अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने भारत की आजादी को खतरे में बताया है। उसके संपादकीय बोर्ड ने एक महत्वपूर्ण संपादकीय इस संबंध में तमाम तथ्यों के साथ प्रकाशित किया है। स्वतंत्र समाचार मीडिया
को डराने, उसको सेंसर करने, चुप कराने और दंडित करने के लिए शक्तियों का
दुरुपयोग, लोकलुभावन और सत्तावादी नेताओं की एक खतरनाक पहचान है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस खेमे
में पूरी तरह से शामिल हैं। प्रेस की
स्वतंत्रता को कम करने में उनका महत्वपूरण
योगदान है जो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में भारत की गौरवपूर्ण स्थिति
को कम कर रहा है। 2014 में मोदी के
सत्ता संभालने के बाद से पत्रकारों ने लगातार, अपने करियर और अपने जान जोखिम में
डालकर उन चीजों की रिपोर्टिंग की है, जिसे सरकार रोकना चाहती थी।
कमेटी टू प्रोटेक्ट
जर्नलिस्ट्स के वैश्विक सूचकांक में भारत प्रेस स्वतंत्रता को खत्म करने के मामले
में 11 वें स्थान पर है। कई पत्रकारों मौत की गुत्थी अभी तक अनसुलझी है,
जिसकी संख्या काफी ज्यादा है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा प्रकाशित वार्षिक
प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में, भारत 2022
में 150वें स्थान पर है, जो 180 देशों में सबसे कम है। प्रेस स्वतंत्रा के मामले में अमेरिका
42वें स्थान पर है। वहीं रूस भारत से थोड़ा और नीचे 155 वें स्थान पर और चीन 175वें स्थान पर है।
इसके नतीजे स्वरूप सेल्फसेंसरशिप लागू है। इसके साथ ही छपने वाली
रिपोर्टों में सरकारी लाइन से मेल खाती रिपोर्टों में तीखे हिंदू राष्ट्रवाद की
झलक भी दिखाई देती है। आलोचनात्मक रिपोर्टिंग पर
सरकार की असहिष्णुता की नवीनतम अभिव्यक्ति पिछले महीने बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री
को रोकने के लिए आपातकालीन कानूनों को लागू किया जाना था। बीबीसी का डॉक्यूमेंट्री "द मोदी
क्वेश्चन" ने 2002 गुजरात
में हुई हिंसा को श्री मोदी की भूमिका को सवालों को उठाया। जब वे गुजरात के
मुख्यमंत्री पद पर थे। गुजरात में हुई हिंसा में 1,000 से ज्यादा लोगों को
अपनी जान गंवानी पड़ी, इसमें अधिकांश मुस्लिम थे।
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हालांकि गुजरात दंगों के
बारे में कई प्रमुख तथ्य पहले से ही सार्वजनिक हैं। बीबीसी डॉक्यूमेंट्री
में अन्य बातों के अलावा, 2002 की एक अज्ञात
ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट का खुलासा किया, जिसमें श्री मोदी को दंगों के फैलने में उनको सीधे जिम्मेदार पाया गया। गुजरात
सरकार पर आरोप लगाया कि उसने जरूरी पुलिस हस्तक्षेप नहीं करने दिया क्योंकि
मुसलमानों को पीटा जा रहा था। इसमें हिंसा में बलात्कार, जलाकर मार डालने जैसे कृत्य
भी किये गये। श्री मोदी लंबे समय से हिंसा के लिए किसी भी
जिम्मेदारी से इनकार करते रहे हैं। भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक जांच
दल ने भी 2012 में सबूतों के अभाव में उन्हें आरोपों से मुक्त
कर दिया था।
मोदी 2019
में भारतीय जनता पार्टी को मिले बहुमत के साथ
फिर से प्रधानमंत्री चुने गए थे। वे अभी भी लोकप्रिय बने हुए
हैं। लेकिन दो दशक बाद भी वह हिंसा में अपनी भूमिका के बारे में लगातार उठ रहे सवालों
को मिटा नहीं पाए हैं। खासकर जब सरकार
