अपने घर-परिवार से दूर लॉकडाउन में फँसे हुए प्रवासी मज़दूरों में से लगभग 96 प्रतिशत लोगों को सरकार की ओर से खाने-पीने की चीजें नहीं दी गई हैं। ग़ैर सरकारी संगठन स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (एसडब्लूएएन यानी ‘स्वैन’) ने 13 अप्रैल को किए गए एक सर्वे में यह पाया है।
इंडियन एक्सप्रेस ने इस सर्वे के हवाले से यह कहा है कि लॉकडाउन की वजह से प्रवासी मजदूरों की स्थिति का जो अनुमान लगाया गया था, उनकी हालत उससे बदतर है।
देश से और खबरें
सर्वे क्या कहता है?
अख़बार ने एक खबर में कहा है कि लॉकडाउन की घोषणा होने के दो दिन बाद यानी 27 मार्च से ही भोजन के अधिकार (राइट टू फ़ूड) आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ताओं और भूख पर शोध करने वाले लोगों को जगह-जगह फँसे मज़दूरों की ओर से गुहार आने लगी थी। इस तरह के ज़्यादातर कॉल महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली और हरियाणा से आए थे।बेंगलुरू स्थिति अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर राजेंद्रन नारायणन ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा, ‘पहले हमने कुछ नक़द पैसे देने की सोची, पर हमने महसूस किया कि अभाव बहुत ही ज़्यादा है।’
लॉकडाउन की वजह से फँसे हुए मज़दूरों के 640 समूहों ने स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क के 73 कार्यकर्ताओं से 13 अप्रैल तक संपर्क साधा था। इन 640 समूहों में 11,159 मज़दूर थे।
मज़दूरों की दुर्दशा!
स्वैन ने इन मज़दूरों को कुल मिला कर 3.80 लाख रुपए नकद दिए। इसके अलावा नेटवर्क ने इन मज़दूरों को स्थानीय संगठनों से जुड़ने और सरकारी सुविधाएँ पाने में मदद की।जिन मज़दूरों ने नेटवर्क से संपर्क किया था, उनमें से अधिकतर वे लोग थे, जो काम की तलाश में जिस शहर को गए थे, वहीं फँस गए थे, वे सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करने का फ़ैसला नहीं ले सके।
नहीं पहुँची है सरकारी मदद!
जिन लोगों ने 13 अप्रैल तक नेटवर्क को फ़ोन किया था, उनमें से 44 प्रतिशत लोग खाने-पीने की चीजें और नक़द पैसे के लिए परेशान थे। लॉकडाउन के दूसरे हफ़्ते तक ऐसे लोगों की संख्या 36 प्रतिशत हो गई।स्वैन की रिपोर्ट में कहा गया है कि तमाम दावों के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारें अभी मज़दूरों तक पहुँचने की कोशिश ही कर रही हैं। लगभग 96 प्रतिशत मज़दूरों को सरकार से राशन नहीं मिला है और तकरीबन 70 फ़ीसदी लोगों के पास खाने को कुछ नहीं था।
हाल महाराष्ट्र का
जिस महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण सबसे ज़्यादा है, वहाँ 1 प्रतिशत से कम लोगों को राशन मिला है। सर्वे में शामिल 90 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि दो दिन बाद उनके पास खाने को कुछ नहीं रहेगा।सर्वे में यह भी कहा गया है कि मुंबई के एन्टॉप हिल्स इलाक़े में फँसे हुए 300 मज़दूरों ने कहा कि वे खाने की चीजों के लिए परेशान हैं, जहाँ खाने के पैकेट बाँटे गए, वहाँ से खबरें आईं कि पैकेट का खाना खाने से बच्चे बीमार पड़ गए।
कहाँ तक पहुँची सरकार!
इसमें यह भी कहा गया कि तलोजा-पनवेल इलाक़े में 600 मज़दूर फँसे हुए हैं, उनमें महिलाएँ और बच्चे भी शामिल हैं, उनके पास खाने की चीजें नहीं हैं और स्थानीय ग़ैर सरकारी संगठनों ने कहा कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों के वे खाने-पीने की चीजें देने की स्थिति में नहीं है, सरकार को ही कुछ करना चाहिए। पर सरकार के लोग वहाँ तक नहीं पहुँच सके हैं।सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन लोगों तक सरकार की ओर राशन नहीं पहुँचा है, उनकी तादाद 8 अप्रैल को 99 प्रतिशत थी, उसके बाद 13 अप्रैल को उनकी संख्या 96 प्रतिशत रही।
क्या है कारण?
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के नारायणन ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि असंगठित क्षेत्र के इन मज़दूरों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता है।उन्होंने कहा, ‘इन्टरस्टेट माइग्रेंट वर्कर्स एक्ट, स्ट्रीट वेंडर्स एक्ट और दूसरे कई क़ानूनों के मुताबिक़, राज्यों को इन मज़दूरों का हिसाब किताब रखना चाहिए, पर प्रशासन को इन लोगों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इसका नतीजा यह है कि अब ज़रूरत पड़ने पर प्रशासन के लोग उन मज़दूरों तक पहुँच नहीं पा रहे हैं।’
रिपोर्ट के अनुसार, सरकार के कहने के बावजूद 89 प्रतिशत मज़दूरों को उनके नियोक्ताओं ने लॉकडाउन की अवधि का वेतन नहीं दिया है।
वेतन नहीं मिला
इनमें से ज़्यादातर कामगारों को उन कंपनियों या उनके मालिकों के नाम-पता नहीं मालूम है, जहाँ वे काम करते हैं। ये मज़दूर बस उन ठेकेदारों को जानते हैं, जो उन्हें वहाँ तक ले जाते हैं और इन ठेकेदारों ने फ़ोन स्विच ऑफ़ कर दिया है।यदि सरकार ने इन मज़दूरों का रिकॉर्ड रखा होता तो आज वह उन तक पहुँच सकती थी, पर सरकार के पास तो कोई रिकॉर्ड है ही नहीं। ये मज़दूर बुरी स्थिति में फँसे हुए हैं, उन तक मदद नहीं पहुँच रही है और वे दाने-दाने को मुँहताज है, स्थिति यही है, सरकार माने या न माने।
अपनी राय बतायें