केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह सोचा भी नहीं होगा कि हिंदी दिवस के मौक़े पर पूरे देश की एक भाषा होने के ट्वीट पर उन्हें अपनी ही पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ेगा। दक्षिण के कुछ विपक्षी दलों के नेताओं ने तो शाह के इस ट्वीट का पुरजोर विरोध किया ही था और कहा था कि शाह उनके राज्यों में हिंदी को थोपने की कोशिश न करें। इस मुद्दे पर उनकी पार्टी के भीतर से भी आवाज़ उठी है।
पहले जानते हैं कि अमित शाह ने अपने ट्वीट में क्या कहा था। शाह ने कहा था कि आज देश को एकता की डोर में बाँधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सर्वाधिक बोले जाने वाली हिंदी भाषा ही है। हालाँकि शाह ने यह भी कहा कि भारत विभिन्न भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है। शाह के इस ट्वीट के बाद से ही दक्षिणी राज्यों सहित पश्चिम बंगाल में भी बहस छिड़ गई है।
All official languages in our country are equal. However, as far as Karnataka is concerned, #Kannada is the principal language. We will never compromise its importance and are committed to promote Kannada and our state's culture.
— CM of Karnataka (@CMofKarnataka) September 16, 2019
येदियुरप्पा के इस ट्वीट से साफ़ पता चलता है कि कर्नाटक में हिंदी को लागू करने की आशंका से ही सरकार के मुखिया बुरी तरह डर गए। वरना, उनके लिए ऐसा ट्वीट करना क़तई आसान नहीं था।
बंगाल बीजेपी असमंजस में
इसके बाद नंबर आता है बंगाल का। शाह के ट्वीट के बाद पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि हम कई भाषाएँ सीख सकते हैं लेकिन हमें अपनी मातृ-भाषा को कभी नहीं भूलना चाहिए और सभी भाषाओं और संस्कृतियों का समान रूप से सम्मान करना चाहिए। ममता बंगाली मानुष और बंगाली संस्कृति को अहमियत देने की बात करती रही हैं और लोकसभा चुनाव के दौरान महान समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़ने की घटना पर उन्होंने बीजेपी पर बंगाल की संस्कृति का अपमान करने का आरोप लगाते हुए इसे मुद्दा बनाया था।
लेकिन शाह के ट्वीट पर पश्चिम बंगाल बीजेपी क्या प्रतिक्रिया दे, यह उसके लिए ख़ासा मुश्किल हो गया है। बीजेपी की राज्य ईकाई की शाह के बयान का विरोध करने की हिम्मत नहीं है और हिंदी को देश की भाषा बनाने या पश्चिम बंगाल में भी लागू करने की बात कहकर वह राज्य में सियासी नुक़सान नहीं उठाना चाहती।
वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने कहा है कि हिंदी को देश भर में थोपे जाने का विचार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का है। न्यूज़ एजेंसी एएनआई के मुताबिक़, येचुरी ने कहा कि संघ की विचारधारा एक राष्ट्र, एक भाषा और एक संस्कृति की है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
अभिनेता से राजनेता बने कमल हासन ने भी इस मसले पर ट्वीट कर अमित शाह पर तंज कसा था कि जब भारत गणराज्य बना था तो हमसे विविधता में एकता का वादा किया गया था और अब कोई शाह, सुल्तान या सम्राट उस वादे को तोड़ नहीं सकता।
‘यह इंडिया है हिंडिया नहीं’
तमिलनाडु में विपक्ष के नेता एमके स्टालिन ने अमित शाह के बयान की आलोचना की थी और कहा था कि यह इंडिया है हिंडिया नहीं। स्टालिन ने कहा था कि गृह मंत्री के विचार भारत की एकता के लिए ख़तरा हैं। स्टालिन ने कहा था कि वे हमेशा से अपने ऊपर हिंदी को थोपने का विरोध करते रहे हैं और शाह का यह बयान देश की एकता को प्रभावित करेगा।
कर्नाटक, तमिलनाडु के अलावा दक्षिण के बाक़ी राज्यों में भी शाह के बयान के विरोध में तीख़ी प्रतिक्रिया सामने आई है। केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने कहा है कि हिंदी देश को एकता के सूत्र में बांध सकती है, यह विचार ही बेतुका है।
मुख्यमंत्री ने कहा, ‘यह भाषा (हिंदी) अधिकांश भारतीयों की मातृभाषा नहीं है। हिंदी को उन पर थोपने का क़दम उन्हें ग़ुलाम बनाने की कोशिश है। केंद्रीय मंत्री का बयान ग़ैर हिंदी भाषी लोगों की मातृभाषा के ख़िलाफ़ एक युद्ध की तरह है।’
एआईएमआईएम प्रमुख और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी शाह के हिंदी को एकता की डोर में बांधने वाली भाषा बताने पर निंदा की थी। ओवैसी ने तंज कसते हुए कहा था कि भारत हिंदी, हिंदू और हिंदुत्व से बहुत बड़ा है।
Karnataka Ranadheera Pade and other pro Kannada organizations held a protest in front of town hall in Bengaluru against #Hindidivas pic.twitter.com/7Y4stviZFH
— ANI (@ANI) September 14, 2019
ऐसे में अमित शाह यह ट्वीट कर मुसीबत में फंस गये हैं। क्योंकि इससे विपक्षी दलों को बीजेपी और संघ पर हमलावर होने का एक और मौक़ा मिल गया है और उनका कहना है कि हिंदी को थोपने का वे पुरजोर विरोध करेंगे। और यह भी तय है कि अगर बीजेपी ने इस मुद्दे पर आगे बढ़ने की कोशिश की तो उसे निश्चित तौर पर दक्षिण के राज्यों सहित पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में भी सियासी नुक़सान हो सकता है।
यहाँ बता दें कि तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का बहुत पुराना इतिहास रहा है। साल 1937 में जब मद्रास प्रान्त में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सरकार बनी थी और सरकार के मुखिया चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की थी तब द्रविड़ आंदोलन के नेता 'पेरियार' के नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था। यह आंदोलन इतना तीव्र और प्रभावशाली था कि सरकार को झुकना पड़ा था। इसके बाद 50 और 60 के दशकों में भी जब हिंदी को थोपने की कोशिश की गयी तब भी जमकर आंदोलन हुआ था और हिंसा भी हुई थी।
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