ज्ञानवापी मसजिद विवाद के मामले में वाराणसी की जिला अदालत के फैसले के बाद हिंदू पक्ष जश्न मना रहा है तो मुसलिम पक्ष इसे ऊपरी अदालत में चुनौती देने की तैयारी में है।
मसजिद की अंजुमन इंतजामिया कमेटी के वकील ने कहा है कि विरोधी पक्ष की याचिका सुने जाने योग्य नहीं थी। इसके बावजूद निचली अदालत ने उसे स्वीकार किया है। एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि इस मामले में अपील की जानी चाहिए।
बता दें कि वाराणसी की जिला अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि श्रृंगार गौरी के मामले को आगे सुना जा सकता है।
क्या है मामला?
वाराणसी की सिविल कोर्ट में 5 हिंदू महिलाओं ने याचिका दायर कर मसजिद के अंदर देवी-देवताओं की पूजा की इजाजत देने की मांग की थी। यह मसजिद काशी विश्वनाथ मंदिर के बगल में ही स्थित है। जबकि मसजिद की अंजुमन इंतजामिया कमेटी की ओर से इसे चुनौती दी गई थी। कमेटी ने अदालत में पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का हवाला दिया था और कहा था कि इसके तहत हिंदू महिलाओं की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई नहीं हो सकती।
कमेटी ने इसके अलावा भी क्या दलीलें अदालत के सामने रखी और अदालत ने इन दलीलों पर क्या कहा, इसे समझते हैं।
लेकिन इससे पहले बता दें कि महिलाओं की ओर से याचिका दायर किए जाने के बाद इस साल अप्रैल में सिविल जज ने मसजिद में वीडियोग्राफी सर्वे कराने का आदेश दिया था। इसके खिलाफ मसजिद की अंजुमन इंतजामिया कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था और कहा था कि यह मसजिद के धार्मिक चरित्र को बदलने की कोशिश है।
मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे वाराणसी के जिला जज को ट्रांसफर कर दिया था। शीर्ष अदालत ने कहा था कि जब जिला अदालत इस मामले से जुड़े प्रारंभिक पहलुओं पर फैसला कर लेगी उसके बाद ही वह इस मामले में दखल देगी।
बहरहाल, जिला जज ने अपने आदेश में कहा है कि उन्हें ऐसा कोई कानून नहीं मिला जो याचिकाकर्ताओं को इस तरह का मुकदमा दायर करने से रोकता हो। मुसलिम पक्ष ने मुकदमे के दौरान सुनवाई में तीन अहम कानूनों को अदालत के सामने रखा था।
पूजा स्थल अधिनियम, 1991: द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मुसलिम पक्ष ने अदालत के सामने दलील दी थी कि इस अधिनियम की धारा 4 कहती है कि 15 अगस्त 1947 को जिस पूजा स्थल की जो स्थिति थी उसे बरकरार रखा जाएगा। मुसलिम पक्ष ने तर्क दिया था कि इस मामले में मुकदमा चलाने की अनुमति देने के बाद मसजिद का चरित्र बदल जाएगा। मुसलिम पक्ष का कहना था कि यह मसजिद 600 सालों से ज्यादा वक्त से अस्तित्व में है जबकि हिंदू पक्ष के याचिकाकर्ताओं का कहना था कि 1993 तक ज्ञानवापी मसजिद के अंदर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा होती थी और 1993 के बाद से साल में एक दिन किसी निश्चित जगह पर ही पूजा की अनुमति दी गई है।
हिंदू पक्ष के याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को मानते हुए कि 15 अगस्त 1947 के बाद भी ज्ञानवापी मसजिद में हिंदू देवी-देवताओं की पूजा की अनुमति थी, जिला अदालत ने कहा कि ऐसे में पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का कानून इस मुकदमे पर रोक नहीं लगाता।
द वक्फ एक्ट, 1995: द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, मुसलिम पक्ष ने अपनी दलील में द वक्फ एक्ट, 1995 को भी सामने रखा था। मुसलिम पक्ष ने तर्क दिया था कि यह वक्फ की संपत्ति है और द वक्फ एक्ट, 1995 की धारा 85 के मुताबिक केवल वक्फ न्यायाधिकरण, लखनऊ ही ऐसे मामलों में फैसला कर सकता है। मसजिद पक्ष की ओर से यह साबित करने के लिए दो दलीलें दी गई कि यह मसजिद वक्फ की संपत्ति पर बनी है।
पहली दलील यह कि यह वाराणसी के गैजेट में प्रकाशित है कि मसजिद वक्फ की जमीन पर बनी है और दूसरा यह कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी कहा है कि लंबे वक्त से धार्मिक उद्देश्यों जैसे मसजिद या फिर दफनाने के लिए इस्तेमाल की जा रही जमीन ईश्वर को समर्पित होगी और इसे वक्फ की संपत्ति माना जाएगा।
इसके बाद अदालत हिंदू पक्ष के याचिकाकर्ताओं की ओर से दी गई दो दलीलों के बाद इस बात पर सहमत हुई कि इस मुकदमे को वक्फ एक्ट, 1995 के तहत रोका नहीं जा सकता।
दूसरी, अदालत इस बात पर हिंदू पक्ष के याचिकाकर्ताओं से सहमत हुई कि क्योंकि यह जमीन प्राचीन काल से आदि विश्वेश्वर देवता से संबंधित है इसलिए यह कभी भी वक्फ की संपत्ति नहीं हो सकती थी।
काशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट, 1983: द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, इसके अलावा मुसलिम पक्ष ने हिंदू पक्ष की ओर से दायर किए गए मुकदमे को काशी विश्वनाथ मंदिर एक्ट, 1983 के तहत भी चुनौती दी। इस एक्ट के तहत मंदिर की जमीन का स्पष्ट रूप से सीमांकन किया गया था और कानून के तहत नियुक्त किए गए बोर्ड ने भी इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया था।
द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, लेकिन अदालत ने इस मामले में एक्ट की धारा 4(9) का हवाला दिया जिसके मुताबिक मंदिर को आदि विश्वेश्वर के मंदिर के रूप में परिभाषित किया जाता है और जिसे श्री काशी विश्वनाथ मंदिर के रूप में जाना जाता है। इसे ज्योतिर्लिंगों की सार्वजनिक पूजा के स्थान के रूप में जाना जाता है और इसमें सभी अधीनस्थ मंदिर, उप-मंदिर और अन्य सभी देवताओं के अस्थान शामिल हैं। इसके अलावा मंडप, कुएं, टैंक, अन्य संरचनाएं और उनसे जुड़ी जमीन भी इसमें शामिल है।
अब अदालत को इस मुद्दे पर फैसला करने से पहले 1947 की स्थिति को देखना होगा। द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, कानून के विशेषज्ञों के हिसाब से ऐसा करना बेहद मुश्किल होगा क्योंकि इस तरह के कई दावे दीवानी मुकदमों में किए जा सकते हैं और इससे देश में व्यापक आधार पर धार्मिक विभाजन का रास्ता खुल सकता है।
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