ने हिंदू राष्ट्रवाद के उनके ब्रांड की खुली चर्चा को दबा दिया है। ह्यूमन राइट्स वॉच की हालिया रिपोर्ट में कहा
गया है, "बीजेपी की हिंदू प्रधानता विचारधारा ने न्याय
प्रणाली और मीडिया में घुसपैठ कर ली है, जिससे उसके समर्थकों को
धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को धमकी देने, परेशान करने और उनपर हमला करने का अधिकार मिल गया है।
बीबीसी के दो भागों वाली
डॉक्यूमेंट्री ने इस सब को चुनौती दी है। हालांकि भारत में इसे प्रसारित करने की
कोई योजना नहीं थी। लेकिन इसके
प्रमुख हिस्से तुरंत सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगे। सरकार ने इस पर
प्रतिक्रिया व्यक्त की, जो उसके खिलाप
गुस्सा उभर आया। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने डॉक्यूमेंट्री को साझा करने वाले
वीडियो और लिंक को ब्लॉक कर, इसे
"शत्रुतापूर्ण प्रचार और भारत विरोधी" कहा गया। यूट्यूब और ट्विटर ने सरकार
के आदेश का पालन किया। बीबीसी ने जारी
किए एक बयान में कहा कि डॉक्यूमेंट्री को "उच् संपादकीय मानकों के अनुसार
कड़ाई से शोध करके बनाया गया था।
फिल्म के स्निपेट के
प्रसार को रोकने से लोगों में इसके प्रति अधिक रुचि पैदा मानवाधिकार समूहों और एक
विपक्षी सांसद द्वारा "उग्र सेंसरशिप" के खिलाफ विरोध किया गया। कुछ विपक्षी
छात्र समूहों ने डॉक्यूमेंट्री के सार्वजनिक प्रदर्शन करने का प्रयास किया,
इसको भी
रेकने के प्रयास किये गए। नई दिल्ली में
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में, प्रशासन ने डॉक्यूमेंट्री
की स्क्रीनिंग को रोकने के लिए बिजली और इंटरनेट बंद कर दिया। इसके बाद भी छात्रों
ने इसे अपने मोबाइल फोन पर देखा।
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मोदी के लिए एक संभावित
शर्मिंदगी के रूप में शुरू हुई यह घटना इस प्रकार प्रेस की स्वतंत्रता की
स्वतंत्रा की लड़ाई बन गई, जोकि बाकी दुनिया के लिए भी एक सबक बन गया। मोदी सक्रिय
रूप से विश्व मामलों में एक बड़ी भूमिका की तलाश कर रहे हैं। उन्हें
संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के नेताओं द्वारा सक्रिय रूप से स्थान दिया गया है, फिर वह चाहे रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन के समर्थन के
लिए हो, या फिर चीन की
बढ़ती आर्थिक शक्ति के प्रति संतुलन के रूप में। मोदी इसके लिए हमेशा से लालायित रहे हैं। उदाहरण के लिए, ऐप्पल की
घोषणा कि वह भारत में अपने आईफोन 14 का उत्पादन शुरू करेगी। इसे
विश्लेषकों ने चीन पर निर्भरता कम करने के तौर पर देखा।
भारत एक बड़ी शक्ति और एक
महत्वपूर्ण खिलाड़ी है क्योंकि रूस और चीन दुनिया में बलों के संतुलन को बदलने के
लिए काम करते हैं। लेकिन श्री मोदी के साथ अपने आवश्यक व्यवहार में, अमेरिकी और यूरोपीय नेताओं को यह याद रखना
चाहिए कि यह केवल एक लोकतंत्र के रूप में, एक स्वतंत्र और जीवंत प्रेस के साथ है कि भारत वास्तव में अपनी वैश्विक भूमिका
को पूरा कर सकता है। मोदी की पार्टी जानती है- 1975 से 1977 तक आपातकाल के
काले दिनों में बीजेपी को दबा दिया गया था और उसके कई नेताओं को जेल में डाल दिया
गया था, तब लोकलुभावन नेता
असहमति को रोकने के लिए आपातकालीन कानूनों का सहारा लेते हैं, लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।
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