मोदी सरकार की नीतियों की आलोचक रहीं प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर को क्या जेएनयू में प्रोफ़ेसर इमेरिटस पद से हटाने की तैयारी की जा रही है? यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि जेएनयू प्रशासन ने उनसे सीवी यानी जीवन परिचय जमा करने को कहा है ताकि उनके काम का आकलन किया जा सके कि उन्हें इस पद पर बनाए रखा जाए या नहीं। यह अजीब बात है कि जिन्होंने जेएनयू में 20 से ज़्यादा साल तक पढ़ाया, उनके शैक्षिक योगदान के लिए राष्ट्रीय और अंतरारष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार मिले और अभी भी उनके शोध को इतिहासकर अव्वल दर्जे का मानते हैं उनसे उनके काम के मूल्याँकन के लिए सीवी माँगी जाए!
जेएनयू के रजिस्ट्रार प्रमोद कुमार ने पिछले महीने रोमिला थापर को पत्र लिखकर उनसे सीवी जमा करने को कहा है। अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलीग्राफ़’ ने इस पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। अख़बार ने लिखा है कि जेएनयू के तीन फ़ैकल्टी मेंबरों ने इस पर हैरानी जताई है क्योंकि अभी तक किसी भी प्रोफ़ेसर इमेरिटस से सीवी देने को नहीं कहा गया है। रिपोर्ट के अनुसार फ़ैकल्टी मेंबरों ने कहा कि एक बार चुने जाने के बाद इस पद पर शिक्षक जीवन भर बना रहता है। अख़बार का कहना है कि जेएनयू रजिस्ट्रार ने फ़ोन करने और संदेश भेजने के बाद भी इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी।
बता दें कि प्रोफ़ेसर इमेरिटस पद के लिए अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त प्रोफ़ेसरों को ही चुना जाता है। जेएनयू में जिस सेंटर से कोई प्रोफ़ेसर सेवानिवृत्त होता है वही सेंटर उसके नाम को प्रस्तावित करता है। इसके बाद संबंधित बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ और विश्विद्यालय के अकादमिक परिषद और कार्यकारी परिषद मंजूरी देते हैं।
प्रोफ़ेसर इमेरिटस का यह पद अकादमिक के लिए कोई वित्तीय लाभ नहीं पहुँचाता है। हाँ इतना ज़रूर है कि उसे अकादमिक कार्य करने के लिए केंद्र में एक कमरा आवंटित किया जाता है। वे कभी-कभी व्याख्यान देते हैं और शोध छात्रों को सुपरवाइज़ करते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि फिर जेएनयू प्रशासन को इस पर क्या आपत्ति है? इसने थापर से क्यों सीवी माँगी? इस सवाल के जवाब में जेएनयू के प्रोफ़ेसर कहते हैं कि इसका कारण राजनीतिक है। ‘द टेलीग्राफ़’ के अनुसार, नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर जेएनयू के एक सीनियर फ़ैकल्टी मेंबर ने कहा, ‘यह पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित क़दम है। प्रोफ़ेसर थापर शिक्षा के निजीकरण, संस्थानों की स्वायत्तता ख़त्म करने और जेएनयू सहित कई संस्थानों के मतभेद की आवाज़ को कुचलने जैसी नीतियों की घोर आलोचक रही हैं।’
रोमिला थापर की किताब ‘द पब्लिक इंटलेक्चुअल इन इंडिया’ में नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में बढ़ रहे असहिष्णुता का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है। इससे पहले भी वह कई मुद्दों पर सरकार की नीतियों का विरोध करती रही हैं।
नफ़रत के ख़िलाफ़ वोट देने को कहा था
2019 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले अप्रैल में इंडियन राइटर्स फ़ोरम की ओर से जारी अपील में अलग-अलग भाषाओं के 200 से अधिक लेखकों ने 'नफ़रत की राजनीति' के ख़िलाफ़ वोट करने की अपील की थी। इसमें रोमिला थापर का भी नाम था। इस अपील में थापर के अलावा गिरीश कर्नाड, अमिताव घोष, नयनतारा सहगल और अरुंधती रॉय सरीखे लेखकों ने मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे। बयान में कहा गया था कि लेखकों, कलाकारों, फ़िल्मकारों, संगीतकारों और अन्य सांस्कृतिक लोगों को डराया-धमकाया गया और उनका मुँह बंद कराने की कोशिश की गई। उन्होंने नफ़रत की राजनीति को उखाड़ फेंकने की अपील की थी।
शिक्षा नीति के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
इसी साल फ़रवरी में दिल्ली में हज़ारों शिक्षकों ने मोदी सरकार की शिक्षा नीतियों के ख़िलाफ़ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन किया। शिक्षकों ने माँग की थी कि देश के सभी नागरिक को मुफ़्त या सस्ती शिक्षा के साथ रोज़गार के अवसर प्राप्त हों। जॉइंट फोरम फॉर मूवमेंट ऑन एजुकेशन के इस विरोध मार्च का आयोजन इतिहासकार रोमिला थापर, प्रख्यात लेखक गीता हरिहरन और कर्नाटक संगीत गायक टी. एम. कृष्णा सहित प्रख्यात हस्तियों द्वारा किया गया था।
असहिष्णुता पर रही थीं मुखर
अक्टूबर 2015 में भी रोमिला थापर असहिष्णुता को लेकर काफ़ी मुखर रही थीं। तब देश के जाने माने इतिहासकारों ने 'देश में बढ़ रही असहिष्णुता और उसपर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी' पर आवाज़ उठाई थी। आवाज़ उठाने वालों में रोमिला थापर का भी नाम प्रमुखता से उछला था। 50 से ज़्यादा इतिहासकारों ने इस पर साझा बयान जारी कर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध ज़ाहिर किया था। इन इतिहासकारों में रोमिला थापर के अलावा इरफ़ान हबीब, केएन पन्नीकर और मृदुला मुखर्जी जैसे नाम भी शामिल थे।
उन्होंने साझा बयान में मौजूदा माहौल को बहुत ज़्यादा दूषित बताया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कोई भरोसा पैदा करने वाला बयान न देने के लिए उनका विरोध किया था। बता दें कि तब असहिष्णुता को लेकर फ़िल्मकारों सहित कई हस्तियों ने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिए थे।
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