अब न्यायपालिका भी यह मानने लगी है कि नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ चले आन्दोलन को कुचलने में पुलिस ने ज़्यादतियाँ कीं, ख़ुद हिंसा की और निर्दोष लोगों को जानबूझ कर फँसाया, यहाँ तक कि पुलिस की गोलीबारी में मरे लोगों पर मुकदमे थोप दिए।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने बेहद गंभीर टिप्पणी करते हुए कहा कि पुलिस ने अपनी ज़्यादतियों को छिपाने की कोशिशें कीं और मामले की जाँच भेदभावपूर्ण तरीके से और ग़लत नीयत से की।
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पुलिस को फटकार
मंगलोर पुलिस ने मुहम्मद आशिक और दूसरे 20 मुसलमान युवकों को हथियार लेकर ग़ैरक़ानूनी तरीके से एक जगह एकत्रित होने, पुलिस थाने में आग लगाने की कोशिश करने, पुलिस को अपना काम करने से रोकने और निषेधाज्ञा का उल्लंघन करने के आरोप लगाए।अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा है कि पुलिस ने तमाम आरोप इस अनुमान पर लगाया कि ये युवक पॉपलुर फ्रंट ऑफ़ इंडिया से जुड़े हुए हैं।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने तीखी टिप्पणी करते हुए कहा, ‘हालांकि यह कहा गया है कि याचिकाकर्ता की भूमिका सीसीटीवी फ़ुटेज और फोटो से स्थापित होती है, अदालत के सामने इससे जुड़ा कोई सबूत पेश नहीं किया गया, जिससे यह पता चले कि उनके पास घातक हथियार थे।’
अदालत की गंभीर टिप्पणी
अदालत ने यह भी कहा है कि नागरिकता संशोधन क़ानून और एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन करना ही अपने आप में ग़ैरक़ानूनी काम नहीं है। अदालत ने कहा, ‘इस तसवीर से यह साफ़ है कि भीड़ के लोगों के पास कोई हथियार नहीं है, सिर्फ़ एक के हाथ में एक बोतल है। किसी भी तसवीर में पुलिस थाने के पास पुलिस का कोई जवान नहीं दिखता है।’अदालत ने कहा है कि जो तसवीरें दी गई हैं, उन्हें देखने से लगता है कि पुलिस वाले ही भीड़ पर पत्थर फेंक रहे हैं।
अदालत ने यह भी कहा है कि 'पुलिस की ज़रूरत से अधिक सक्रियता इससे साफ़ है कि धारा 307 के तहत एफ़आईआर उन लोगों के भी ख़िलाफ़ दर्ज किया गया है, जो पुलिस की गोलीबारी में ही मारे गए हैं।'
अदालत ने यह भी टिप्पणी की है कि कुछ पुलिस अफ़सरों के ख़िलाफ़ शिकायतें की गईं और उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज किया जाना चाहिए था, पर ऐसा नहीं किया गया। हाई कोर्ट ने यह भी कहा है कि इससे यह पता चलता है कि पुलिस ने अपनी मनमर्जी की है और निर्दोषों को भी फँसाया है।
अदालत की ये टिप्पणियाँ अहम इसलिए भी हैं कि पुलिस पर ज़्यादती करने के कई आरोप कई जगहों पर लगाए गए, हालांकि पुलिस इससे इनकार करती रही।
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