एक दिन पहले तक बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस दीपांकर दत्ता ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में शपथ ले ली। उनको शीर्ष अदालत में पदोन्नत करने की घोषणा क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने रविवार को ही ट्विटर पर की थी।
In exercise of the power conferred under the Constitution of India, Justice Dipankar Datta has been appointed as Judge of the Supreme Court of India.
— Kiren Rijiju (@KirenRijiju) December 11, 2022
I extend my best wishes to him !
9 फरवरी 1965 को जन्मे जस्टिस दत्ता इस साल 57 साल के हो गए हैं और इस तरह सुप्रीम कोर्ट में उनका कार्यकाल 8 फरवरी 2030 तक होगा। शीर्ष अदालत में सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष है।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, बॉम्बे हाइकोर्ट में अपने कार्यकाल के दौरान जस्टिस दत्ता ने कई अहम मुद्दों पर निर्णय पारित किए। जनवरी 2021 में जस्टिस दत्ता ने एक खंडपीठ का नेतृत्व करते हुए कई याचिकाओं का फ़ैसला किया और आपराधिक जाँच के दौरान 'मीडिया-ट्रायल' को न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप और 'अदालत की अवमानना' के बराबर माना।
रिपोर्ट के अनुसार, कुछ महीने बाद ही न्यायमूर्ति दत्ता की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने राज्य के तत्कालीन गृह मंत्री और राकांपा नेता अनिल देशमुख के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाली जनहित याचिकाओं पर प्रारंभिक सीबीआई जाँच का आदेश दिया था।
जस्टिस दत्ता की पीठ ने यह सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई कि महाराष्ट्र के अपाहिज रोगियों को घर पर टीकाकरण की सुविधा मिले।
हालाँकि, जस्टिस दत्ता के अनुसार भी सबसे चुनौतीपूर्ण जनहित याचिकाओं में से एक वह थी जहाँ उन्हें भारत के संविधान के अनुच्छेद 171 और 166 की व्याख्या करने के लिए कहा गया था। वह विधान परिषद में सदस्यों को मनोनीत नहीं करने के राज्यपाल के विवेक के बारे में बारे में था जबकि महाराष्ट्र की मंत्रिपरिषद ने उसकी अनुशंसा की थी। राज्यपाल ने एक वर्ष से अधिक समय तक विधान परिषद में 12 सदस्यों को नामित करने से इनकार कर दिया था।
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार एक अदालत को अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को निर्देश देने का अधिकार नहीं है। जस्टिस दत्ता ने कहा कि उचित समय के अंदर अपनी आपत्तियों से अवगत कराना राज्यपाल का कर्तव्य था, ऐसा नहीं होने पर वैधानिक मंशा विफल हो जाएगी।
रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस दत्ता ने सुशांत सिंह राजपूत मामले में ज़िम्मेदार रिपोर्टिंग के महत्व पर फ़ैसला सुनाते हुए प्रेस की स्वतंत्रता को बरकरार रखा। आदेश में कहा गया, 'लोकतंत्र में असहमति महत्वपूर्ण है... आलोचना पर आधारित राय एक लोकतांत्रिक समाज में अपनी स्वीकृति को मजबूत करती है। राज्य के सही प्रशासन के लिए उन सभी की आलोचना को स्वीकारना स्वस्थ है जो राष्ट्र के लिए विकास के लिए सार्वजनिक सेवा में हैं। लेकिन इसके साथ ही 2021 के नियमों के अनुसार, किसी भी व्यक्ति की आलोचना करने से पहले दो बार सोचना होगा...।'
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