क्या वित्त मंत्रालय इतना महत्वहीन विभाग है कि देश को पूरे समय के लिए एक अदद वित्त मंत्री की ज़रूरत नहीं है? यह सवाल उठना लाज़िमी इसलिए है कि रेल मंत्रालय और कोयला मंत्रालय का काम देख रहे पीयूष गोयल के कंधों पर वित्त मंत्रालय की ज़िम्मेदारी भी डाल दी गई है। गोयल अर्थशास्त्री नहीं है और न ही उन्हें वित्त मंत्रालय का कोई अनुभव है।
पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेन्ट गोयल को अरुण जेटली की ग़ैर मौजूदगी में वित्त मंत्रालय का काम सौंपा गया है। जेटली बीमार हैं और अमेरिका में इलाज करा रहे हैं। इसके पहले भी जेटली के बाहर रहने पर गोयल को ही वित्त मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया था।
इस बार गोयल वित्त मंत्रालय ऐसे समय देख रहे हैं, जब उन्हें अंतरिम बजट पेश करना है। अंतरिम बजट 1 फरवरी को पेश करना है, उन्हें लगभग 15-20 दिन का समय मिला, जिसमें उन्हें पूरी तैयारी करनी है। क़ायदे से अब तक बजट की तैयारी पूरी हो जानी चाहिए थी और उसे बस अंतिम समय के बदलाव से गुजरना था। उसके बाद बजट छापने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। मतलब यह कि गोयल के पास बजट तैयार करने के समय नहीं है।
पीयूष गोयल
इस बार का बजट दो कारणों से अधिक अहम है। पहली बात तो यह है कि देश की आर्थिक स्थिति बेहद बुरी है। सेंट्रल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस के आँकड़ों के मुताबिक़, बीते दिसंबर में औद्योगिक उत्पादन गिर कर 3.50 प्रतिशत पर आ गया, जो बीते 17 महीने का न्यूनतम है। कृषि उत्पादन में गिरावट नोटबंदी के बाद के समय से ही है, बीते साल भी हालत में कोई सुधार नहीे हुआ। बेरोज़गारी बीते चार साल में उच्चतम स्तर पर है। हर साल दो करोड़ रोज़गार के मौके बनाने के दावे को राजनीतिक नारेबाज़ी मान लिया जाए तब भी यह साफ़ है कि नए रोज़गार नहीं बने हैं और पुराने पारंपरिक रोज़गार में कमी आई है।
महंगाई दर 2016 से लगातार बढ़ती हुई 4.89 प्रतिशत पर पहुँच गई है। विदेशी निवेश में ज़बरदस्त कमी आई है, यह साल भर में 41 फ़ीसद गिरा है। साल 2017 की तुलना में 2018 की पहली छमाही में यह गिरावट देखी गई है। यह 794 अरब डॉलर से गिर कर 470 अरब डॉलर हो गई।
रुपये की कीमत साल भर में बुरी तरह टूटी है। एक डॉलर की क़ीमत 71 रुपये और 72 रुपये के बीच है। आयात बढ़ा है, रुपये की कीमत गिरने के बावजूद निर्यात नहीं बढ़ा है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत गिरने के बावजूद देश का आयात बिल बढ़ा है। बैलंस ऑफ़ पेमेंट का बुरा हाल है।
यह तो देश की अर्थव्यवस्था का मोटा हाल है। सरकार की माली हालत तो और खस्ता है। जीएसटी कलेक्शन इस महीने यानी जनवरी में तक़रबीन 93,000 करोड़ रुपये होने की संभावना है, जो पूरे साल के न्यूतनम स्तर पर होगा। आयकर उगाही पहले से बेहतर, पर लक्ष्य से बहुत पीछे है। सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्ट टैक्सेज़ का दावा है कि आयकर राजस्व 14 प्रतिशत बढ़ा है, पर यह बजट लक्ष्य 11,50,000 करोड़ रुपये से कम है। ऐसे में वित्तीय घाटा कम करने के लक्ष्य से सरकार पीछे रह जाएगी, यह तय है। सरकार ने इस साल वित्तीय घाटे को 3.3 प्रतिशत पर रोक रखने का लक्ष्य तय किया था, पर इसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं है।
