समाज के संचालन की प्रजातान्त्रिक प्रणाली को मानव जाति ने एक लम्बे और कठिन संघर्ष के बाद हासिल किया. प्रजातंत्र के आगाज़ के पूर्व के समाजों में राजशाही थी. राजशाही में राजा-सामंतों और पुरोहित वर्ग का गठबंधन हुआ करता था. पुरोहित वर्ग, धर्म की ताकत का प्रतिनिधित्व करता था. राजा को ईश्वर का प्रतिरूप बताया जाता था और उसकी कथनी-करनी को पुरोहित वर्ग हमेशा उचित, न्यायपूर्ण और सही ठहराता था.
पुरोहित वर्ग ने बड़ी चतुराई से स्वर्ग (हैवन, जन्नत) और नर्क (हैल, जहन्नुम) के मिथक रचे. राजा-पुरोहित कॉम्बो के आदेशों को सिर-आँखों पर रखने वाला पुण्य (सबाब) करता है और इससे उसे पॉजिटिव पॉइंट मिलते हैं. दूसरी ओर, जो इनके आदेशों का उल्लंघन करता है वह पाप (गुनाह) करता है और उसे नेगेटिव पॉइंट मिलते हैं. व्यक्ति की मृत्यु के बाद नेगेटिव और पॉजिटिव पॉइंटों को जोड़ कर यह तय किया जाता है कि वह नर्क में सड़ेगा या स्वर्ग में आनंद करेगा.
मगर किसी देश में प्रजातंत्र की स्थापना हो जाने मात्र से यह नहीं माना जा सकता कि वहां हमेशा प्रजातंत्र रहेगा. दुनिया के कई देशों और विशेषकर दक्षिण एशिया में मुश्किल से हासिल किये गए प्रजातंत्र का स्थान धर्म की चाशनी में लिपटी तानाशाही ने ले लिया है. श्रीलंका, म्यामांर, पाकिस्तान और भारत इसके उदाहरण हैं. कई मामलों में सर्वोच्च नेता, सरकार के मुखिया के साथ-साथ देश का मुख्य पुरोहित भी बन जाता है, जैसा कि हाल में भारत में देखा जा रहा है.
मगर हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अलग हैं. वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं और हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के घोषित लक्ष्य वाले आरएसएस के प्रशिक्षित प्रचारक हैं. सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को नस्ल या धर्म का लबादा ओढ़े तानाशाही बहुत पसंद आती है. धार्मिक राष्ट्रवादी समूह अपने सर्वोच्च नेता की छवि एक महामानव की बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखते.
इस तरह के राष्ट्रवादों को एक करिश्माई नेता की ज़रुरत होती है, जिसके आसपास एक प्रभामंडल निर्मित कर दिया जाता है. इस सर्वोच्च नेता से कोई प्रश्न नहीं पूछ सकता और ना ही उसके किसी निर्णय पर प्रश्नचिन्ह लगा सकता है. नरेन्द्र मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उनकी एक करिश्माई नेता की छवि बनाने के प्रयास शुरू हो गए थे. एपीसीओ नामक एक फर्म को इसका ठेका दिया गया. मोदी के बचपन को भी महिमामंडित करने के प्रयास हुए. एक कॉमिक बुक 'बाल नरेन्द्र’ प्रकाशित की गयी, जिसमें बताया गया कि बचपन में नरेन्द्र जब अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे तब गेंद पानी में गिर गई. वे तुरंत नदी में कूदे और गेंद के साथ-साथ मगरमच्छ का एक बच्चा भी नदी से निकाल लाए!
प्रधानमंत्री बनते ही मोदी ने कैबिनेट प्रणाली, जिसमें निर्णय सामूहिक होते हैं, को तिलांजलि दे दी. सारे निर्णय वे स्वयं लेने लगे और मंत्रियों के हाथों में कुछ न बचा. इस बीच, वे अपने-आप को 'प्रधान सेवक' भी बताते रहे. धीरे-धीरे वे धार्मिक कार्यक्रमों में अधिकाधिक भाग लेने लगे. धार्मिक स्थलों की उनकी यात्राओं में भी तेजी से वृद्धि हुई. इस बीच कॉर्पोरेट दुनिया के शहंशाहों ने मीडिया पर कब्ज़ा जमा लिया.
उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग उन्हें वोट देंगे, उन्हें उनके (मोदी) के अच्छे कामों का पुण्य मिलगा. मोदी क्या अच्छे काम कर रहे हैं? वे प्रजातंत्र को कमज़ोर कर रहे हैं, अपने चमचों के फायदे के लिए नीतियां बना रहे हैं, मुसलमानों और ईसाईयों का हाशियाकरण कर रहे हैं और प्राचीन भारत में व्याप्त ऊंच-नीच के मूल्यों का महिमामंडन कर रहे हैं.
यह कहना मुश्किल है कि क्या अन्य सभी तानाशाह भी स्वयं को भगवान मानते थे. मगर कम से कम एक तानाशाह ऐसा था जो यह मानता था कि वह भगवान है. यह बात एक पुस्तक में कही गयी थी, जिसे उसने स्वयं एक छद्म नाम से लिखा था. यह तानाशाह था एडोल्फ़ हिटलर और यह पुस्तक थी 1923 में प्रकाशित हिटलर की जीवनी 'एडोल्फ हिटलर: हिज लाइफ एंड स्पीचेस'. इस पुस्तक में हिटलर की तुलना ईसा मसीह से की गयी थी. इस पुस्तक के लेखक के रूप में जर्मन सामंत और योद्धा विक्टर वोन केयरबेर का नाम प्रकाशित था. मगर एक अध्येता के अनुसार, इसे हिटलर ने स्वयं अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए लिखा था.
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