ऊपर की तसवीर देखिए। देखने भर से ही सिहरन पैदा हो गई न! सफ़ाई कर्मी गंदगी में डूब जाते हैं। नीचे उतरते ही साँसें अटक जाती हैं। और कई बार तो जान ही चली जाती है। उत्तरी दिल्ली के तिमारपुर में भी ऐसा ही हुआ। 37 साल के किशन सीवर लाइन साफ़ करने के लिए अंदर गए। साथ थीं सिर्फ़ साँसें। न तो फ़ेस मास्क, साँस लेने के उपकरण और न ही वर्दी या अन्य सुरक्षा के उपकरण। बस एक कुदाल काम करने के लिए दिया गया था। किशन को 400 रुपये मिलते। कुछ ही देर में सीवर लाइने से वह लापता हो गए। लापता क्या हुए, सात घंटे बाद अंदर से लाश निकली।
ऐसी लाशें निकलती रही हैं। मीडिया में ख़बरें आती हैं और चली जाती हैं। यदि दिल्ली के मोती नगर में चार सफ़ाई कर्मचारियों की एक साथ मौत हो जाती है तो थोड़ा-सा शोरगुल हो जाता है। मरने वालों की सही संख्या कितनी है, मंत्री से लेकर अफ़सर तक नहीं बता सकते हैं। क्योंकि ऐसी मौतों की गिनती तक के लिए अभी तक कोई ठोस काम तक नहीं हुआ है, इसके कारण या बचाव के उपाय के लिए नीति बनाने की तो बात ही दूर है। पिछले दो वर्षों में, शहर में सीवर, सेप्टिक टैंक और वर्षा जल संचयन गड्ढों की सफ़ाई करते समय 22 लोगों की मौत हो चुकी है।
सवाल यह है कि एक के बाद एक सफ़ाई कर्मियों की मौत के बाद भी समाधान क्यों नहीं निकलता? क्या यह शर्म की बात नहीं कि सफ़ाई करने में लोगों की जानें चली जाएँ और कान पर जूँ तक न रेंगे? क्या संवेदनाएँ मर चुकी हैं या इसे रोक पाने में नाकाम हैं?
ज़िम्मेदार कौन?
दरअसल, यह मामला अक्षमता का है ही नहीं। क्या फ़ेस मास्क, साँस लेने के उपकरण और वर्दी जैसे सुरक्षा के उपकरण भी उपलब्ध नहीं करा सकते हैं? क्या दुर्घटना की स्थिति में आकस्मिक योजना नहीं होनी चाहिए? यहाँ कोई रॉकेट साइंस की ज़रूरत तो है नहीं कि लोगों की जानें नहीं बचाई जा सकती हैं। यदि ऐसा है तो फिर कौन है ज़िम्मेदार?
आँकड़े नहीं तो समाधान कैसे निकलेगा?
सरकार के पास देश भर के ठोस आँकड़े तक नहीं है। मोटे तौर पर हर पाँच दिन में एक कर्मचारी की मौत होती है। हालाँकि, सरकारी की ओर से अख़बारों की कटिंग और इधर-उधर की सूचनाओं के आधार पर जनवरी, 2017 से लेकर 2018 के आख़िरी के महीनों तक सीवर लाइन में मरने वालों की संख्या 123 बताई गई। यह रिपोर्ट नेशनल कमीशन फॉर सफ़ाई कर्मचारी ने तैयार की है। लेकिन दिक्कत यह है कि इस संख्या का आधार ठोस नहीं है।
29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में से सिर्फ़ 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने आँकड़े भेजे हैं।
- इस पर आँकड़े इकट्ठा करने का काम सामाजिक न्याय मंत्रालय की इंटर-मिनिस्ट्रियल टास्क फ़ोर्स करती है। इसकी गिनती भी सिर्फ़ 18 राज्यों के 170 ज़िलों में ही होती है। यानी 400 से ज़्यादा ज़िलों को शामिल ही नहीं किया गया है। इन 170 ज़िलों में से सिर्फ़ 109 ज़िलों ने ही रिपोर्ट सौंपी है।
जबकि 300 सफ़ाई कर्मियों की जानें गईं
हालाँकि, मैग्सेसे अवार्ड जीतने वाले बेज़वादा विल्सन की संस्था सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन ने सरकार के आँकड़ों को ग़लत बताया है और इसकी संख्या 300 बताई। संस्था ने यह दावा सफ़ाई कर्मचारियों की मौत के आँकड़ों और उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर किया है। विल्सन ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में यह भी कहा कि सामाजिक न्याय मंत्रालय का काम मुख्य तौर पर मुआवजा देने से जुड़ा रहा है। यानी किसी कर्मचारी की मौत के बाद उनके परिवार की देखभाल करने में। वह कहते हैं कि इससे ज़्यादा किए जाने की ज़रूरत है।
बेज़वादा विल्सन ने कहा, ‘सफ़ाई कर्मचारियों की मौत को कम कर के आँका जाता है और उनकी ज़िंदगी को भी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो भी इससे सहमत था कि मौतों के लिए अलग-अलग डॉक्यूमेंट तैयार किए जाने चाहिए। लेकिन कुछ भी नहीं किया गया।’
सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन
सेप्टिक टैंक, नाली और मल-जल की सफ़ाई कराने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन जारी है। ऐसा इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में मल जल, सीवेज, सेप्टिक टैंक या नाले की सफ़ाई हाथ से करने पर पूरी तरह से रोक लगा दी है। इसलिए इस काम में मज़दूरों को लगाना ग़ैर-क़ानूनी है। पर इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्ज़ियां उड़ाई जाती रही हैं। सफ़ाई कर्मचाारी आंदोलन की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में इससे जुड़े आयोग से कहा कि वह पता लगाए कि इस तरह की कितनी मौतें हुई हैं। आयोग ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र प्रशासित क्षेत्रों से रिपोर्ट देने को कहा। सिर्फ़ 13 यानी आधे से भी कम राज्यों ने ही रिपोर्ट दी।
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