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‘हिंदी’ वाले बयान पर बुरे फंसे शाह, हो सकता है सियासी नुक़सान!

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी दिवस के मौक़े पर पूरे देश की एक भाषा होने के ट्वीट पर उन्हें अपनी ही पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ेगा। दक्षिण के कुछ विपक्षी दलों के नेताओं ने तो शाह के इस ट्वीट का पुरजोर विरोध किया ही था और कहा था कि शाह उनके राज्यों में हिंदी को थोपने की कोशिश न करें। इस मुद्दे पर उनकी पार्टी के भीतर से भी आवाज़ उठी है। 

पहले जानते हैं कि अमित शाह ने अपने ट्वीट में क्या कहा था। शाह ने कहा था कि आज देश को एकता की डोर में बाँधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोले जाने वाली हिंदी भाषा ही है। हालाँकि शाह ने यह भी कहा कि भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है। शाह के इस ट्वीट के बाद से ही दक्षिणी राज्यों सहित पश्चिम बंगाल में भी बहस छिड़ गई है। 

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बीजेपी के अंदर सबसे पहले इस मामले में आवाज़ उठाई है कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने। येदियुरप्पा को दक्षिण की राजनीति में सबसे धाकड़ नेता माना जाता है और शाह के ट्वीट के बाद जिस तरह दक्षिण के संगठनों ने हिंदी थोपे जाने का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन किया था, उससे येदियुरप्पा को यह डर ज़रूर लगा होगा कि कहीं यह मुद्दा उनके लिए मुसीबत न बन जाए, इसलिए उन्होंने ट्वीट कर कहा, ‘देश में सभी आधिकारिक भाषाएँ समान हैं लेकिन जहाँ तक कर्नाटक की बात है, कन्नड़ यहाँ की प्रधान भाषा है और हम कभी भी इसकी अहमियत से कोई समझौता नहीं करेंगे।’ उन्होंने आगे कहा, ‘हम कन्नड़ और अपने राज्य की संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’ 

येदियुरप्पा के इस ट्वीट से साफ़ पता चलता है कि कर्नाटक में हिंदी को लागू करने की आशंका से ही सरकार के मुखिया बुरी तरह डर गए। वरना, उनके लिए ऐसा ट्वीट करना क़तई आसान नहीं था। 

बंगाल बीजेपी असमंजस में 

इसके बाद नंबर आता है बंगाल का। शाह के ट्वीट के बाद पश्‍चिम बंगाल की मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि हम कई भाषाएँ सीख सकते हैं लेकिन हमें अपनी मातृ-भाषा को कभी नहीं भूलना चाहिए और सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से सम्मान करना चाहिए। ममता बंगाली मानुष और बंगाली संस्कृति को अहमियत देने की बात करती रही हैं और लोकसभा चुनाव के दौरान महान समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ने की घटना पर उन्होंने बीजेपी पर बंगाल की संस्कृति का अपमान करने का आरोप लगाते हुए इसे मुद्दा बनाया था। 

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लेकिन शाह के ट्वीट पर पश्चिम बंगाल बीजेपी क्या प्रतिक्रिया दे, यह उसके लिए ख़ासा मुश्किल हो गया है। बीजेपी की राज्य ईकाई की शाह के बयान का विरोध करने की हिम्मत नहीं है और हिंदी को देश की भाषा बनाने या पश्चिम बंगाल में भी लागू करने की बात कहकर वह राज्य में सियासी नुक़सान नहीं उठाना चाहती।

पश्चिम बंगाल के बीजेपी नेताओं को इस बात का डर है कि कहीं यह बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा न बन जाए क्योंकि तृणमूल कांग्रेस यह आरोप लगा चुकी है कि अमित शाह का ट्वीट हिंदी को थोपने की कोशिश है। 
वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने कहा है कि हिंदी को देश भर में थोपे जाने का विचार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है। न्यूज़ एजेंसी एएनआई के मुताबिक़, येचुरी ने कहा कि संघ की विचारधारा एक राष्ट्र, एक भाषा और एक संस्कृति की है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अभिनेता से राजनेता बने कमल हासन ने भी इस मसले पर ट्वीट कर अमित शाह पर तंज कसा था कि जब भारत गणराज्य बना था तो हमसे विविधता में एकता का वादा किया गया था और अब कोई शाह, सुल्तान या सम्राट उस वादे को तोड़ नहीं सकता। 

