बिन पैसे के मुकदमा नहीं लड़ा जा सकता है। न्याय प्रणाली ऐसी है जिसमें लोगों को कई साल तक मुकदमा लड़ना पड़ता है।
ऐसे में ख़ास समुदाय के लोगों की संख्या जेल में अधिक है तो यह चिंता की बात ज़रूर है, पर ताज्जुब की नहीं।
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