उर्जित पटेल, पूर्व रिज़र्व बैंक गवर्नर
वित्त मंत्रालय के प्रति प्रधानमंत्री की उदासीनता के दूसरे उदाहरण भी हैं। रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता कम करने और इस संस्था को नुक़सान पहुँचाने के आरोप उन पर लगते रहे हैं। नोटबंदी जैसा एडवेंचर तो अपनी जगह है ही, वे केंद्रीय बैंक से अपने मनमाफ़िक ब्याज़ दर भी तय करवाने की कोशिश में रहते आए हैं। मनपसंद गवर्नर उर्जित पटेल से सरकार की ऐसी ठनी कि उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। अर्थशास्त्री अरविंद पानगढ़िया मोदी जी के निजी आग्रह पर विदेश का जमा जमाया करियर छोड़ कर नीति आयोग के अध्यक्ष बने थे। मोदी के समर्थन में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से टकराने वाले पानगढ़िया ने नीति आयोग को अलविदा कह दिया। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम भी छोड़ कर जा चुके हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मोदी सरकार का अंतिम बजट है। हालाँकि यह अंतरिम बजट है और इसके तहत सरकार को नीतिगत और दूरगामी फ़ैसले नहीं लेने चाहिए। पर सरकार फ़ैसले लेगी और इसकी पूरी संभावना है कि वह कई तरह के लोकलुभावन फ़ैसले भी करेगी। इसमें किसानोें के लिए क़र्जमाफ़ी और आयकर छूट की सीमा बढ़ाना भी शामिल है। सरकार ने रिज़र्व बैेक पर दबाव डाल कर सरप्लस रिज़र्व से तकरीबन 4 लाख करोड़ रुपये लेने की तैयारी कर ही ली है। ऐसे में क्या देश के पास एक पूरे समय का मंत्री नहीं होना चाहिए, यह सवाल स्वाभाविक है।
इस समय देश को एक कुशल अर्थशास्त्री वित्त मंत्री की ज़रूरत है, जो इस संकट की घड़ी से देश को कुशलतापूर्वक निकाल ले जाए और आम चुनाव में सत्तारूढ़ दल की नैया भी पार लगा दे।
पर प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्रालय एक ऐसे आदमी को दे दिया है, जो पहले से ही दो मंत्रालय संभाल रहा है और उसके पास वित्त मंत्रालय का कोई अनुभव भी नहीं है।
कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि नरेंद्र मोदी की जो कार्यशैली है, उस हिसाब से पूरे समय के वित्त मंत्री की बहुत अधिक ज़रूरत नहीं है। तमाम मंत्रालयों में नीतिगत और बड़े फैसले उनके ही होते हैं। वह एक तरह से अमेरिकी व्यवस्था के तहत राष्ट्रपति प्रणाली अपनाए हुए हैं, ऐसा लोगों का कहना है। यह भी कहा जाता है कि नोटबंदी का फ़ैसला वित्त मंत्री का नहीं था, पूरी सरकार का तो बिल्कुल ही नहीं था, वह सिर्फ़ प्रधानमंत्री का था। इसका एलान भी वित्त मंत्री ने नहीं, ख़ुद मोदी ने किया था।
सरकार के नीतिगत फ़ैसलों से अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ, वह अलग विषय है, पर वित्त मंत्रालय की पूरी परवाह न करना निश्चित रूप से चिंता का विषय है। प्रधानमंत्री इस पद पर किसी योग्य व्यक्ति को बैठा कर इसे पटरी पर लाने की कोशिश तो कर ही सकते थे। पर अब तो चुनाव के तारीखों के एलान होने का इंतजार हो रहा है, देर हो चुकी है। फ़िलहाल यही हाल रहेगा।
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