‘यह इंडिया है हिंडिया नहीं’

तमिलनाडु में विपक्ष के नेता एमके स्टालिन ने अमित शाह के बयान की आलोचना की थी और कहा था कि यह इंडिया है हिंडिया नहीं। स्टालिन ने कहा था कि गृह मंत्री के विचार भारत की एकता के लिए ख़तरा हैं। स्टालिन ने कहा था कि वे हमेशा से अपने ऊपर हिंदी को थोपने का विरोध करते रहे हैं और शाह का यह बयान देश की एकता को प्रभावित करेगा। 

कर्नाटक, तमिलनाडु के अलावा दक्षिण के बाक़ी राज्यों में भी शाह के बयान के विरोध में तीख़ी प्रतिक्रिया सामने आई है। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा है कि हिंदी देश को एकता के सूत्र में बांध सकती है, यह विचार ही बेतुका है।

मुख्यमंत्री ने कहा, ‘यह भाषा (हिंदी) अधिकांश भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। हिंदी को उन पर थोपने का क़दम उन्हें ग़ुलाम बनाने की कोशिश है। केंद्रीय मंत्री का बयान ग़ैर हिंदी भाषी लोगों की मातृभाषा के ख़िलाफ़ एक युद्ध की तरह है।’ 

एआईएमआईएम प्रमुख और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी शाह के हिंदी को एकता की डोर में बांधने वाली भाषा बताने पर निंदा की थी। ओवैसी ने तंज कसते हुए कहा था कि भारत हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व से बहुत बड़ा है।

हिंदी दिवस के दिन स्‍थानीय कन्नड़ संगठनों ने इसका विरोध करते हुए बेंगलुरु में प्रदर्शन किया था। 
यहाँ ज़िक्र करना ज़रूरी होगा कि इस साल जून में नई एजुकेशन पॉलिसी का ड्राफ़्ट सामने आने के बाद दक्षिण के राज्यों में इसका जोरदार विरोध हुआ था क्योंकि इसमें भारत के सभी स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य किये जाने की बात सामने आई थी। तब दक्षिण के संगठनों और आम लोगों ने कहा था कि उन पर हिंदी थोपी जा रही है। इसके बाद तमिलनाडु सरकार ने भी इसे लागू करने से इनकार कर दिया था और कहा था कि तमिलनाडु में सिर्फ़ तमिल और अंग्रेज़ी आगे बढ़ेगी। 
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ऐसे में अमित शाह यह ट्वीट कर मुसीबत में फंस गये हैं। क्योंकि इससे विपक्षी दलों को बीजेपी और संघ पर हमलावर होने का एक और मौक़ा मिल गया है और उनका कहना है कि हिंदी को थोपने का वे पुरजोर विरोध करेंगे। और यह भी तय है कि अगर बीजेपी ने इस मुद्दे पर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे निश्चित तौर पर दक्षिण के राज्यों सहित पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में भी सियासी नुक़सान हो सकता है। 

यहाँ बता दें कि तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का बहुत पुराना इतिहास रहा है। साल 1937 में जब मद्रास प्रान्त में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सरकार बनी थी और सरकार के मुखिया चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की थी तब द्रविड़ आंदोलन के नेता 'पेरियार' के नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था। यह आंदोलन इतना तीव्र और प्रभावशाली था कि सरकार को झुकना पड़ा था। इसके बाद 50 और 60 के दशकों में भी जब हिंदी को थोपने की कोशिश की गयी तब भी जमकर आंदोलन हुआ था और हिंसा भी हुई थी। 

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क़मर वहीद नक़वी
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